मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

क्या वैदिक धर्म में विभिन्न मत हैं?

कुछ लोग विद्वान होते हुए भी अविद्वता की बात करते हैं तो बड़ा अजीब लगता है जैसे उदाहरण के तौर पर मैंने पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य(शांतिकुंज हरिद्वार वाले)की व्याखित की हुई सांख्य योग, योग शास्त्र, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा एवं वेदांत दर्शन पढ़ी। पुस्तकों की भूमिका में और कहीं-कहीं मध्य में भी श्रीराम शर्मा आचार्य ने ये भरपूर प्रयास किया है की ये पुस्तकें विपरीतार्थक दर्शन हैं जबकि पढने के पश्चात् एक मेरा जैसा आम मनुष्य भी शुद्ध रूप से कह सकता है ये दर्शन तो वेदों के ही पृथक-पृथक विषयों का अध्यन कराते हैं या कह सकते हैं वेद के ज्ञान को ही व्याखित करते हैं और कहीं से कहीं तक भी एक दूसरे का विरोध नही करते और शब्द प्रमाण अर्थात वेद ऋचाओं को सर्वोपरि मानते हैं फ़िर जबरदस्ती ये ऐसा आरोप लगाने का प्रयास क्यों कर रहे हैं। श्रीराम आचार्य ने अनुवाद और व्याखा उत्तम गुणवत्ता की है किंतु हल्का सा आभास होता है कहीं-कहीं व्याखा अनुवाद से भिन्न नज़र आती है। वैसे निश्चित तौर पर वो अपने इन अनुवादित एवं व्याखित कि हुई पुस्तकों से निर्विवाद विद्वान नज़र आते हैं किन्तु वो इश्वर, आत्मा और प्रकृति के नवीन सिद्धांत एकात्मवाद पर बल देते नज़र आते हैं और साथ में पुराणियो की मूर्तिपूजा और अवतारवाद को समर्थन भी प्रदान करते हैं। मतलब की वो किसी का विरोधी नहीं होना पसंद करते हैं चाहे थोडा सा असत्य क्यों न अपनाना पड़े। उनकी यह मान्यता उनके द्वारा इन व्याखित की हुई पुस्तकों में भी झलकती है। वैसे ये असत्य के विरोधी न होने की मानसिकता आत्मविरोधी के साथ-साथ आत्मघाती भी होती है इसलिए मनुष्य को सर्वदा सत्य का साथ देना चाहिए चाहे कोई बुरा माने या भला माने और इस से साम्प्रदायिक लोगो को बल भी मिलता है और उन जैसे विद्वान पुरुषों को शोभा भी नहीं देता है। मेरे अध्यन के हिसाब से और प्रत्यक्ष प्रमाणित भी है कि संक्षिप्त रूप में महर्षि कपिल द्वारा रचित सांख्य योग प्रकृति के तत्वों की संख्यात्मक विवेचना करता है मतलब की ये जगत किन तत्वों से मिलकर क्यों और कैसे बना है और प्रकृति अपना कार्य किस प्रकार इश्वर से प्रेरित होके करती है,महर्षि पतंजलि का योग शास्त्र इश्वर प्राप्ति या आत्म ज्ञान की क्रियात्मक विवेचना करता है मतलब की सभी ग्रंथो की वास्तविक सार्थकता तभी है जब योग शास्त्र के अनुसार मनुष्य व्यवहार करता हुआ ध्यान, समाधि द्वारा अपने जीवन में क्रियान्वित करे और तभी उसको जीवात्मा, प्रकृति और इश्वर का भेदज्ञान होकर इश्वर सानिध्य प्राप्त आनंद होगा, महर्षि अक्षपाद गौतम का न्याय सत्य-असत्य का कैसे निर्णय हो और प्रमाणों को भी प्रमाणित करते हुए न्याय की विवेचना करता है मतलब की सभी शास्त्रों की प्रमाणिकता किस आधार पर हो उसको बताता है, महर्षि कणाद का वैशेषिक प्रकृति की वास्तविक स्वरूपता की विवेचना करता है मतलब की प्रकृति अपने मूल स्वरुप में कैसी होती है किस तरह से परमाणु सयुंक्त हो कर नवतत्वों का सृजन करते हैं, महर्षि जैमिनी का मीमांसा मनुष्य के कर्म-कांड यज्ञ आदि कर्मो की विवेचना करता है और महर्षि बादरायण कृत वेदांत आत्म ज्ञान और इश्वर उपासना को समझाता है। वेदांत के साथ-साथ बाकि सभी ग्रन्थ इश्वर,आत्मा और प्रकृति ३ नित्य तत्वों को स्वीकारते हैं और इन सभी की रचना इन ३ तत्वों के भेदों, स्वरूपों का वर्णन करने के लिए ही ऋषियों द्वारा मनुष्य कल्याण के लिए ही की है।

बहुत से लोग इस बात को कहते मिल जायेंगे की वैदिक हिन्दू धर्म शास्त्रों की बातें आपस में विरोधी हैं। कुछ लोग यहाँ तक कहते मिल जायेंगे की वेदों की बहुत सी ऋचाएं एक-दुसरे की विरोधी हैं। मैंने वेद तो नहीं पढ़े हैं किन्तु किसी भी आप्त पुरुषों द्वारा ऐसा कहते नहीं सुना। ऐसा कहने वालो में अधिकतर तो वो हैं जिन्होंने इन ग्रंथो का एक अक्षर भी नहीं पढ़ा और कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने आधे-अधूरे ज्ञान वालो की या अंग्रेजी लेखको की पुस्तकों को पढ़ कर निर्णय लिया है। कुछ विद्वान वैदिक हिन्दू दर्शन को षड्-दर्शन की संज्ञा देते हैं और वो इसको सांख्य योग, योग शास्त्र, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा एवं वेदांत दर्शन पुस्तकों के आधार पर बोलते हैं की ये पुस्तकें पृथक -पृथक दर्शन हैं और इनको अलग अलग मतों में विभाजित कर देते हैं जैसे सांख्यवादी, न्यायिक, वैशेषिक, मिमांसिक, वेदांत मान्यता वाले आदि नामो से संबोधित करते हैं। यदि इसको सत्य की कसौटी पर रखा जाये तो ये निरी मुर्खता के अलावा कुछ भी नहीं है। जैसे प्राणी विज्ञान के २ भाग हैं जीव विज्ञान और वनस्पति विज्ञान तो क्या हम ये कहेंगे जीव विज्ञान और वनस्पति विज्ञान एक दूसरे के विरोधी विषय हैं और या फिर क्या हम ये कहते हैं भौतिक शास्त्र रसायन शास्त्र का विरोधी है उसी प्रकार से ये ६ पुस्तकें वेदों पर आधारित ६ विषय को वर्णित करती हैं और कोई भी इनको एक दूसरे का विरोधी नहीं कह सकता है और यदि कहता है तो ये अविद्वता कि बात लगती है। मेरी समझ में ये नहीं आता हिन्दू हर स्तर पर विभाजित है यहाँ तक की अपने धर्म-शास्त्रों के बारे में भी। मुझे ये स्वार्थी विद्वानों, चालक और धूर्त लोगो के कारण ऐसा होता दिखाई देता है। हर कोई अपनी विद्वता को सिद्ध करने के लिए कुछ भी करने को तैयार है और यहाँ तक की उन आप्त-पुरुषों, ब्रह्म-वेत्ताओं अथवा मुक्त-पुरुषों महर्षियों की बातों को अपने छल और कुतर्को से बलपूर्वक काटने का प्रयास करते हैं या अपनी बातो को उनका बताने का मिथ्या प्रचार करते हैं।इनको पढने के लिए अध्यात्म में सत्य के अन्वेषण में गहरी रूचि होनी चाहिए ये ६ ग्रन्थ पढ़ कर आप की जीवनद्रष्टि ही बदल जायेगी और यदि आप सत्य के समर्थक हैं आप की धर्म के बारे में धारणा ही बदल जायेगी और ये भी अंतर कर पाओगे की वैदिक हिन्दू धर्म विज्ञान सम्मत सनातन धर्म है न की कोई मजहब या रिलिजन। इनको पढ़ कर वास्तव में ये एहसास होता है की कितने ही सारे आज के वैज्ञानिक सिद्दांत इन पुस्तकों में और भी व्यापक रूप से हैं मतलब की देखा जाये तो आज के वैज्ञानिको ने ऐसे कुछ नए सिद्दांत नहीं खोजें है वो तो पहले से ही वैदिक शास्त्रों में उस से भी अधिक व्यापक रूप में लिखित है। शायद मेरी बात साम्प्रदायिक लोगो की संकीर्ण बुद्दी से समझ नहीं आएगी जो वैदिक धर्म को मजहब,टोटकेधारियों,रिलिजन आदि की द्रष्टि से देखते हैं। मैं केवल इतना कह सकता हूँ कि मनुष्य स्वयम अध्यन करके सत्य-असत्य का निष्पक्ष रूप से निर्णय कर सकता है।