रविवार, 10 अक्तूबर 2010

इस्लाम के बारे में विभिन्न विचारकों के विचार

निम्नलिखित विभिन्न विचारकों की बातें मैंने कई स्थान पर समय-२ पर पढ़ी हैं. लोगो को सत्य का अधिक से अधिक और जल्द से जल्द पता लगे इसलिए मैं भी इन बातों को अपने ब्लॉग पर डाल रहा हूँ. मानवता की भलाई के लिये प्रत्येक हिन्दू को ये विचार जानना और इसका प्रसार करना अतिआवश्यक है ताकि सभी जागृत रहें और जेहादियों के छलावे में कभी न आयें.

महर्षि दयानन्द सरस्वती

इस मजहब में अल्लाह और रसूल के वास्ते संसार को लुटवाना और लूट के माल में खुदा को हिस्सेदार बनाना शबाब का काम हैं । जो मुसलमान नहीं बनते उन लोगों को मारना और बदले में बहिश्त को पाना आदि पक्षपात की बातें ईश्वर की नहीं हो सकती । श्रेष्ठ गैर मुसलमानों से शत्रुता और दुष्ट मुसलमानों से मित्रता , जन्नत में अनेक औरतों और लौंडे होना आदि निन्दित उपदेश कुएं में डालने योग्य हैं । अनेक स्त्रियों को रखने वाले मुहम्मद साहब निर्दयी , राक्षस व विषयासक्त मनुष्य थें , एवं इस्लाम से अधिक अशांति फैलाने वाला दुष्ट मत दसरा और कोई नहीं । इस्लाम मत की मुख्य पुस्तक कुरान पर हमारा यह लेख हठ , दुराग्रह , ईर्ष्या विवाद और विरोध घटाने के लिए लिखा गया , न कि इसको बढ़ाने के लिए । सब सज्जनों के सामन रखने का उद्देश्य अच्छाई को ग्रहण करना और बुराई को त्यागना है ।।

-सत्यार्थ प्रकाश १४ वां समुल्लास विक्रमी २०६१


स्वामी विवेकानन्द
ऎसा कोई अन्य मजहब नहीं जिसने इतना अधिक रक्तपात किया हो और अन्य के लिए इतना क्रूर हो । इनके अनुसार जो कुरान को नहीं मानता कत्ल कर दिया जाना चाहिए । उसको मारना उस पर दया करना है । जन्नत (जहां हूरे और अन्य सभी प्रकार की विलासिता सामग्री है) पाने का निश्चित तरीका गैर ईमान वालों को मारना है । इस्लाम द्वारा किया गया रक्तपात इसी विश्वास के कारण हुआ है । -कम्प्लीट वर्क आफ विवेकानन्द वॉल्यूम २ पृष्ठ २५२-२५३

गुरु नानक देव जी

मुसलमान सैय्यद , शेख , मुगल पठान आदि सभी बहुत निर्दयी हो गए हैं । जो लोग मुसलमान नहीं बनते थें उनके शरीर में कीलें ठोककर एवं कुत्तों से नुचवाकर मरवा दिया जाता था ।
-नानक प्रकाश तथा प्रेमनाथ जोशी की पुस्तक पैन इस्लाममिज्म रोलिंग बैंक पृष्ठ ८०

महर्षि अरविन्द

हिन्दू मुस्लिम एकता असम्भव है क्योंकि मुस्लिम कुरान मत हिन्दू को मित्र रूप में सहन नहीं करता । हिन्दू मुस्लिम एकता का अर्थ हिन्दुओं की गुलामी नहीं होना चाहिए । इस सच्चाई की उपेक्षा करने से लाभ नहीं ।किसी दिन हिन्दुओं को मुसलमानों से लड़ने हेतु तैयार होना चाहिए । हम भ्रमित न हों और समस्या के हल से पलायन न करें । हिन्दू मुस्लिम समस्या का हल अंग्रेजों के जाने से पहले सोच लेना चाहिए अन्यथा गृहयुद्ध के खतरे की सम्भावना है । ।
-ए बी पुरानी इवनिंग टाक्स विद अरविन्द पृष्ठ २९१-२८९-६६६

सरदार वल्लभ भाई पटेल

मैं अब देखता हूं कि उन्हीं युक्तियों को यहां फिर अपनाया जा रहा है जिसके कारण देश का विभाजन हुआ था । मुसलमानों की पृथक बस्तियां बसाई जा रहीं हैं । मुस्लिम लीग के प्रवक्ताओं की वाणी में भरपूर विष है । मुसलमानों को अपनी प्रवृत्ति में परिवर्तन करना चाहिए । मुसलमानों को अपनी मनचाही वस्तु पाकिस्तान मिल गया हैं वे ही पाकिस्तान के लिए उत्तरदायी हैं , क्योंकि मुसलमान देश के विभाजन के अगुआ थे न कि पाकिस्तान के वासी । जिन लोगों ने मजहब के नाम पर विशेष सुविधांए चाहिंए वे पाकिस्तान चले जाएं इसीलिए उसका निर्माण हुआ है । वे मुसलमान लोग पुनः फूट के बीज बोना चाहते हैं । हम नहीं चाहते कि देश का पुनः विभाजन हो ।
-संविधान सभा में दिए गए भाषण का सार ।


बाबा साहब भीम राव अंबेडकर
हिन्दू मुस्लिम एकता एक अंसभव कार्य हैं भारत से समस्त मुसलमानों को पाकिस्तान भेजना और हिन्दुओं को वहां से बुलाना ही एक हल है । यदि यूनान तुर्की और बुल्गारिया जैसे कम साधनों वाले छोटे छोटे देश यह कर सकते हैं तो हमारे लिए कोई कठिनाई नहीं । साम्प्रदायिक शांति हेतु अदला बदली के इस महत्वपूर्ण कार्य को न अपनाना अत्यंत उपहासास्पद होगा । विभाजन के बाद भी भारत में साम्प्रदायिक समस्या बनी रहेगी । पाकिस्तान में रुके हुए अल्पसंख्यक हिन्दुओं की सुरक्षा कैसे होगी ? मुसलमानों के लिए हिन्दू काफिर सम्मान के योग्य नहीं है । मुसलमान की भातृ भावना केवल मुसमलमानों के लिए है । कुरान गैर मुसलमानों को मित्र बनाने का विरोधी है , इसीलिए हिन्दू सिर्फ घृणा और शत्रुता के योग्य है । मुसलामनों के निष्ठा भी केवल मुस्लिम देश के प्रति होती है । इस्लाम सच्चे मुसलमानो हेतु भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट संबधी मानने की आज्ञा नहीं देता । संभवतः यही कारण था कि मौलाना मौहम्मद अली जैसे भारतीय मुसलमान भी अपेन शरीर को भारत की अपेक्षा येरूसलम में दफनाना अधिक पसन्द किया । कांग्रेस में मुसलमानों की स्थिति एक साम्प्रदायिक चौकी जैसी है । गुण्डागर्दी मुस्लिम राजनीति का एक स्थापित तरीका हो गया है । इस्लामी कानून समान सुधार के विरोधी हैं । धर्म निरपेक्षता को नहीं मानते । मुस्लिम कानूनों के अनुसार भारत हिन्दुओं और मुसलमानों की समान मातृभूमि नहीं हो सकती । वे भारत जैसे गैर मुस्लिम देश को इस्लामिक देश बनाने में जिहाद आतंकवाद का संकोच नहीं करते ।
-प्रमाण सार डा अंबेडकर सम्पूर्ण वाग्मय , खण्ड १५१

माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर गुरू जी
पाकिस्तान बनने के पश्चात जो मुसलमान भारत में रह गए हैं क्या उनकी हिन्दुओं के प्रति शत्रुता , उनकी हत्या , लूट दंगे, आगजनी , बलात्कार , आदि पुरानी मानसिकता बदल गयी है , ऐसा विश्वास करना आत्मघाती होगा । पाकिस्तान बनने के पश्चात हिन्दुओं के प्रति मुस्लिम खतरा सैकड़ों गुणा बढ़ गया है । पाकिस्तान और बांग्लादेश से घुसपैठ बढ़ रही है । दिल्ली से लेकर रामपुर और लखनउ तक मुसलमान खतरनाक हथियारों की जमाखोरी कर रहे हैं । ताकि पाकिस्तान द्वारा भारत पर आक्रमण करने पर वे अपने भाइयों की सहायता कर सके । अनेक भारतीय मुसलमान ट्रांसमीटर के द्वारा पाकिस्तान के साथ लगातार सम्पर्क में हैं । सरकारी पदों पर आसीन मुसलमान भी राष्ट्र विरोधी गोष्ठियों में भाषण देते हें । यदि यहां उनके हितों को सुरक्षित नहीं रखा गया तो वे सशस्त्र क्रांति के खड़े होंगें ।
-बंच आफ थाट्स पहला आंतरिक खतरा मुसलमान पृष्ठ १७७-१८७


गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर
ईसाई व मुसलमान मत अन्य सभी को समाप्त करने हेतु कटिबद्ध हैं । उनका उद्देश्य केवल अपने मत पर चलना नहीं है अपितु मानव धर्म को नष्ट करना है । वे अपनी राष्ट्र भक्ति गैर मुस्लिम देश के प्रति नहीं रख सकते । वे संसार के किसी भी मुस्लिम एवं मुस्लिम देश के प्रति तो वफादार हो सकते हैं परन्तु किसी अन्य हिन्दू या हिन्दू देश के प्रति नहीं । सम्भवतः मुसलमान और हिन्दू कुछ समय के लिए एक दूसरे के प्रति बनवटी मित्रता तो स्थापित कर सकते हैं परन्तु स्थायी मित्रता नहीं ।
- रवीन्द्र नाथ वाडमय २४ वां खण्ड पृच्च्ठ २७५ , टाइम्स आफ इंडिया १७-०४-१९२७ , कालान्तर

लाला लाजपत राय

मुस्लिम कानून और मुस्लिम इतिहास को पढ़ने के पश्चात मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि उनका मजहब उनके अच्छे मार्ग में एक रुकावट है । मुसलमान जनतांत्रिक आधार पर हिन्दुस्तान पर शासन चलाने हेतु हिन्दुओं के साथ एक नहीं हो सकते । क्या कोई मुसलमान कुरान के विपरीत जा सकता है ? हिन्दुओं के विरूद्ध कुरान और हदीस की निषेधाज्ञा की क्या हमें एक होने देगी ? मुझे डर है कि हिन्दुस्तान के ७ करोड़ मुसलमान अफगानिस्तान , मध्य एशिया अरब , मैसोपोटामिया और तुर्की के हथियारबंद गिरोह मिलकर अप्रत्याशित स्थिति पैदा कर देंगें ।
-पत्र सी आर दास बी एस ए वाडमय खण्ड १५ पृष्ठ २७५


समर्थ गुरू राम दास जी
छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरू अपने ग्रंथ दास बोध में लिखते हैं कि मुसलमान शासकों द्वारा कुरान के अनुसार काफिर हिन्दू नारियों से बलात्कार किए गए जिससे दुःखी होकर अनेकों ने आत्महत्या कर ली । मुसलमान न बनने पर अनेक कत्ल किए एवं अगणित बच्चे अपने मां बाप को देखकर रोते रहे । मुसलमान आक्रमणकारी पशुओं के समान निर्दयी थे , उन्होंने धर्म परिवर्तन न करने वालों को जिन्दा ही धरती में दबा दिया ।
- डा एस डी कुलकर्णी कृत एन्कांउटर विद इस्लाम पृष्ठ २६७-२६८


राजा राममोहन राय
मुसलमानों ने यह मान रखा है कि कुरान की आयतें अल्लाह का हुक्म हैं । और कुरान पर विश्वास न करने वालों का कत्ल करना उचित है । इसी कारण मुसलमानों ने हिन्दुओं पर अत्यधिक अत्याचार किए , उनका वध किया , लूटा व उन्हें गुलाम बनाया ।
-वाङ्मय-राजा राममोहन राय पृष्ट ७२६-७२७

श्रीमति ऐनी बेसेन्ट
मुसलमानों के दिल में गैर मुसलमानों के विरूद्ध नंगी और बेशर्मी की हद तक तक नफरत हैं । हमने मुसलमान नेताओं को यह कहते हुए सुना है कि यदि अफगान भारत पर हमला करें तो वे मसलमानों की रक्षा और हिन्दुओं की हत्या करेंगे । मुसलमानों की पहली वफादार मुस्लिम देशों के प्रति हैं , हमारी मातृभूमि के लिए नहीं । यह भी ज्ञात हुआ है कि उनकी इच्छा अंग्रेजों के पश्चात यहां अल्लाह का साम्राज्य स्थापित करने की है न कि सारे संसार के स्वामी व प्रेमी परमात्मा का । स्वाधीन भारत के बारे में सोचते समय हमें मुस्लिम शासन के अंत के बारे में विचार करना होगा ।
- कलकत्ता सेशन १९१७ डा बी एस ए सम्पूर्ण वाङ्मय खण्ड, पृष्ठ २७२-२७५


स्वामी रामतीर्थ

अज्ञानी मुसलमानों का दिल ईश्वरीय प्रेम और मानवीय भाईचारे की शिक्षा के स्थान पर नफरत , अलगाववाद , पक्षपात और हिंसा से कूट कूट कर भरा है । मुसलमानों द्वारा लिखे गए इतिहास से इन तथ्यों की पुष्टि होती है । गैर मुसलमानों आर्य खालसा हिन्दुओं की बढ़ी संख्या में काफिर कहकर संहार किया गया । लाखों असहाय स्त्रियों को बिछौना बनाया गया । उनसे इस्लाम के रक्षकों ने अपनी काम पिपासा को शान्त किया । उनके घरों को छीना गया और हजारों हिन्दुओं को गुलाम बनाया गया । क्या यही है शांति का मजहब इस्लाम ? कुछ एक उदाहरणों को छोड़कर अधिकांश मुसलमानों ने गैरों को काफिर माना है । - भारतीय महापुरूषों की दृष्टि में इस्लाम पृष्ठ ३५-३६


http://www.hindusthangaurav.com/mahapurushon.asp से उद्धृत

बुधवार, 29 सितंबर 2010

इन्द्र- वृत्रासुर कथा

एक कथा वृत्रासुर की है जिसको मुर्ख लोगो ने ऐसा धर के लौटा है कि वह प्रमाण और युक्ति इन दोनों से विरुद्ध जा पड़ी है।

'त्वष्टा के पुत्र वृत्रासुर ने देवों के राजा इन्द्र को निगल लिया। तब सब देवता लोग बड़े भय युक्त होकर विष्णु के समीप गये, और विष्णु ने उसके मारने का उपाय बतलाया कि --मैं समुद्र के फेन में प्रविष्ट हो जाऊँगा। तुम लोग, उस फेन को उठाकर वृत्रासुर के मारना, वह मर जायेगा।'

यह पागलों की सी बनाई हुई पुराणग्रन्थों की कथा सब मिथ्या है।श्रेष्ठ लोगो को उचित है कि इनको कभी न मानें। देखो सत्यग्रन्थों में यह कथा इस प्रकार लिखी है कि --

(मैं यहाँ संस्कृत के श्लोक नहीं लिख पा रहा हूँ केवल उनका हिन्दी अनुवाद ही लिख रहा हूँ।)

(इन्द्रस्य नु०) यहाँ सूर्य का इन्द्र नाम है। उसके किये हुए पराक्रमों को हम लोग कहते हैं, जोकि परम ऐश्वर्य होने का हेतु बड़ा तेजधारी है। वह अपनी किरणों से 'वृत्र' अर्थात मेघ को मारता है। जब वह मरके पृथ्वी में गिर पड़ता है, तब अपने जलरूप शरीर को सब पृथ्वी में फैला देता है। फिर उससे अनेक बड़ी-२ नदी परिपूर्ण होके समुद्र में जा मिलती हैं। कैसी वे नदी हैं कि पर्वत और मेघों से उत्पन्न होके जल ही बहने के लिए होती हैं। जिस समय इन्द्र मेघरूप वृत्रासुर को मार के आकाश से पृथ्वी में गिरा देता है, तब वह पृथ्वी में सो जाता है।।१।।


फिर वही मेघ आकाश में से नीचे गिरके पर्वत अर्थात मेघमण्डल का पुनः आश्रय लेता है। जिसको सूर्य्य अपनी किरणों से फिर हनन करता है। जैसे कोई लकड़ी को छील के सूक्ष्म कर देता है। वैसे ही वह मेघ को भी बिन्दु-बिन्दु करके पृथ्वी में गिरा देता है और उसके शरीररूप जल सिमट-सिमट कर नदियों के द्वारा समुद्र को ऐसे प्राप्त होते हैं, कि जैसे अपने बछड़ों से गाय दौड़ के मिलती हैं।।२।।

जब सूर्य्य उस अत्यन्त गर्जित मेघ को छिन्न-भिन्न करके पृथ्वी में ऐसे गिरा देता है कि जैसे कोई मनुष्य आदि के शरीर को काट काट कर गिराता है, तब वह वृत्रासुर भी पृथ्वी पर मृतक के समान शयन करने वाला हो जाता है।।३।।

'निघण्टु' में मेघ का नाम वृत्र है(इन्द्रशत्रु)--वृत्र का शत्रु अर्थात निवारक सूर्य्य है,सूर्य्य का नाम त्वष्टा है, उसका संतान मेघ है, क्योंकि सूर्य्य की किरणों के द्वारा जल कण होकर ऊपर को जाकर वाहन मिलके मेघ रूप हो जाता है। तथा मेघ का वृत्र नाम इसलिये है कि वृत्रोवृणोतेः० वह स्वीकार करने योग्य और प्रकाश का आवरण करने वाला है।

वृत्र के इस जलरूप शरीर से बड़ी-बड़ी नदियाँ उत्पन्न होके अगाध समुद्र में जाकर मिलती हैं, और जितना जल तालाब व कूप आदि में रह जाता है वह मानो पृथ्वी में शयन कर रहा है।।५।।

वह वृत्र अपने बिजली और गर्जनरूप भय से भी इन्द्र को कभी जीत नहीं सकता । इस प्रकार अलंकाररूप वर्णन से इन्द्र और वृत्र ये दोनों परस्पर युद्ध के सामान करते हैं, अर्थात जब मेघ बढ़ता है, तब तो वह सूर्य्य के प्रकाश को हटाता है, और जब सूर्य्य का ताप अर्थात तेज बढ़ता है तब वह वृत्र नाम मेघ को हटा देता है। परन्तु इस युद्ध के अंत में इन्द्र नाम सूर्य्य ही की विजय होती है।

(वृत्रो ह वा०) जब जब मेघ वृद्धि को प्राप्त होकर पृथ्वी और आकाश में विस्तृत होके फैलता है, तब तब उसको सूर्य्य हनन करके पृथ्वी में गिरा देता है। उसके पश्चात वह अशुद्ध भूमि , सड़े हुये वनस्पति, काष्ठ, तृण तथा मलमुत्रादि युक्त होने से कहीं-कहीं दुर्गन्ध रूप भी हो जाता है। तब समुद्र का जल देखने में भयंकर मालूम पड़ने लगता है। इस प्रकार बारम्बार मेघ वर्षता रहता है।(उपर्य्युपय्यॅति०)--अर्थात सब स्थानों से जल उड़ उड़ कर आकाश में बढ़ता है। वहां इकट्ठा होकर फिर से वर्षा किया करता है। उसी जल और पृथ्वी के सयोंग से ओषधी आदि अनेक पदार्थ उत्पन्न होते हैं।उसी मेघ को 'वृत्रासुर' के नाम से बोलते हैं।

वायु और सूर्य्य का नाम इन्द्र है । वायु आकाश में और सूर्य्य प्रकाशस्थान में स्थित है। इन्हीं वृत्रासुर और इन्द्र का आकाश में युद्ध हुआ करता है कि जिसके अन्त में मेघ का पराजय और सूर्य्य का विजय निःसंदेह होता है।

इस सत्य ग्रन्थों की अलंकाररूप कथा को छोड़ कर मूर्खों के समान अल्पबुद्दी वाले लोगो ने ब्रह्मा-वैवर्त्त और श्रीमद्भागवतादि ग्रन्थों में मिथ्या कथा लिख रखी हैं उनको श्रेष्ठ पुरुष कभी न मानें।

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

इन्द्र और अहल्या की कथा

सुर्य्यरश्पिचन्द्रमा गन्धर्वः।। इत्यपि निगमो भवति । सोअपि गौरुच्यते।।
जार आ भगः जार इव भगम्।। आदित्योअत्र जार उच्यते, रात्रेर्जरयिता।।


उपरोक्त सूक्त के आधार पर एक कथा है इन्द्र और अहल्या की जिसको मूढ़ लोगो ने अनेक प्रकार बिगाड़ के लिखा है। जोकि संक्षिप्त में इस प्रकार है-

'देवों का राजा इन्द्र देवलोक में देहधारी देव था। वह गोतम ऋषि की स्त्री अहल्या के साथ जारकर्म किया करता था। एक दिन जब उन दोनों को गोतम ऋषि ने देख लिया, तब इस प्रकार शाप दिया की हे इन्द्र ! तू हजार भगवाला हो जा । तथा अहल्या को शाप दिया की तू पाषाणरूप हो जा। परन्तु जब उन्होंने गोतम ऋषि की प्रार्थना की कि हमारे शाप को मोक्षरण कैसे व कब मिलेगा, तब इन्द्र से तो कहा कि तुम्हारे हजार भग के स्थान में हजार नेत्र हो जायें, और अहल्या को वचन दिया कि जिस समय रामचन्द्र अवतार लेकर तेरे पर अपना चरण लगाएंगे, उस समय तू फिर अपने स्वरुप में आ जाओगी।'

इस प्रकार यह कथा बिगाड़ कर लिखी गयी है। सत्य ग्रंथों में ऐसा नहीं है । सत्य इस प्रकार है --

(इन्द्रागच्छेती०) अर्थात उनमें इस रीति से है कि सूर्य का नाम इन्द्र ,रात्रि का नाम अहल्या तथा चन्द्रमा का गोतम है। यहाँ रात्रि और चन्द्रमा का स्त्री-पुरुष के समान रूपकालंकार है। चन्द्रमा अपनी स्त्री रात्रि के साथ सब प्राणियों को आनन्द कराता है और उस रात्रि का जार आदित्य है। अर्थात जिसके उदय होने से रात्रि अन्तर्धान हो जाती है। और जार अर्थात यह सूर्य ही रात्रि के वर्तमान रूप श्रंगार को बिगाड़ने वाला है। इसीलिए यह स्त्रीपुरुष का रूपकालंकार बांधा है, कि जिस प्रकार स्त्रीपुरुष मिलकर रहते हैं, वैसे ही चन्द्रमा और रात्रि भी साथ-२ रहते हैं।

चन्द्रमा का नाम गोतम इसलिए है कि वह अत्यन्त वेग से चलता है। और रात्रि को अहल्या इसलिये कहते हैं कि उसमें दिन लय हो जाता है । तथा सूर्य रात्रि को निवृत्त कर देता है, इसलिये वह उसका जार कहाता है।

इस उत्तम रूपकालंकार को अल्पबुद्धि पुरुषों ने बिगाड़ के सब मनुष्य में हानिकारक मिथ्या सन्देश फैलाया है। इसलिये सब सज्जन लोग पुराणोक्त मिथ्या कथाओं का मूल से ही त्याग कर दें।
(ऋग्वेदभाष्यभूमिका से उद्दृत)

रविवार, 26 सितंबर 2010

भारतीय सनातन धर्म और चार्वाक, जैन-बोद्ध दर्शन

भारतीय ६ धर्म-शास्त्रों जिनको वेदांग भी कहा जाता है को लक्ष्य कर उनके पारस्परिक अविरोध को प्रकट करने के लिये इससे पूर्व का लेख(भारतीय सनातन धर्म और उसके दर्शन-शास्त्र ) लिखा गया था। अब हम इस लेख में भारतीय नास्तिक दर्शनों का विचार करते हैं।

नास्तिक दर्शन(चार्वाक)— यदि हम भारतीय तथाकथित नास्तिक दर्शनों का गम्भीरता से विवेचन और परिक्षण करें तो इन दर्शनों में भी सनातन वैदिक धर्म से कोई उत्कट और मूलभूत विरोध की भावना नहीं पाई जाती है, यह पर्याप्त सीमा तक स्पष्ट हो जाता है। वैदिक या आस्तिक दर्शन के समान चार्वाक अथवा जैन-बोद्ध दर्शनों द्वारा चेतन-अचेतन रूप में तत्वों का विवेचन किया गया है।

चार्वाक दर्शन की अचर एवं जड़ चेतन जगत का मूल आधार तत्व केवल जड़ है; तब उसका तात्पर्य केवल इतने अर्थ में है कि इस लोक में हमारी सुख-सुविधा और सब प्रकार के अभ्युदय के लिये सर्वप्रथम जड़ तत्व की यथार्थता और उसकी प्राणी कल्याणकारी उपयोगिता को जानना परम आवश्यक है, उसकी उपेक्षा कर संसार में हमारा सुखी रहना सम्भव न होगा। इस मान्यता के विरोध में चार्वाकदर्शन के सामने जब यह आशंका प्रस्तुत की जाती है कि क्या जड़ तत्व से अतिरिक्त चेतनतत्त्व का नित्य अस्तित्त्व नहीं माना जाना चाहिये ? तब इसके समाधान में चार्वाक दर्शन का यही कहना है , कि चेतन के अस्तित्त्व से उसे कोई नकार नहीं है , पर वह नित्य है, या कैसा है , कहाँ से आता है , कहाँ जाता है ? इत्यादि विचार-मन्थन उस समय तक अनपेक्षित है, जब तक उन तत्वों की यथार्थता व उपयोगिता को नहीं जान लिया जाता , जिन पर हमारा वर्तमान अस्तित्व निर्भर करता है। मरने के बाद क्या होगा ? इसकी अपेक्षा यह अधिक आवश्यक है कि हम जीवित कैसे रह सकते हैं। वर्तमान जीवन के आधारभूत जड़तत्व की रहस्यमय वास्तविकता व उपयोगिता के जान लेने से पहले यदि हम ऐसा मान लें , कि चेतन तत्व जड़ से ही उभर आता है , तो इसमें क्या हानि है ? चार्वाकदर्शन का यह मन्तव्य ‘अन्तिमेत्थम्’ नहीं है, मानव समाज के विचार-प्रवाह और कर्तव्य का यह एक स्तर है, इसकी उपेक्षा किया जाना मंगल का मूल नहीं है। यह प्रत्यक्ष है , कि प्रायः मानव करता वही है, जो चार्वाकदर्शन बताता है; पर कहता वह है, जो उस दर्शन का विषय नहीं है, तब स्वभावतः संघर्ष की स्तिथि उत्पन्न हो जाती है।

जैन-बोद्ध दर्शन- चार्वाकदर्शन की अपेक्षा इन दोनों दर्शनों में यह विशेषता है, कि ये जड़तत्व से अतिरिक्त चेतन तत्व के स्वतन्त्र अस्तित्व का उपदेश करते हैं। यह सम्भावना की जा सकती है कि इन दर्शनों के मूल प्रवक्ताओं ने विचार की द्रष्टि से कुछ उन्नत जिज्ञासु जनों को तत्वज्ञान के इस स्तर का अधिकारी समझकर चेतन-अचेतन तत्वों का विवेचन प्रस्तुत किया हो। जैन दर्शन चेतन(आत्म) तत्व को जहाँ संकोच-विकासशील बताता है , दूसरा दर्शन उसे ज्ञान स्वरुप मानकर क्षणिक कहता है , और उसके निर्विकार भाव को अक्षुण बनाये रखना चाहता है। बोद्ध-दर्शन में अधिकारी स्तर की भावना से ज्ञानरूप अथवा विज्ञानरूप चेतन तत्व का विवेचन उस स्तिथि तक पहुंचा दिया गया है जहाँ यह प्रतिपादन किया जाता है, कि समस्त चराचर जड़-चेतन जगत उस ‘विज्ञान’ का ही आभास है , ब्रह्मा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व कुछ नहीं है, वस्तुभूत सत्तामात्र एक विज्ञान है, भले वह क्षणिक हो। यह सम्भव है, कदाचित मूल स्वरूप में उसका भी वस्तु भूत अस्तित्व न हो। इस प्रकार हम संसार के मूलतत्व की विवेचना व खोज करते एक रहस्यमय स्तिथि पर पहुंच जाते हैं। ये सब तत्व-विचार के विभिन्न स्तर हैं। सम्भवतः इनमें कोई एक ऐसा ठिकाना नहीं , जिसे ‘अन्तिमेत्थम्’ कहकर निश्चयरूप से वहां टिका जा सके। इससे उन-उन विचारों के मूल प्रवक्ताओं को अज्ञानी बताने का यहाँ हमारा तात्पर्य नहीं है ; वे वस्तुतः महाज्ञानी रहे होंगे, उनके वैसे उपदेश में लोक-कल्याण की भावना अधिक हो सकती है। फलतः चेतन-अचेतन का यह विवेचन जो इतने अनेक प्रकारों में प्रस्तुत हुआ है, इसमें परस्पर विरोध की भावना न होकर जिज्ञासु अधिकारी के कल्याण की भावना अधिक है।


आस्तिक-नास्तिक दर्शन के भेद का कारण ईश्वर अथवा ब्रह्मा-तत्व की मान्यता-अमान्यता कहा जा सकता है। आस्तिक दर्शन उसके अस्तित्व को सर्वतोभावेन स्वीकार करते हैं, जबकि दूसरे नहीं, इस्सी आधार पर उनका यह नाम-भेद हो गया है। दूसरा कारण है, वेद के प्रामाण्य को स्वीकार करना, न करना ; परन्तु यह पहले कारण पर आश्रित है। वेद को मानने वाले उसे ईश्वरीय ज्ञान कहते हैं , जिन्होंने ईश्वर को न माना , वे ईश्वरीय ज्ञान वेद को उसके प्रामाण्य को क्यों मानेंगे ? इस प्रसंग में तर्कपूर्ण विचार यह है कि तथाकथित नास्तिक दर्शन के मूल प्रवक्ताओं ने ईश्वर—अथवा ऐसी परम चेतन शक्ति, जो संसार का नियन्तरण करती है –के अस्तित्व का निषेध नहीं किया । उनकी रचनाओं से ऐसा अवगत होता है , कि उन्होंने किन्हीं विशेष परिस्तिथियों से बाधित होकर ऐसा प्रवचन किया । वे परिस्तिथियाँ चाहे जिज्ञासु-जनों की योग्यता पर आधारित हों , अथवा ईश्वर या वेद के मानने वालों द्वारा अपनी मान्यताओं को अन्यथा प्रस्तुत करने से पैदा हुई हों या तत्कालिक समाजिक प्रवृत्तियां आदि अन्य कारण रहे हों। ऐतिहासिक द्रष्टि से महाभारत के पश्चात एक वाममार्गी सम्प्रदाय वेदों के नाम पर यज्ञों में बलि, घृणित यौन-क्रीडाएं, मदिरापान इत्यादि सभी निन्दित कार्य करता है और उसका अस्तित्व आज भी अघोरी, झाड़-फूंक वाले, ईश्वर के नाम पर प्रसाद के रूप में मदिरा(दारु) आदि चढ़ाने वाले, चरस-गांजा नशा करने वाले लोगो के रूप में जीवित है। ये मुर्ख लोग ये सभी कार्य वेद और ईश्वर के नाम पर करते हैं जबकि सत्य के आस-पास भी ये लोग नहीं है। इसीलिए यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इस वाममार्गी सम्प्रदाय, मुर्ख और स्वार्थी लोगो से आहत होकर चार्वाक और जैन-बोद्ध दर्शनों का उदय हुआ है। उनके मूल प्रवक्ताओं ने समाज कल्याण हेतु समझाया कि अपने वर्तमान जीवन को सुधारों, सबके कल्याण के लिये सदाचार पर ध्यान दो, परस्पर सहानुभूति से रहना सीखो उससे यह हमारा लोक सुखमय होगा और परलोक भी। ऐसे आचरण से ईश्वर तक भी पहुंचा जा सकता है। इसकी अपेक्षा तब रही होगी, वस्तुतः इसकी अपेक्षा सदा रहती है। यदि गम्भीरता से परिक्षण करते हैं तो उन प्रवक्ताओं का तात्पर्य लोक-कल्याण में अधिक ईश्वर अस्तित्व के नकार में कम प्रतीत होता है। तब ऐसे में विरोध की भावना इन दर्शनों में कहाँ रह जाती है।

अनन्तर काल में उन-उन विचारों के अनुयायियों ने अपने आदिप्रवक्ता के तात्पर्य को यथार्थ रूप में न समझते हुए परस्पर विरोध की भावना को उभारने में सहयोग दिया। धीरे-धीरे ऐसी प्रवृत्तियां बढ़ती गईं; कालान्तर में उन्होंने विभिन्न वर्ग, सम्प्रदायों अथवा पन्थ का रूप धारण कर लिया, तब परस्पर विरोधी अखाड़ों ने स्थायिता प्राप्त कर ली। प्रत्येक विचार के व्याख्याकार विद्वानों ने उसी रूप में अपने विषय के विशाल साहित्य का सृजन कर लिया। उसमें कारण चाहे उनके निजी स्वार्थ रहे हों अथवा अन्य कारण पर आज हम उसी आदर्श की आधार पर मूल तत्व-विवेचना को परखने का प्रयास करते हैं। निश्चित रूप में हम उद्देश्य से बहुत दूर भटक गये हैं। आदि-प्रवक्ताओं के जन-कल्याणी लक्ष्य-विचार इन काली-पीली आँधियों में तिरोहित हो चुके हैं।

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

भारतीय सनातन धर्म और उसके दर्शन-शास्त्र

चेतन और अचेतन दो प्रकार के तत्व संसार में पाए जाते हैं। सृष्टिविद्या के पारदर्शी विद्वानों ने इस विषय में जो विशद विचार प्रस्तुत किये हैं, वे प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को इसी परिणाम पर पहुंचाते हैं। इन तत्वों का विवेचन भारतीय शास्त्रों में विस्तार के साथ किया गया है, विशेषरूप से दर्शनशास्त्रों का यही मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। यद्यपि आज काफी लोगो द्वारा ऐसा भी समझा जाता है, कि भारतीय दर्शनों में परस्पर विरोधी अर्थों का प्रतिपादन हुआ है, वे एक-दूसरे के प्रतिपाद्य अर्थों का प्रतिषेध करते दिखाई देते हैं। ऐसी स्तिथि में वास्तविक तत्व क्या है, यह निर्णय कर लेना सरल कार्य नहीं है।

दर्शनशास्त्रों की इस स्तिथि को आधुनिक द्रष्टि से इस आधार पर महत्त्वपूर्ण बतलाया जाता है, कि ऐसी विचार-विभिन्नता मानवीय मस्तिष्क के विकास और उसके क्रमिक उर्वरभाव की द्योतक है। आदिकाल से आज तक मानव कि इस प्रवृत्ति को यथार्थ रूप में अनुभव किया जा सकता है। इससे हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं , कि मानव ने विचारों की दासता को नैसर्गिक रूप में सर्वात्मना कभी स्वीकार नहीं किया , अपने आप पर कभी उसको प्रभावी नहीं होने दिया । ये विचारमूलक संघर्ष जनता के सामने सदा आते रहे हैं, और आते रहेंगे। इस प्रवृत्ति को मानव की ज्वलन्त जागृति एवं सतर्कता का प्रमाण कहा जाता है।

किन्तु इस विषय में महान आत्माओं का अनुभव है , कि यह प्रवृत्ति भले ही नैसर्गिक हो, जीवन्त जागृति का चिह्न हो , पर एक ओर की खिड़की से चुपचाप अज्ञान की छाया इसे झाँका करती है। मानव ने मुड़कर उस ओर बहुत कम देखा है ।कहा जा सकता है कि यह प्रवृत्ति अपने रूप में कितनी भी यथार्थ लगती हो, पर इससे तत्व के निर्णय व उसके स्वरुप के समाधान में कोई संतोषकर सहयोग प्राप्त नहीं होता ; जब वे विचार इतने स्पष्ट विभेदों के साथ हमारे सामने आते हैं , तो उनमें कौन सच्चा और कौन झूठा है, यह जानना कठिन हो जाता है। ऐसी स्तिथि में दो विकल्प हो सकते हैं –उनमें से कोई एक विचार सत्य हो अथवा कोई सत्य न हो; और यह अन्धेरे में लाठी चलाने व हाथ-पैर मारने का प्रदर्शन हो रहा है।

हम अपने आपको ऐसी स्तिथि में अनुभव करते हैं, कि जिन विद्वानों ने उन विचारों को प्रस्तुत किया है, यह साहस नहीं होता कि उन विचारों को अनायास ही असत्य मान लिया जाये। तब किसी भी विचारक के सम्मुख यह गम्भीर समस्या आ जाती है कि उन विभेदों की छाया में कौनसी समानता अन्तर्निहित है, जो इसका समाधान दे सकती है।

ज्ञात होता है –तत्व की वास्तविकता के स्वरुप का विस्तार अनन्त है। समय-२ पर जो तत्वदर्शी विद्वान प्रादुर्भूत होते रहे हैं , और उस तत्व की वास्तविकता के महासागर का अवगाहन करते रहे हैं; उन्होंने लोककल्याण की भावना से उस अथाह सागर के उतने ज्ञान-रत्नों को प्रस्तुत करने का स्तुत्य यत्न किया है, जिनको उस समय के जन-मानस के लिये आवश्यक अथवा अपेक्षित समझा। उनके सामने यह परिस्तिथी सदा जागरूक रही है कि जिन व्यक्तियों के लिये यह तत्व स्वरुप आलोकित किया जा रहा है , उसे ग्रहण करने की क्षमता उन व्यक्तियों में कहा तक है। इस प्रकार प्रत्येक दर्शन तत्व विषयक जितने अंश का वर्णन करता है, उसीको पूर्ण और अन्तिम समझकर उनके परस्पर विरोध की घोषणा कर देना उचित नहीं है।

इस विचार की छाया में यदि हम दर्शनों के प्रतिपाद्य विषयों पर ध्यान दें , तो स्पष्ट हो जाता है , कि प्रत्येक दर्शन एक दूसरे का पूरक है और वैदिक है, विरोधी नहीं है। भारतीय दर्शनों के दो विभाग किये जाते हैं—एक आस्तिक दर्शन , दूसरा नास्तिक दर्शन। आस्तिक दर्शन छः हैं –न्याय,वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा ,वेदान्त। नास्तिक दर्शनों में चार्वाकदर्शन, जैनदर्शन, तथा बोद्धदर्शन का समावेश है।

आस्तिक दर्शनों को लीजिए – सभी मान्य आस्तिक धर्म-शास्त्र शब्द प्रमाण के रूप में सर्वोपरि वेद को निर्बाध स्वीकार करते हैं। न्यायदर्शन में प्रमाण , प्रमेय आदि का वर्णन है, वस्तुमात्र की सिद्धि के लिये प्रत्येक स्तर पर प्रमाणों का आश्रय लेना पड़ता है। इस स्तिथि का कोई दर्शन विरोध नहीं करता। न्याय इसीका मुख्यरूप से वर्णन करता है। तत्वविषयक जिज्ञासा होने पर प्रारम्भ में उस विषय की शिक्षा का उपक्रम वहीँ से होता है, जिसका प्रतिपादन वैशेषिक ने किया है। यहाँ उन भौतिक तत्वों का विवेचन है, जो जीवन के सीधे सम्पर्क में आते हैं । मानव जीवन अथवा प्राणिमात्र जिस वातावरण से आवेष्टित है, और अपने निर्वाह तथा अपने अस्तित्व को –जब तक सम्भव हो –बनाये रखने के लिये साक्षात् जिन भूत-भौतिक तत्वों की अपेक्षा रखता है , उनका तथा उनके स्थूल-सूक्ष्म साधारण स्वरूप एवं उनके गुण-धर्मों का विवेचन करना वैशेषिक दर्शन का मुख्य विषय है। यह ग्रन्थ आधुनिक भौतिकी का आधार स्तम्भ भी कहा जा सकता है। इसको जानकार ही आगे तत्वों की अतिसूक्ष्म अवस्थाओं को जानने-समझने की ओर प्रवृत्ति एवं क्षमता का होना अधिक सम्भव है। इसके विरोध का कहीं अवसर नहीं आता , यह तत्वविषयक जानकारी का अपना स्तर है। वेदान्त आदि के प्रतिपाद्य विषय को समझने के लिये ज्ञान-साधन के इस स्तर से गुजरना आवश्यक है। वेदान्त अथवा कोई अन्य दर्शन इसका विरोध नहीं करता।

तत्वों की उन अतिसूक्ष्म अवस्थाओं और चेतन-अचेतन रूप में उनके विश्लेषण को तथा उनके वस्तुभूत भेदज्ञान की आवश्यकता को सांख्य प्रस्तुत करता है। प्रमाणों से वस्तुसिद्धि और वैशेषिक के तत्त्व विषयक प्रतिपाद्य अंश को वह अपनी सीमा में समेटे रखता है। तब न्याय-वैशेषिक के साथ उसके विरोध का प्रश्न ही नहीं उठता। न वे दोनों संख्य का विरोध करते हैं, क्योंकि उनका अपना –प्रतिपाद्य विषय का –सीमित क्षेत्र है। वेदान्त आदि के साथ भी सांख्य का कोई विरोध नहीं है, क्योंकि वेदान्त के मुख्य प्रतिपाद्य विषय को स्वीकार करने से नकार नहीं करता।, और न मीमांसा-प्रतिपाद्य धर्मानुष्ठान का वह विरोधी है। सांख्य ने चेतन-अचेतन के जिस विश्लेषण को प्रस्तुत किया है, उसके साक्षात्कार की प्रक्रियाओं का वर्णन योगदर्शन में है। इसका भी विरोध कोई दर्शन नहीं करता। वेदान्त केवल ब्रह्मा के अस्तित्व को सिद्ध करता है, वेदान्त का अध्यन मात्र उस चेतन ब्रह्म के स्वरुप का साक्षात्कार नहीं करा सकता; उसके लिये योगदर्शन की प्रक्रियाओं तथा औपनिषद उपासनाओं का आश्रय लेना होता है। तब वेदान्त आदि के साथ इसका विरोध कैसा।

योगप्रतिपाद्य इन प्रक्रियाओं के मुख्य साधनभूत मन अथवा अन्तःकरण की जिन विविध अवस्थाओं के विश्लेषण का योग में वर्णन किया गया है, वह मनोविज्ञान की विभिन्न दिशाओं का एक केन्द्रभूत आधार भी है। समाज की समस्त गति-प्रगतियों की डोर इसीके हाथ में रहती है। तब समाज के कर्तव्य-अकर्तव्यों का विश्लेशानात्मक विवेचन प्रस्तुत करने वाले मीमांसाशास्त्र का इससे विरोध कैसा ? समस्त विश्व के संचालक व नियन्ता चेतन-तत्व का वर्णन वेदान्त करता है। जगत के कर्ता-धर्ता-संहर्ता के रूप में प्रत्येक शास्त्र ने इसको स्वीकार किया है, कोई इसका प्रतिषेध नहीं कर्ता। वेदान्त का तात्पर्य केवल ब्रह्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने में है, अन्य तत्वों के प्रतिषेध में नहीं।

(शेष अगले भाग में)

रविवार, 29 अगस्त 2010

गणित विद्या और शून्य का आविष्कार

सभी यह जानते हैं कि गणित में शून्य और दशमलव का आविष्कार भारत ने किया है किन्तु यह आंशिक सत्य है क्योंकि गणित विद्या का मूल(कारण) वेदों में है जिसमें न केवल शून्य से लेकर ९ तक सभी प्राकृतिक अंको का वर्णन है वरन अंक गणित, बीज गणित और रेखा गणित सभी गणित विद्या के ३ आधार ईश्वर ने हमको दिये हैं। बहुत से लोग यह मानते हैं आर्य भट्ट ने शून्य का या दशमलव का आविष्कार किया था जोकि गलत है क्योंकि यह तो पहले से ही वेदों में है, आर्य भट्ट निश्चित तौर पर एक महान गणितज्ञ थे इसमें कोई सन्देह नहीं है किन्तु प्राकृतिक संख्याओं के निर्माण का विज्ञान मानव ज्ञान से बहार की बात है। मैं यहाँ वेदों के मन्त्र तो नहीं लिख रहा हूँ किन्तु उनमें से उधृत कुछ एक बातों को लिख रहा हूँ प्रमाण के तौर पर।

अंक, बीज और रेखा भेद से जो तीन प्रकार की गणित विद्या सिद्ध की जाती है , उनमें से प्रथम अंक(१) जो संख्या है, सो दो बार गणने से २ की वाचक होती है। जैसे १+१=२। ऐसे ही एक के आगे एक तथा एक के आगे दो, वा दो के आगे १ आदि जोड़ने से ९ तक अंक होते हैं। इसी प्रकार एक के साथ तीन(३) जोड़ने से चार (४) तथा तीन(३) को तीन(३) के साथ जोड़ने से ६ अथवा तीन को तीन गुणने से ३ x ३ = ९ होते हैं।

इसी प्रकार चार के साथ चार , पाञ्च के साथ पाञ्च, छः के साथ छः, आठ के साथ आठ इत्यादि जोड़ने वा गुणने तथा सब मन्त्रों के आशय को को फ़ैलाने सब गणितविद्या निकलती है। जैसे पाञ्च के साथ पाञ्च (५५) वैसे ही छः छः इत्यादि जान लेने चाहियें। ऐसे ही इन मन्त्रों के अर्थो का आगे योजना करने से अंकों से अनेक प्रकार की गणित विद्या सिद्ध होती है। क्योंकि इन मन्त्रों के अर्थ और अनेक प्रकार के प्रयोगों से मनुष्यों को अनेक प्रकार की गणित विद्या अवश्य जाननी चाहिये ।
और जो कि वेदों का अंक ज्योतिषशास्त्र कहाता है (आज का कथित फलित ज्योतिषशास्त्र नहीं), उसमें भी इसी प्रकार के मन्त्रों के अभिप्राय से गणितविद्या सिद्ध की है और अंकों से जो गणित विद्या निकलती है , वह निश्चित और संख्यात पदार्थों में युक्त होती है। और अज्ञात पदार्थों की संख्या जानने के लिये बीजगणित होता है , सो भी अनेक मन्त्रों से सिद्ध होता है। जैसे (अ + क) (अ-क) (अ ÷ क) (अ x क) इत्यादि संकेत से निकलता है । यह भी वेदों से ही ऋषि-मुनियों ने निकला है। (अग्न आ०) इस मन्त्र के संकेतों से भी बीज गणित निकलता है।

और इसी प्रकार से तीसरा भाग जो रेखागणित है सो भी वेदों से ही सिद्ध होता है। अनेक मन्त्रों से रेखागणित का प्रकाश किया है। यज्ञ-वेदी के रचने में भी रेखा गणित का भी उपदेश है। पृथ्वी का जो चारो ओर घेरा है, उसको परिधि और ऊपर से अन्त तक जो पृथ्वी की रेखा है उसको व्यास कहते हैं। इसी प्रकार से इन मन्त्रों में आदि मध्य और अन्त आदि रेखाओं को भी जानना चाहिये और इस रीति से त्रियक् विषुवत रेखा आदि भी निकलती हैं

(कासीत्प्र०) अर्थात यथार्थ ज्ञान क्या है ? (प्रतिमा) जिससे पदार्थों का तोल किया जाये सो क्या चीज़ है ? (निदानम्) अर्थात कारण जिससे कार्य उत्पन्न होता है , वह क्या चीज़ है (आज्यं) जगत में जानने के योग्य सारभूत क्या है ? (परिधिः०) परिधि किसको कहते हैं ? (छन्दः०) स्वतन्त्र वस्तु क्या है ? (प्रउ०) प्रयोग और शब्दों से स्तुति करने के योग्य क्या है ? इन सात प्रश्नों का उत्तर यथावत दिया जाता है (यद्देवा देव०) जिसको सब विद्वान लोग पूजते हैं वही परमेश्वर प्रमा आदि नाम वाला है।
इन मन्त्रों में भी प्रमा और परिधि आदि शब्दों से रेखागणित साधने का उपदेश परमात्मा ने किया है। सो यह ३ प्रकार की गणित विद्या के अनेक मन्त्रों से आर्यों ने वेदों से ही सिद्ध की है और इसी आर्य्यावर्त्त देश से सर्वत्र भूगोल में गयी है।

गणित के साथ-२ समस्त विश्व के ज्ञान का आधार वेद ही हैं इसमें सन्देह नहीं करनी चाहिये। वेदों के नाम पर बकवासबाजी लिखने वालों पर न जाकर सत्य से अवगत होना चाहिये उदाहरण के तौर पर आज कल ज्योतिषशास्त्र के नाम पर जो धन्धा चल रहा है उसका वैदिक पुस्तकों में कहीं वर्णन नहीं है वो स्वार्थी और मुर्ख लोगो ने खड़ा किया है जिसको अनजाने में बहुत लोग मानते हैं जबकि सत्य यह है कि मनुष्य अपने कर्मो के आधार पर ही अपने भविष्य का निर्माण करता है न कि काला कपड़ा, दाल, तेल आदि अन्धविश्वास भरे दान देने से। वेदों से आधार लेकर ही महान ऋषियों ने अनेक प्रकार की विद्या सिद्ध की है।

आज राष्ट्र की स्तिथि अच्छी नहीं है, हमें हमारी जड़ों से हमें काटा जा रहा है, हमारे स्वाभिमान पर निरन्तर आघात किये जा रहे हैं इसीलिए हमें अपने धर्म के मूल से परिचित अवश्य होना चाहिये जिसको जानने से हमें ज्ञान और स्वाभिमान आएगा और हम राष्ट्र-सेवा के लिये उठ खड़े होंगे। हमारा मूल धर्म ज्ञान-विज्ञान के साथ-२ राष्ट्र-सेवा की प्रबल प्रेरणा देता है उसका विरोधी नहीं है इसीलिए भी समस्त राष्ट्र-विरोधी शक्तियां हमारे धर्म को निशाने पर रखती हैं।

कितने ही विश्व के लोग और मत कुछ पुस्तकों को ईश्वरीय पुस्तक मानते हैं जबकि उनमें अनेक साक्षात् प्रमाण हैं अवैज्ञानिकता के, मूर्खता के, धूर्तता के और भी अतार्किक बाते हैं किन्तु फिर भी उन मतों के लोग उन पुस्तकों के प्रचार में दिन-रात एक किये हुए हैं, बड़े-२ संगठन बनाये हुए हैं, युद्ध लड़ रहे हैं, पैसा बहा रहे हैं कि हमारी पुस्तक को ईश्वरीय मानो उसका अनुसरण करो वरना तुम्हारी खैर नहीं. और दूसरी तरफ सनातन हिन्दू वैदिक धर्म समस्त मानव जाति के कल्याण के लिये है उसमें किसी भी प्रकार का भेद-भाव नहीं है किसी प्रकार का दोष नहीं है किसी प्रकार की भी अवैज्ञानिकता नहीं है कोई अतार्किकता नहीं है जो सृष्टि के कण-२ से लेकर अखिल ब्रह्माण्ड का ज्ञान देता है, समस्त विद्याएं जिससे निकली हैं और उसका कोई प्रवर्तक कम से कम कोई मनुष्य भी नहीं है यह तो हम सभी जानते ही हैं इस सबके बावजूद भी इसको ईश्वरीय मानने में हम लोग ही सन्देह करते हैं कैसा विरोधाभास है।

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

किष्किन्धा का वानर राजवंश (हनुमान, सुग्रीव, बाली)

रामायणी कथा के पात्रों का विवरण बड़ा अदभुत व चमत्कारपूर्ण है। पात्रों से अभिप्रायः उन व्यक्तियों व प्राणियों से है, जिनके आधार पर समस्त वृतान्त प्रस्तुत किया गया है। विवरण से ऐसा प्रतीत होता है कि इन कथावस्तु व प्राणियों में मानव, पशु, पक्षी सभी का समावेश है। कहीं तो जड़ वस्तु भी मानव-चेतन के रूप में प्रस्तुत होकर अपना अभिप्रेत कार्य निर्वाह करती द्रष्टिगोचर होती है। समुद्र लाँघते समय मैनाक पर्वत का ऊपर उभरकर हनुमान को आश्रय देना और उससे वार्तालाप करना, पत्थर का नारी में परिवर्तित हो जाना इसी स्तिथि का एक नमूना है।

जहाँ तक प्राणी-पात्रों का सम्बन्ध है, रामायणी कथा में मुख्य रूप से तीन राजवंश सामने आते हैं। वे तीन राजवंश अयोध्या, किष्किन्धा और श्रीलंका के हैं। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य पात्र हैं, जो अयोध्या से निकल कर लंका पंहुचने तक राम के सम्पर्क में आये, अथवा अन्य मध्यगत प्रसंगवश जिनका उल्लेख हुआ है। इनमें अनेक आश्रमवासी ऋषियों कतिपय शापग्रस्त व्यक्तियों , अनेक राक्षसों और जटायु जैसे खग-वर्ग के प्राणियों का समावेश कहा जा सकता है।

इनमें वानर-रीछ जैसे वन्य पशु, जटायु-सदृश पक्षी , अन्य राक्षस व ऋषि सब एक ही भाषा को बोलते-समझते उपयोगी वार्तालाप करते वर्णित किये गये हैं। स्वयं श्रीराम इन सभी के सम्पर्क में आते हैं; पर भाषा सभी की एक ही प्रतीत होती है, रामायण के वर्णनों से ऐसा संकेत मिलता है कि वह भाषा संस्कृत रही होगी। यह आश्चर्य की बात है उस समय के पशु-पक्षी भी संस्कृत भाषा बोलते व समझते थे।

विष्णु-शर्मा रचित पञ्चतन्त्र संस्कृत की एक प्रसिद्द रचना है। इसकी समस्त वर्ण्य वस्तु का निर्वाह पशु-पक्षी वर्ग के प्राणियों द्वारा किया गया है। निश्चित है यह रचना केवल कल्पना पर आधारित है। एक विशिष्ट वर्ण्य-राजनीति का मनोरंजन की रीति से उपपादन करने का सफल प्रयास किया गया है। इसी के अनुसार रामायणी कथा के पात्रों पर द्रष्टि डालने के फलस्वरूप आधुनिक पाश्चात्य लेखकों ने उसको कल्पनामूलक माना है। भारतीय समाज व राष्ट्र को जिस व्यक्तित्व पर गर्व है, जिसको पूर्ण में अनुकरणीय माना जाता है, संस्कृत का लगभग आधा लौकिक साहित्य जिस पर अवलम्बित है, एक कल्पनातीत लम्बे काल के व्यतीत हो जाने पर भी आज भारतीय समाज जिससे अन्तःकरण की गहराइयों तक प्रभावित है, वह राम और उसकी रामायणी कथा अपने चमत्कारपूर्ण वर्णनों के आधार पर एक कल्पनामात्र समझ ली जाती है।

इस संक्षित लेख में समस्त रामायण के ऐसे वर्णनो पर द्रष्टि न डालते हुए केवल किष्किन्धा के वानर राजवंश के विषय में दो-एक बातें कहना अभिप्रेत है। हिंदी में जिसे आज बन्दर कहते हैं, संस्कृत में उसके लिये वानर शब्द है। संस्कृत में यह परम्परा अतिप्राचीन काल से चली आ रही है कि कोई ‘नाम‘ –पद यदि किसी व्यक्ति का वाचक है, उसके लिये भी लेखक पर्याप्त पदों का प्रयोग बराबर करते रहते हैं। इस परम्परा से सभी संस्कृतज्ञ परिचित हैं। वानर राजवंश के लिये भी रामायण में ‘वानर’ पद के प्रायः सभी पदों का निर्बाध प्रयोग हुआ है। जैसे –कपि, शाखामृग, प्ल्वग, मर्कट, कीश, वनौकस आदि। न केवल आज , प्रत्युत पर्याप्त पूर्व समय से भारतीय समाज में ऐसे वर्णनों के आधार पर यह धारणा है कि ये किष्किन्धा-निवासी आज-जैसे बन्दर ही थे।

इस धारणा का मूल क्या रहा होगा, यह कहना कठिन है पर सम्भव है , पौराणिक भावनाओं का प्रभाव इसका मूल रहा हो। इसका कारण यह है कि यह रामायण वाल्मीकि की रचना है, और वाल्मीकि श्रीराम के समकालिक हैं, उनका हनुमान और सुग्रीव आदि से साक्षात् परिचय रहा है, तथा अयोध्या के राजवंश का विवरण यदि थोड़ा भी ऐतिहासिक लक्ष्य रखता है, तो यह किसी विचारशील व्यक्ति के लिये सम्भव प्रतीत नहीं होता है कि वह यह समझे कि वाल्मीकि ने हनुमान आदि को वन्य पशु बन्दर समझकर वैसा वर्णन किया है। बल्कि वह वर्णन प्रतीत अवश्य ऐसा होता है, पर इसको उसी रूप में यदि सत्य मान लिया जाये , तो यह कहने में कोई संकोच न होगा कि वाल्मीकि रामायण कल्पनामूलक है, न वह श्रीराम के समय में हुआ और न उनका हनुमान आदि से सम्पर्क रहा , न इन घटनाओं का कभी अवसर आया। फलतः हनुमान के बन्दर समझे जाने की कल्पना मूल से कही जा सकती है। हनुमान की बन्दर-सदृश्य मूर्तियों का उपलब्धि काल कोई अधिक पुराना नहीं है।

कहा जा सकता है , वाल्मीकि ने किष्किन्धा के राजवंश का वर्णन उन्हें ‘बन्दर’ समझकर नहीं किया। इस प्रकार सामूहिक रूप से बन्दरों का न नामकरण होता है, न उनकी वंशपरम्परा का उल्लेखन , न उनके विवाह और सम्बन्धियों का वर्णन, न उनकी पढाई-लिखाई और राजशासन-व्यवस्था व मन्त्री-मण्डल आदि का विवरण। या तो इसे कल्पनामूलक समझिए या इसकी तह में जाकर इसकी वास्तविकता को उजागर कीजिये। ये बातें स्पष्ट करती हैं, वाल्मीकि ने किष्किन्धा के राजवंश को आज जैसा बन्दर समझकर उसका विवरण नहीं दिया। कतिपय प्रसंगों का संकेत रामायण के अनुसार प्रस्तुत है –

वंश परम्परा –

(१) वाल्मीकि-रामायण [बालकाण्ड, सर्ग १७] में वानर वर्ग की उत्पत्ति का वर्णन करते हुये जिन व्यक्तियों के वर्ग का उल्लेख किया गया है, वह बन्दरों में होना सम्भव नहीं। वहां विवाह व स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध का उल्लेख मानव समाज के समान किया है। उस प्रकार का सामाजिक वर्गों का विभाजन मानव समाज में सम्भव है, अन्यत्र नहीं ।

(२) किष्किन्धा-काण्ड के नवम सर्ग में अपनी परिस्तिथी के विषय में सुग्रीव कह रहा है – मेरा बड़ा भाई शत्रुहन्ता प्रसिद्द बाली है। हमारे पिता सदा उसको बहुत मानते रहे हैं, और मैं भी उनका आदर करता रहा हूँ। हमारे पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर यह ज्येष्ठ पुत्र है—इस कारण मन्त्रियों ने वानरों के राज्य-सिंहसन पर प्रतिष्ठापूर्वक उसीको आसीन किया। हमारा यह महान राज्य पितृ-पैतामह-परम्परा से चला आया है। उस पर अब बड़ा भाई बाली शासन करता है, मैं अभी तक सदा प्रणत होकर उसकी आज्ञा में रहा हूँ।

ऐसे वर्णन में यदि एतिहासिक तथ्य है तो यह मानव-समाज में सम्भव है , वानर-समाज में नहीं। देश व राष्ट्र पर प्रशासन व मन्त्रीमण्डल की व्यवस्था होना , तथा ज्येष्ठ पुत्र का राज्यधिकार—यह सब राजनीति शास्त्र व धर्मशास्त्र ‘बन्दरों’ के लिये नहीं है।

(३) सीता अपरहण के अनन्तर जब राम-लक्ष्मण किष्किन्धा के समीप ऋष्यमूक पर्वत की उपत्यका में पंहुचते हैं, तब अपने बड़े भाई बाली के द्वारा सताये सुग्रीव ने , जो उसे समय ऋष्यमूक पर्वत में छिपकर अपने दिन बिता रहा था, हनुमान को राम-लक्ष्मण के पास भेजा, यह जांचने के लिये कि कहीं बाली के भेजे गुप्तचर न हों, जो हमें यहाँ हानि पहुँचाने आये हों।

हनुमान ब्राह्मण वेष में उनके पास जाते हैं। पर्याप्त समय वार्तालाप के अनन्तर राम ने लक्ष्मण से एक होकर कहा – यह व्यक्ति हनुमान वानरराज सुग्रीव का सचिव है, तुम इसके साथ स्नेहयुक्त मधुर वाणी से बात-चीत करलो। यह वेदवित् है, बिना ऋग-यजु:-सामवेदों को जाने ऐसा भाषण सम्भव नहीं , जो इसने किया है। यह व्याकरण-शास्त्र का पूर्ण ज्ञाता प्रतीत होता है। इतनी देर तक वार्तालाप करते हुए भी एक भी अशुद्ध शब्द का इसने उच्चारण नहीं किया। इसके मुख, नेत्र, ललाट, भौं तथा अंगों पर कोई विकृति प्रतीत नहीं हो रही।

हनुमान के विषय में राम द्वारा प्रस्तुत किया गया यह विवरण किसी बन्दर के बारे में होना असम्भव है। ब्राह्मण या भिक्षु वेश में जाने का अभिप्राय यही हो सकता है कि उस समय अपनी क्षेत्रीय या वर्गीय वेशभूषा व पहरावे को छोड़कर एक ब्राह्मण के समाजिक पहनावे में आगया। इसके अतिरिक्त वेद व व्याकरण का ज्ञाता होना , समयोचित नीतिपूर्ण वार्तालाप करना एक वन्य पशु ‘बन्दर’ के लिये असम्भव है(रामायण, ४|३) ।

(४) हनुमान श्रीलंका में जबसीता की खोज में इधर-उधर घूम रहे हैं, वहां किसी व्यक्ति ने उसे विदेशी समझकर नहीं टोका। वहां उस समय की लंका में प्रचलित वेश-भूषा में गये। वह अनेक स्थलों पर वहां के निवासियों से बातचीत भी करते हैं। इससे स्पष्ट होता है, उनकी मुखाकृति और देह की बनावट वैसी ही सम्भावना की जा सकती है , जैसी समान रूप में भारत व लंका के निवासियों की रही होगी।

लिखने की बहुत बाते हैं पर संकेतमात्र में इतना पर्याप्त है। इसके फलस्वरूप ज्ञात होता है किष्किन्धा का वानर राजवंश ऐसा ही एक मानव-समाज-वर्ग था, जो अन्य भारतीय समाज के समान था। उस वर्ग का वानर नाम क्यों हुआ? यह अतिरिक्त खोज का विषय है। महाभारत के ‘नाग-सत्र’ के नाग सांप न थे , वे हमारे ही समाज का अंग हैं, जो आज भी भारत के अनेक भागों में विद्यमान हैं। आपने कई व्यक्तियों के नाम सुने होंगे जैसे कालिदास नाग, पुरषोत्तम नाग आदि तो क्या उन व्यक्तियों को सांप मान लें ऐसे ही ‘वानर पद है।

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

वेद कुरान को एक बताने वालो का उद्देश्य समझो हिन्दुओं

सभी हिन्दू अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते हुए भी ईश्वर एक है यह मानते हैं। यहाँ चर्चा हिंदुओं की मान्यता या अमान्यता को लेकर नहीं है यहाँ विषय केवल है काफी लोगो द्वारा फैलाई गयी भ्रांतियों को साधारण रूप से दूर करना क्योंकि इन भ्रांतियों में कभी-२ कुछ भोले लोग फंस जाते हैं। हिन्दू धर्म के मूल ग्रन्थ वेद हैं इसमें किसी हिन्दू को आपत्ति नहीं है इसीलिए इनके निशाने पर वेद रहते हैं। मैं यहाँ इस छोटे से लेख में दोनो पुस्तकों वेद और कुरान की समीक्षा नहीं कर रहा हूँ अभी के लिये केवल एक छोटी सी बात कहना चाहता हूँ। वैसे वेद और कुरान की आपस में तुलना करना ही तुच्छ लगता है फिर भी यदि आवश्यक हुआ तो उसको भी सप्रमाण लिख देंगे फिर कभी। अभी बस हिंदुओं एक छोटी सी बात समझ लो --

कुछ ब्लॉग जेहादियों द्वारा यह निरन्तर प्रचारित किया जा रहा है कि वेद और कुरान का एक ही सिद्धांत है वो कुरान को वेदों से और वेदों को कुरान से सत्यापित करते हैं और इस्लाम के पक्ष में माहौल बनाने का भरपूर प्रयास कर रहे हैं। इसमें अपने धर्म से अनभिज्ञ बेचारे हिन्दू जोकि सैंकड़ो वर्षों से धोखा खाते, इस्लाम द्वारा युद्धों को झेलते, धर्मान्तरण कराते हुए, इस्लाम के नाम पर देश के टुकड़े करवाते हुए, इस्लामिक आतंकवाद से मरते हुये भी प्रेम, भाई-चारे, शान्ति से अनावश्यक रूप से अत्यधिक ग्रसित बड़े ही गर्व के साथ हाँ में हाँ मिलाकर कहते हैं – हाँ धर्म तो सभी एक हैं सभी ईश्वर को एक मानते हैं सभी प्रेम की शिक्षा देते हैं वो तो लोग ही हैं जो कुछ का कुछ बना देते हैं। भाइयो जैसे साबुत उड़द, काला पत्थर, राई, काले कपड़े इत्यादि के कुछ एक गुण एक ही होते है तो क्या वो सब वस्तुऐ एक ही हो गयी जबकि वो विभिन्न वस्तुऐं हैं। नमक और चीनी एक रंग के होते हैं किन्तु उनके स्वाद में कितना अन्तर होता है उसी प्रकार से यदि सभी मतों में ईश्वर एक माना गया भी है तो क्या शेष सभी बातों का भेद समाप्त हो जाता है। चलो थोड़ी देर के लिये मानो मैं आज एक नया मत चलाता हूँ और उस नये मत के अनुसार ईश्वर एक है यह कहता हूँ और साथ में किसी की भी हत्या करना पाप नहीं है ये कहता हूँ तो चलाया गया मत हिन्दू वेदानुसार कहलायेगा क्या? कुछ हिंदुओं को अपनी इतिहास में मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा की गयी बर्बादी को देखकर भी अक्ल नहीं आई तो कब आएगी और आज भी इस्लाम के आधार पर तुम्हे मारा जा रहा है तुम्हारा धर्म-भ्रष्ट (कथित धर्म-परिवर्तन) किया जा रहा है। तुम्हरे ही मुंह पर ही तुम्हारे धर्म-ग्रन्थों का मजाक उड़ाया जा रहा है। मजे की बात यह है कि ये जेहादी वेदों का अर्थ अपने अनुसार दिखाके या अनाप-शनाप बक कर उनका मजाक उड़ाते हैं उनकी निंदा करते हैं, उसको अमान्य ठहराते हैं और फिर वेदों से ही कुरान की पुष्टि करते फिरते हैं। पुराणों का मजाक उड़ाया जाता है फिर कहीं से भविष्य पुराण के आधार पर ही मोहम्मद को अन्तिम अवतार घोषित किया जाता है। कुरान के अनुसार इस्लाम में अवतारवाद को अमान्य ठहराते हैं और अपने मजहब-प्रवर्तक को अन्तिम अवतार घोषित करते हैं। क्या मजाक लगा रखा है ये फिर भी कुछ हिन्दू लोगो की बुद्धि पर तरस आता है जो इनके प्रत्यक्ष छल को अन्धों की भांति देख ही नहीं पाते। कुरान या किसी भी मत में कुछ बात यदि सही भी लिखी हैं मतलब कि वैदिक पुस्तकें भी उन कुछ बातों को मान्यता देती हैं किन्तु शेष सब बातों को गलत और अमान्य ठहराती हैं तो क्या वो मत वेदानुसार हो जायेंगे क्या? हिंदुओं मोहम्मद साहब का इतिहास और उसके विचार तो पढ़ो फिर बताना कि क्या इस्लाम कम्युनिज्म की तरह एक साम्राज्यवाद नहीं है क्या, जिसको तुम जाने-अनजाने धर्म की संज्ञा देते हो। क्या तुम्हे इन प्रत्यक्ष जेहादियों की धूर्त सोच दिखाई नहीं देती जो तुम्हें डंके की चोट पर गाली देते हैं, तुम्हारा मजाक उड़ाते हैं फिर भी तुम इनका आलिंगन करने के लिये बेक़रार रहते हो। पूरा देश भी इसीका प्रत्यक्ष उदाहरण है पाकिस्तान से हजार जूते खाने पर भी उससे प्रेम की पींगे बडाई जा रही हैं। यहाँ का मीडिया, फिल्में, टी।वी। नेता इत्यादि सभी पाकिस्तान से प्रेम और भाई-चारे की बात करते नहीं थकते जबकि पाकिस्तान यहाँ के लोगो की खोपड़ी में सूराख भी करता रहता है और इनके मुंह पर थूकता भी है।

अब बहुत से हिंदुओं को भी इनके साथ ही इस लेख से आपत्ति हो सकती है कि तुमतो अमन, चैन-शान्ति भंग करने पर तुले हो तुम्हारा उद्देश्य क्या है वगैरहा-२ । बताओ जी कौन सी शान्ति की बात करते हैं ये लोग इनकी बुद्धि को क्या हो गया है इतना मजहब के नाम पर अत्याचार होने पर और मारे जाने पर भी इनकी अक्ल सही नहीं होती तो क्या कोई कर सकता है। हर जेहादी या आतंकवादी लोगो की हत्या के बाद डंके की चोट पर उसको इस्लाम के अनुसार बताता है, इन्हि के कुछ साथी इस बात को प्रसारित करते है कि यह मुसलामानों पर हुए अत्याचार की प्रतिक्रिया है, कुछ समर्थक कहेंगे ये भटके हुए जवान हैं आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता पर साथ में वो हत्यारे जेहादी खुलकर चिल्ला-२ कर कहते रहेंगे हम इस्लाम का युद्ध लड़ रहे हैं पर हिन्दू को उन जेहादियों की आवाज़ नहीं सुनाई देती वो तो ढोंग भरी शान्ति या कायरता में ही मग्न रहता है ।

मेरा उद्देश्य सत्य से अवगत कराना है हो सके तो हो जाओ वरना परिणाम भुगतने के लिये तैयार रहो। अभी तो पकिस्तान, बंगलादेश, काश्मीर और आंशिक कुछ प्रदेश ले ही लिये हैं आगे-२ देखना यही हिंदुओं की सोच रही तो ये सारा भारत ले लेंगे। इन जेहादियों का साथ कुछ तथाकथित हिन्दू संत भी दे रहे हैं जोकि भेड़ की खाल में भेडिये हैं जो कि इनके साथ मिलकर शान्ति का राग गाने वाली हिन्दू भेड़ों(मूर्खों) को चुप-२ निगल रहे हैं। उदाहरण के तौर पर एक कथित शंकराचार्य है, एक तथाकथित आर्यसमाजी अग्निवेश है ऐसे ही और भी हैं और कुछ लोगो को भी सन्यासी के भेष में लाकर इस्लाम की तारीफ़ करवाते फिरते हैं वेदों के अनुसार बतलाते हैं। यदि इनकी धूर्तता कुछ लोगो को नहीं दिखाई देती उनके बारे में यही कह सकते हैं--

विनाशकाले विपरीत बुद्धि !!

रविवार, 25 जुलाई 2010

क्या शूद्र को विद्याप्राप्ति का अधिकार नहीं है ?

शास्त्र के अध्यन तथा ब्रह्मा की उपासना आदि में मनुष्यमात्र का अधिकार है, इस तथ्य का विवेचन भारतीय साहित्य के विभिन्न स्थलों में विविध प्रकार से किया गया है । बादरायण व्यास-प्रणीत ब्रह्मसूत्रों में भी इसका एक प्रसंग है। सूत्रकार ने इस प्रसंग [१३२५-३३] के द्वारा विद्याध्यन एवं ब्रह्मोपासना आदि में मनुष्यमात्र के अधिकार का निश्चय किया है। पर एक छान्दोग्य [४११-२] प्रसंग के आधार पर ऐसा कहा जाता है कि विद्याध्यन आदि में शूद्र को अधिकार नहीं होना चाहिये। वहां एक आख्यानक है- जानश्रुति पौत्रायण नामक व्यक्ति रैक्व नामका ऋषि के पास जाता है; उसे बहुत-सा धन, गौ आदि देकर ब्रह्मविद्या की शिक्षा के लिये प्रार्थना करता है। ऋषि रैक्व उसे दुत्कार देता है, और कहता है –अरे शूद्र! गौ , धन आदि अपने ही पास रख, मुझे इसकी आवश्यकता नहीं, चला जा !’ इससे समझा जाता है कि शूद्र को विद्या में अधिकार नहीं होना चाहिये।

इसी प्रसंग के ब्रह्मसूत्रों [२३३४-६५] में स्पष्ट किया गया है कि जानश्रुति को ऋषि ने शूद्र क्यों कहा। वस्तुतः वह क्षत्रिय राजा था। वह अपना अनादर सुनकर शोक को प्राप्त हुआ , अथवा शोक के कारण वह रैक्व ऋषि के पास दौड़ा आया ; इन भावनाओं को अपनी अन्तरदृष्टि से ऋषि ने पहले ही समझकर उसको शूद्र कहा; यहाँ पर शूद्र-वर्ण का कोई प्रसंग नहीं है। उपनिषद में इस पद के प्रयोग को भ्रान्ति से वर्ण-परक न समझा जाए, इसीलिए सूत्रकार ने इसकी विशिष्ट व्याख्या की है। इससे विद्याप्राप्ति में शूद्रवर्ण के अधिकार के लिये किसी प्रकार की बाधा नहीं आती। विद्या में मनुष्यमात्र का अधिकार है, इस तथ्य को सूत्रकार ने प्रथम [१३२५] निश्चित कर दिया है, इसी के अनुसार शूद्र में उत्पन्न विदुर तहत अन्य मातंग व्यक्तियों के वेदादि अध्यन का उल्लेख इतिहास में मिलता है।

जिस प्रकार किसी कम बुद्दी वाले व्यक्ति को हम मुर्ख, मंदबुद्धि कहते हैं उसी प्रकार से शूद्र का अर्थ लेना चाहिये। शूद्र कोई जन्म आधारित जाति नहीं है शास्त्र में यह कहीं पर उन लोगो के वर्ग के लिये कहा जाता है जो ज्ञान को प्राथमिकता न देकर धूर्तता, मूर्खता आदि में लिप्त मनुष्य होते हैं या किसी उद्दण्ड, स्वार्थी इत्यादि दुर्गुणों वाले व्यक्ति के लिये कहा जाता है। यदि आप शास्त्र में कहीं शूद्र पढते हैं तो वहां वो किस प्रसंग में वर्णित है उस पर गौर कीजिये न कि उसको तथाकथित आधुनिक जाति समझकर भ्रान्ति में पडिये। वर्ण व्यवस्था को जन्म आधारित बनाने वाले व्यक्ति पण्डित या ब्राह्मण नहीं स्वयं शूद्र हैं। उदाहरण के लिये एक चोर, डाकू, स्वार्थी, धूर्त, मंदबुद्धि आदि व्यक्तियों (शूद्रों) के पुत्रों अथवा पुत्रियों को भी विद्या अध्यन का पूर्ण अधिकार है क्योंकि यह सम्भव है माता-पिता के दुर्गुणों में लिप्त होने पर भी या मंदबुद्धि होने पर भी पुत्र में ये दोष न हों और वह विद्याध्यन का अभिलाषी हो। इसीलिए शूद्रों पर अत्याचार को शास्त्र को दोष न देकर सत्य से अवगत होइये। एक मुर्ख मुस्लिम व्यक्ति ने शास्त्र पर यह आरोप लगाया कि बचपन में शूद्र का उपनयन संस्कार वर्जित है। जिसने आरोप लगाया वो तो शूद्र, धूर्त या जेहादी है किन्तु विचारवान व्यक्ति को समझना चाहिये शास्त्र में ऐसा क्यों लिखा है –इसका कारण है उपनयन संस्कार में बालक को प्रतिज्ञा करायी जाती है कि वह अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्या की प्राप्ति करेगा। शूद्र के लिये यह संस्कार वर्जित है –इसका कारण यह है कि बचपन में ही यदि बालक अत्यन्त उद्दण्ड, प्रमादी, आलसी है या मंदबुद्धि है तो उसको यहाँ शूद्र कहा गया है और उसकी प्रतिज्ञा में संदेह रहता है। ऐसा नहीं है कि एक तीव्र बुद्दी वाला बच्चा प्रत्येक बात पर खरा उतरता है किन्तु फिर भी उसके लिये भविष्य में ऐसी सम्भावना कम होती है।

कुछ महानुभव तैतरीय संहिता के ‘शूद्रो यज्ञेअनवक्लृप्तः’ सन्दर्भ के आधार पर कहा करते हैं कि यज्ञ में शूद्र असिद्ध है, असमर्थ है; उसे यज्ञ में सम्मलित नहीं किया जाना चाहिये। तो महानुभवों यह प्रसंग ऐसे व्यक्तियों के लिये है, जो प्रयत्न करने पर भी वेद आदि का अध्यन नहीं कर पाते हैं। इसी कारण मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकते, पर यज्ञों के अवसर पर मन्त्रों के अनाप-शनाप उच्चारण के दुस्साहस का प्रयास करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को मन्त्रोच्चारयिता के रूप में यज्ञों में भाग लेना निषिद्ध किया गया है। यह निषेध शूद्रवर्ण के विद्या में अधिकार न होने का प्रतिपादन नहीं करता। विद्या अध्यन आदि के लिये प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण अवसर दिया जाना शास्त्रसम्मत है। यदि अनधीतशास्त्र व्यक्ति भी ब्रह्माविद्या-विषयक या किसी भी विषय पर उपदेश चाहता है तो वह ले सकता है; इसमं किसी प्रकार की शास्त्रीय बाधा नहीं है। जो व्यक्ति यह समझते हैं कि शूद्र के विद्याध्यन का शास्त्र निषेध करता है, वस्तुतः वो भ्रान्ति में हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि छान्दोग्य के उक्त प्रसंग में शूद्र-पद का प्रयोग शूद्रवर्ण की भावना से नहीं है। क्योंकि रैक्व ऋषि द्वारा जानश्रुति के यहाँ विद्या का उपदेश दिया जाना सिद्ध है। उपनिषद के अनुसार प्रथम जैसे शूद्र कहकर उपदेश देने से नकार किया , ऐसे ही पुनः ‘शूद्र’ कह कर उपदेश दिया। वैदिक साहित्य में कोई ऐसा उल्लेख उपलब्ध नहीं है जिससे मनुष्य के किसी निर्धारित वर्गविशेष को विद्या आदि में अनाधिकारी सूचित होता हो।

शेष आगे ...

शुक्रवार, 11 जून 2010

सुवचन-सुधा

११.) अर्थसम्पप्रकृतिसम्पदं करोति ।

अर्थ-सम्पत्ति ‘प्रकृति-सम्पत्ति’ (अमात्य, सेना, मित्र आदि सम्पत्ति)को उत्पन्न करने वाली होती है

१२.) प्रकृतिसम्पदा ह्मानायकमपि राज्यं नीयते ।

प्रकृतिसम्पत्ति के द्वारा नेतारहित राज्य का भी सञ्चालन किया जा सकता है

१३.) प्रकृतिकोपस्सर्वकोपेभ्यो गरीयान् ।

‘प्रकृतिकोप’ सब कोपों से बलवान होता है।

१४.) अविनीतस्वामिलाभः श्रेयान् ।

विनयहीन स्वामी के लाभ से , स्वामी का लाभ न् होना ही अच्छा है।

१५.) संपाद्यात्मानमन्विच्छेत्सहायवान् ।

अपने आपको शक्ति-सम्पन्न बनाकर, फिर सहायकों की इच्छा करो।

१६.) नासहायस्य मन्त्रनिश्चयः ।

सहायकहीन राजा के मन्त्र(विचार) का, कभी निश्चय नहीं हो सकता।

१७.) नैकं चक्रं परिभ्रमयति ।

एक पहिया कभी गाड़ी को घुमा नहीं सकता।

१८.) सहायस्समसुखदुःखः ।

सहायक वही होता है, जो अपने सुख और दुःख में बराबर का साथी रहे।

१९.) मानि प्रतिमानिनमात्मनि द्वितीयं मन्त्रमुत्पादयेत् ।

मानी पुरुष , अपने समान दूसरे मानि पुरुष को ही अपना सलाहकार बनावे।

२०.) अविनितं स्नेहमात्रेण न् मन्त्रे कुर्वीत् ।

विनयपुरुष को , केवल स्नेह के कारण, कभी मन्त्र (सलाह या विचार) करने में सम्मलित न करे।

२१.) श्रुतवन्तमुपधाशुद्धं मंत्रिणं कुर्वीत् ।

विद्वान तथा सब तरह से परीक्षा किये हुये शुद्धह्रदय पुरुष को मन्त्री बनावे।

गुरुवार, 10 जून 2010

सुवचन-सुधा

१.)सुखस्य मूलं धर्मः ।

सुख का मूल(कारण) धर्म है।

२.)धर्मस्य मूलमर्थः ।

धर्म का मूल अर्थ है।

३.)अर्थस्य मूलं राज्यम् ।

अर्थ का मूल राज्य है।

४.)राज्यमूलमिन्द्रियजयः

इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना ही राज्य का मूल है।

५.)इन्द्रियजयस्य मूलं विनयः ।

इन्द्रियों के विजय का मूल विनय है।

६.)विनस्य मूलं वृद्धोपसेवा ।

वृद्धों की सेवा करना विनय का मूल है।

७.)वृद्धोपसेवाया विज्ञानम् ।

वृद्धों की सेवा का मूल विज्ञान है।

८.)विज्ञानेनात्मानं संपादयेत ।

इसीलिए पुरुष विज्ञान से अपने-आपको सम्पन्न बनावे।

९.)संपादितात्मा जितात्मा भवति

जो पुरुष विज्ञान से सम्पन्न होता है, वह अपने ऊपर काबू पा सकता है।

१०.)जितात्मा सर्वार्थेस्संयुज्येत

अपने ऊपर काबू रखने वाला पुरुष सब अर्थों से सयुंक्त हो जाता है।

( क्रमशः)

बुधवार, 9 जून 2010

हिंदू वेदों को इतना अत्यधिक महत्त्व क्यों देते हैं?

(लेख थोड़ा दीर्घ है किन्तु अतिरिक्त समय में पढ़े अवश्य विशेष तौर पर हिन्दू लोग क्योंकि उन्हें अपने धर्म के मूल को तो जानना चाहिये कम से कम.)

हिंदू धर्म में वेदों का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है. सभी हिंदू धार्मिक ग्रन्थ अपनी बातों को प्रमाणित करने के लिये शब्द प्रमाण के अन्तर्गत वेदों को सर्वोपरि स्थान देते हैं. किन्तु आज अधिकतर लोगो का मानना है कि इन वेदों को किसी पूर्वकाल में मनुष्यों ने समयानुसार अपने ज्ञान के अनुरूप लिखा था जिनमें कुछ बात सही हैं और कुछ गलत. कुछ हिंदू लोग मानते हैं वेद ईश्वरकृत ज्ञान है. अब इनमें ऐसा क्या लिखा है जो कुछ लोग गलत और कुछ लोग इनको सम्पूर्ण सत्य मानते हैं. यहाँ मैं इस लेख में केवल यह ही कहना चाहूँगा कि जो लोग इनमें असत्य या गलत बातों का आरोप लगाते हैं वे इस बात का आत्म-मंथन अवश्य करें कि वेद-भाष्य करने वाला या वेदों पर पुस्तक लिखने वाला किस स्तर, मानसिकता और कितना ज्ञान रखता है क्योंकि वेदों में भी और सभी प्रामाणिक वैदिक ग्रन्थों में वेद भाष्य का अधिकार केवल ध्यान अवस्था की उच्चतम अवस्था सबीज या निर्बीज समाधि तक पहुँचने वाले इंसान को ही दिया है. आजकल की संस्कृत या अन्य विषयों की डीग्री या थोड़ा बहुत शाब्दिक ज्ञान रखने वालों का वेद-भाष्य विद्वानों के मध्य मान्य नहीं होता है. एक तो ये डिग्रीयां वैदिक संस्कृत की ही नहीं हैं और यदि उसको वैदिक संस्कृत आती भी है तब भी जब तक वह योग, सांख्य दर्शन आदि के अनुरूप जितेन्द्रिय होकर अष्टांग योग का पालन नहीं करता है उसकी व्याख्या मान्य नहीं है. इसका एक सीधा सा कारण है वेदों में तत्वों के यथार्थ रूप, सृष्टि-सृजन, आत्मा-परमात्मा, जीवन-मौत जैसे अत्यन्त गूढ़ विषयों के साथ-२ मानव जीवन के लिये आवश्यक समस्त विज्ञान, गणित, संख्या आदि के मूल और सामाजिक, राजकीय इत्यादि सभी विषयों के ज्ञान का वर्णन हैं. मंत्रो के वास्तविक अर्थ और व्याख्या को समझाने वाला यदि कोई साधारण पुरुष होगा तो निश्चित तौर पर अर्थ का अनर्थ कर देगा. और यही कारण है आज वेदों को साधारण पुस्तक समझने की भूल का. उदाहरण के तौर पर आधुनिक युग में आइंस्टीन की रिलेटिविटी थियोरी को यदि कम बुद्धि वाला व्यक्ति और भौतिक शास्त्र को न जाने वाला व्यक्ति व्याखित करे तो वो उसको क्या समझेगा या क्या समझायेगा.

वेदों से मेरा तात्पर्य स्याही, कलम द्वारा लिखित पुस्तक से नहीं है मेरा तात्पर्य केवल उस ज्ञान से है जो वेद नाम से जाना जाता है. मैं फिलहाल वेदों में क्या लिखा और क्या नहीं लिखा है उस पर विचार न करते हुए यहाँ केवल इस बात पर विचार कर रहा हूँ कि वेद ईश्वरीय ज्ञान क्यों कहलाते हैं. क्योंकि बहुत लोगो का ये मानना है कि वेदों में उच्च स्तर का तो ज्ञान है किन्तु ये हैं ऋषियों या बुद्धिमान मानव द्वारा निर्मित ही हैं . इनके ईश्वर द्वारा कृत होने में क्या लाभ या तर्क है.

यहाँ एक नए द्रष्टिकोण से विचार किया गया है. यहाँ विषयानुरूप इस लेख में न कोई वेद प्रमाण दिया गया है न किसी अन्य शास्त्र का और न किसी ऋषि की उक्ति का निर्देश है, फिर भी पाठक को इसमें कुछ प्रेरणाप्रद तत्व अवश्य मिलेंगे.

मनुष्य को पूर्णरूप से जाने बगैर कोई विचार ठीक-ठीक समझ नहीं आता और न आ सकता है, क्योंकि यह मनुष्य ही तो है जो विचारशील है. तो प्रथम ‘मनुष्य क्या है’ यह जानना आवाश्यक है.

देखने से यह प्रतीत होता है कि शरीर और एक शक्ति के सम्बन्ध से जो वस्तु या व्यक्ति बनता है, वह मनुष्य कहाता है. इस समय हमें सिर्फ उसी शरीर और शक्ति पर ध्यान देना है जो मनुष्य को उत्पन्न करता है, और अन्य प्राणियों का यहाँ वृतान्त नहीं है.

मनुष्य पैदा होता है और उसी समय एक ध्वनि करता है. वह माता के स्तन से दूध पीने लगता है. वह मलमूत्र करता है ; और भी क्रियायें करता देखा जाता है. ये सब क्रियायें उसको किसी ने नहीं बताई हैं, यानि उसमें स्वाभाविक हैं. इस तरह ज्यों-ज्यों वह बढ़ता जाता है और उसमें बहुत से लक्षण पाए जाते हैं, उन्ही में ज्ञान भी है. इसी कारण बहुत से विद्वानों ने या ऋषियों ने , या योगियों ने कहा है और गौर करने पर अब भी प्रतीत होता है कि मनुष्य में ६ लक्षण हैं , वे हैं –सुख ,दुःख ,राग द्वेष ,ज्ञान , प्रयत्न.

यहाँ हमें ज्ञान को समझना है कि उसको कोई देता है या उसका , यानि मनुष्य का स्वभाविक गुण है. मनुष्य सृष्टि का एक अंग है और सृष्टि हमेशा होती आई है, यानि सृष्टि का होना अनिवार्य है है, यानि अनादी है.

मनुष्य जो अपनी इन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करता है, इसी कारण मनुष्य में ज्ञान-इन्द्रियां कहीं जाति हैं. परन्तु एक और मन या अन्तःकरण , जिसका नाम बुद्धि है भी मनुष्य में है. इनकी सबकी सहायता से मनुष्य अपने लिये जो उसे लाभदायक प्रतीत होता है, कार्यप्रणाली बना लेता है, अर्थात ज्ञान वह है जिससे वह बाह्य पदार्थ से अपने को लाभ पहुँचाने की रीती निकालता है और अपने विचार बनाता है .

अब जब हम यह देखते हैं कि मनुष्य में ज्ञान स्वाभाविक है और उसमें प्रयत्न भी है जिससे ज्ञान बढ़ सकता है , तो किसी अन्य प्रकार से ज्ञान ग्रहण करके अपने विचार बनाने की क्या आवश्यकता है ? अर्थात मनुष्य को ज्ञान देने का क्या अवसर है ? अर्थात यह मानना कि ईश्वर ने मनुष्य को आदिसृष्टि में ज्ञान दिया , किसी तर्क से ठीक प्रतीत नहीं होता?

इस बात को मानने से कि वेद ईश्वरकृत ज्ञान है, मनुष्यमात्र विशेषकर हिंदुओं की बड़ी हानि हुयी है और हो रही है, जिस भ्रान्ति को मिटाना मनुष्य का कर्तव्य है.

आजकल सभी का अनुभव यह है कि हर-एक जो जिस मत का अनुयायी है , अपने मत को सबसे अच्छा मानता है और अन्य प्रकार के विचारवालों की बातें सुनना या उनपर विचार करना भी अपनी बे-इज्जती समझता है; परन्तु प्रायः हिंदू धर्म के विद्वानों या आर्यों को यह कहते सुना जाता है कि हम तो केवल जो बात बुद्धि के अनुकूल होती है अर्थात तार्किक विद्वता पूर्ण होती वही मानते हैं.

आधुनिक समाज में यह भी विचार है कि यदि मनुष्य या कोई विद्वान मनुष्य की परिभाषा कर ले और ज्ञान की भी, तो उसका फल यही हो सकता है कि वेद मनुष्यों के विचारों की पुस्तक है , न कि परमात्मा का दिया हुआ ज्ञान है. मनुष्यों को जो वेदों के काल में अपनी आवश्यकता के अनुसार कुछ विचार उत्पन्न हुए, वे लिख दिए या बना लिये. मनुष्यों को जिससे लाभ होता है वह उसकी पूजा करता है, परन्तु ईश्वर से न तो कोई लाभ होता है और न हो सकता है. यह तो माना जा सकता है कि कोई ऐसी वस्तु अवश्य होनी चाहिये. ऐसा मानने में कोई बुद्धि का काम नहीं है.परन्तु बुद्धि स्वाभाविक है और मनुष्य अनादि है, क्योंकि मनुष्य न हो तो सृष्टि का विचार कौन कर सकता है ? और बगैर मनुष्यों के सृष्टि ही नहीं, क्योंकि सृष्टि अनादि है; या सृष्टिक्रम अनादि है तो ईश्वर को सृष्टि बनाने या न बनाने में कोई अधिकार ही नहीं, तो मनुष्य जो सृष्टि का अंग है, जैसा और जहाँ तक उसका मस्तिष्क जिस काल में ले जाता है वही विचार बना लेता है, इस कारण वेद ईश्वरकृत नहीं हो सकते.

उपरोक्त विचार किसी भी विचारवान व्यक्ति के दिमाग में आ सकते हैं इसमें कोई शंका नहीं है. अब यहाँ से इन शंकाओं के निवारण पर विचार करते हैं.

शंका- वेद ईश्वर का दिया ज्ञान है, इस बात को समझने के लिये यह जानना आवश्यक है कि यह ज्ञान किसके लिये दिया गया है?

निवारण- यह ज्ञान समस्त मनुष्यमात्र के लिये दिया गया है. सब मनुष्य इसके अधिकारी हैं. मनुष्य से अतिरिक्त अन्य प्राणियों के लिये यह ज्ञान नहीं है.

शंका- यह ज्ञान कब दिया गया ?

निवारण- इस विषय के जानकारों का कहना है कि सृष्टि-रचना होने के अनंतर जब जब सर्वप्रथम मानव का प्रादुर्भाव हुआ, उसी समय विशिष्ट मानवों के मस्तिष्क में किसी दिव्य आलौकिक शक्ति के द्वारा उस ज्ञान ज्ञान का उद्भावन किया गया.

शंका- यदि यह मनुष्यमात्र के लिये दिया गया, तो पहले यह जानना होगा मनुष्य क्या है ? और उसके लिये ज्ञान की आवश्यकता भी है या नहीं.

निवारण- आपका कहना उचित है, पर इस विषय में आपका अपना विचार क्या है ?

शंका- हमारे विचार में तो देखने से यह प्रतीत होता है कि शरीर और एक शक्ति के सम्बन्ध से जो वस्तु या व्यक्ति बनता है , वह मनुष्य कहाता है. इस समय हमें सिर्फ उसी शरीर और शक्ति पर ध्यान देना है, जो मनुष्य को उत्पन्न करता है. और प्राणियों का यह वृतान्त नहीं.

निवारण- यह पहले ही कहा गया है कि वेदज्ञान मनुष्यमात्र के लिये है, अन्य प्राणियों के लिये नहीं. मनुष्य कहे जाने वाले देह के साथ जब एक शक्ति का सम्बन्ध होता है, वह मनुष्य है, यही आपका मनुष्य से अभिप्रायः है तो इसे ईश्वर द्वारा सृष्टि के आदि में ज्ञान दिए जाने के लिये आप क्या कहते हैं.

शंका- हमारा कहना है कि मनुष्य जब पैदा होता है उसी समय एक ध्वनि करता है, वह माता के स्तन से दूध पीने लगता है, वह मल-मूत्र करता है, और भी क्रियाएँ करता देखा जाता है. ये सब क्रियायें उसको किसी ने नहीं बाताई हैं, अर्थात उसमें स्वाभाविक हैं. इस तरह ज्यों-ज्यों वह बढ़ता जाता है, उसमें और बहुत से लक्षण पायें जाते हैं, उन्हीं में ज्ञान भी है. इसी करण ऋषियों ने कहा है और गौर करने पर अब भी प्रतीत होता है मनुष्य में छः लक्षण हैं – सुख, दुःख, राग, द्वेष, ज्ञान, प्रयत्न.

निवारण- आपके कहने का तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि इस मनष्य-देह के साथ जिस शक्ति का सम्बन्ध आपने बतलाया है , वह शक्ति वही है, जिसको ऋषियों ने जीवात्मा कहा है. ज्ञान, प्रयत्न आदि लक्षण उसी के बताये गए हैं. फलतः एक विशेष प्रकार के देह के साथ जीवात्मा का सम्बन्ध होना मनुष्य का स्वरूप है. जब बालक के रूप में यह प्रादुर्भूत होता है , उस समय की इसकी क्रियाओं और चेष्टाओं को आपने स्वाभाविक कहा है , क्योंकि उसे यह सब किसी ने बताया नहीं है.

यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि ऐसी क्रियायें सभी प्राणियों में समान रूप से होती हैं. मनुष्य की यह कोई विशेषता नहीं है. आपने इन्हें स्वाभाविक इसलिए कहा कि इस देह का प्रादुर्भाव होने पर उसे यह किसी ने सिखाया नहीं. जिन ऋषियों जीवात्मा के अस्तित्व , उसके स्वरुप का निर्णय कर उसे समझाया है. उनका कहना है कि नवजात बालक की ये क्रियायें पूर्वजन्म के संस्कार के करण होती हैं, जो प्राणी मात्र के लिये साधारण हैं. इन क्रियायों से मनुष्य की कोई विशेषता प्रकट नहीं होती. आहार, निद्रा, भय, आदि सम्बन्धी सब क्रियाएँ प्राणियों में पूर्व-संस्कारवश नवजात बालक में हुआ करती हैं, इन्हें किसी से सीखने की आवश्यकता नहीं होती. आप इन्हें स्वाभाविक बताकर ईश्वरीय ज्ञान के विषय में क्या कहना चाहते हैं?

शंका- यहाँ हमें ‘ज्ञान’ को समझना है कि यह मनुष्य को कोई देता है, या उसका स्वाभाविक गुण है. मनुष्य सृष्टि का एक अंग है और सृष्टि अनादि है. मनुष्य पांच ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करता है. एक अन्तःकरण, मन या बुद्धि है. इन सबकी सहायता से मनुष्य अपने लिये जो उसे लाभदायक प्रतीत होता है कार्यप्रणाली बना लेता है, यानि ज्ञान वह है जिससे मनुष्य बाह्य पदार्थ से अपने को लाभ पंहुचाने की रीति निकलता है और अपने विचार बनाता है.

हम यह देखते हैं कि मनुष्य में ज्ञान स्वाभाविक है और उसमें प्रयत्न भी है जिससे ज्ञान बढ़ सकता है , तो किसी अन्य प्रकार से ज्ञान ग्रहण करके अपने विचार बनाने की क्या आवश्यकता है ? अर्थात मनुष्य को ज्ञान देने का क्या अवसर है ? अर्थात यह मानना कि ईश्वर ने मनुष्य को आदिसृष्टि में ज्ञान दिया , किसी तर्क से ठीक प्रतीत नहीं होता.

निवारण- ज्ञान जीवात्मा की एक विशेषता है या उसका स्वरुप, ऐसी हालत में हम कह सकते हैं यह उसका स्वाभाविक रूप है. पर जीवात्मा स्वभावतः अल्पज्ञान और अल्पशक्ति होता है; यद्यपि प्रयत्न उसमें हैं, पर केवल अपने प्रयत्न से अपने ज्ञान विषय को बढ़ा नहीं सकता. उसे इस कार्य के लिये बहार के सहयोग की सदा अपेक्षा रहती है. आदिसृष्टि के विषय में विचार को एक ओर रखिये, वर्त्तमान सृष्टि में भी कोई बालक स्वतः ज्ञान-वृद्धि नहीं कर सकता है. उसके लिये माता, पिता, आचार्य, गुरु एवं अन्य प्रकार के अनुभवी व्यक्तियों की अपेक्षा रहती है. उपदेश द्वारा ज्ञान बढ़ाने की यह परम्परा आदिसृष्टि से चली आ रही है. इस बात की एक से अधिक बार परीक्षा की गयी है कि एक नवजात बालक को बिना उसके साथ बोले और उसको कुछ सिखाये बिना अलग एकान्त में रखा गया. उसको आहार आदि का पूरा प्रबंध रखा गया . उसकी ऐसी उम्र तक यह अवस्था रखी गयी जैसी उम्र तक माता,पिता ,गुरु आदि या अन्य पारिवारिक जनों के सहयोग से सीखने वाला बालक संसार के सभी साधारण व्यवहारों को प्रायः सीख लेता है और भाषा आदि के द्वारा अपने सब भावों को प्रकट कर सकता है. एकान्त में रखा बालक यह सब-कुछ नहीं जान सका . शरीर से सब प्रकार पुष्ट होने पर भी वह स्वतः ज्ञानवृद्धि करना तो दूर, अपने आवश्यक उचित आहार आदि को भी समझ लेने में असमर्थ रहता है.

जैसा स्वाभाविक ज्ञान मनुष्य में है, वैसा प्रत्येक प्राणी में रहता है , पर मनुष्य देह की बनावट में ऐसी विशेषताएं हैं, और देह में ऐसी कुछ ग्रंथिया और अवयव हैं कि उनके अपने उचित कार्य करते रहने पर ज्ञान-वृद्धि में अतंत सहयोग प्राप्त होता है पर यह उसी अवस्था में सम्भव है जब बाह्य उपदेश या शिक्षा आदि का उचित सहयोग हो. यह उपदेश या शिक्षा की परम्परा जब से मनुष्य ने सर्गआदिकाल में आँखें खोली हैं तभी से चली आ रही है. वर्तमान काल में माता-पिता, गुरु आदि उपदेश द्वारा बालक को शिक्षित करते हैं; बालक के माता, पिता आदि ने अपने बड़ों से उपदेश प्राप्त किया, उन्होंने अपने पूर्वजों से. इस प्रकार यह उपदेश परम्परा आदिसृष्टि तक पंहुचती है. प्रश्न यह है कि जो सर्वप्रथम मानव हुए , उनको ऐसा उपदेश किसने दिया? माता, पिता आदि उनके पूर्वज कोई न थे. इस बात को निश्चित रूप से जाना जा चुका है कि जीवात्मा को अतिरिक्त ज्ञान-ग्रहण का सामर्थ्य होने पर भी, बिना अन्य सहयोग के स्वतः ज्ञान वृद्धि में वह असमर्थ रहता है. एक सशक्त मनुष्य को गहरे पानी में छोड़ने पर वह तत्काल तैरने नहीं लगेगा, डूब ही जायेगा. पर प्रायः समस्त पशु एवं अनेक पक्षी स्वभावतः जल में छोड़े जाने पर तैर जाते हैं, उन्हें यह सिखाया किसी ने नहीं. मनुष्य एक ऐसा अपाहज प्राणी है, जो बिना सिखाए ऐसे कार्यों में अक्षम रहता है ; सिखाए जाने पर उल्टा, सीधा, तिरछा सब तरह तैर सकता है, तथा जल पर तैरने, अंदर डुबकी लगाने एवं आकाश में उड़ने आदि के अनेक साधनों का निर्माण कर सकता है जबकि अन्य प्राणियों में ऐसी कोई सम्भावना नहीं. मनुष्य की यह यह विशेषता इसकी विशेष शरीर रचना पर आधारित है जैसा कि अभी हम पहले ही कह चुकें हैं. आदिकाल में कोई लौकिक शिक्षक सम्भव न होने से, मानव की उक्त स्तिथि इस बात को प्रमाणित करती है कि उसे किसी अलौकिक पद्वति से वह ज्ञान प्राप्त होता है. जिसपर उसके आगे के समस्त व्यवहार आधारित हैं. यही एक अवसर है जब मनुष्य को उस रीति पर ज्ञान का उपदेश किया जाता है, जो अनंतर काल में साधारण रूप से अनपेक्षित है. जिस रीति पर आदिमानव को ज्ञान वृद्धि का साधन प्राप्त हुआ, उसी का नाम साक्षत्धर्मा व्यक्तियों ने ईश्वर प्रेरणा से ज्ञान प्राप्ति बताया है, उस ज्ञान साधन का मानव सदा लाभ उठा सकता है. वही साधन वेद हैं, जो सृष्टि के आदि समय से लेकर आज तक मानव द्वारा सुरक्षित हैं.

शंका- मेरा विचार है कि यदि मनुष्य या कोई विद्वान मनुष्य की परिभाषा कर ले और ज्ञान की भी, तो उसका फल यही हो सकता है कि वेद मनुष्यों के विचारों की पुस्तक है , न कि परमात्मा का दिया हुआ ज्ञान है. मनुष्यों को जो वेदों के काल में अपनी आवश्यकता के अनुसार कुछ विचार उत्पन्न हुए, वे लिख दिए या बना लिये. मनुष्यों को जिससे लाभ होता है वह उसकी पूजा करता है, परन्तु ईश्वर से न तो कोई लाभ होता है और न हो सकता है. यह तो माना जा सकता है कि कोई ऐसी वस्तु अवश्य होनी चाहिये. ऐसा मानने में कोई बुद्धि का काम नहीं है.

निवारण- मनुष्य और ज्ञान के विषय में अभी ऊपर थोड़ा उपयुक्त विचार प्रस्तुत किया गया है. उतना विचार इस समय हमारी विवेचना के लिये पर्याप्त है और आपकी उसमें सहमति है. मनुष्य और ज्ञान की स्तिथि ऐसी है कि उसमें अन्य सहयोग के बिना किसी तरह के परिवर्तन या वृद्धि आदि की सम्भावना नहीं देखी जाती. ऐसी अवस्था में आपने जो उसका परिणाम निकाला कि वेद मनुष्य के विचारों की पुस्तक है, यह वास्तविकता से सर्वथा विपरीत है. मनुष्य स्वतः बिना किसी अन्य सहयोग के अपने विचारों को इतना महान एवं विस्तृत जानकारी तक पंहुचा सकता है, यही बात तो समझनी है. हमारे सामने जो हालात हैं, उनसे गहरा विचार करने पर हम इसी नतीजे पर पंहुचते हैं कि मानव सहयोग के बिना स्वतः उस स्तिथि को प्राप्त नहीं कर सकता. ऐसा मालूम होता है कि जब मानव अपने व अन्य सहयोगियों के महान प्रयत्न के फलस्वरूप उस अवस्था में पंहुचता है कि वह ऐसी समस्याओं पर विचार कर सके, तब स्वभावतः वह अपनी उन पहली अवस्थाओं को भुला देता है, जब उसने तोतली अटपटी ध्वनियों के साथ एक विशिष्ट सामाजिक वातावरण में रहकर बोलना और अपना सुकोमल हाथ दूसरे के हाथ में देकर कलम पकड़ना सीखा था.वह स्तिथि केवल स्वभाविक ज्ञान द्वारा प्राप्त नहीं होती. यदि कोई विचारशील व्यक्ति आंकें खोल कर मानव समाज की; या अपनी पिछली यात्रा का सिंहावलोकन करे , तो वह इस नतीजे पर पंहुच सकता है कि जहाँ से मानव ने अपनी जीवनयात्रा प्रारम्भ की; वह अवस्था कैसी रही होगी – जीवन का प्रारम्भ किन दशाओं में सम्भव रहा होगा. इससे अच्छा और अधिक निर्दोष कोई अन्य मार्ग नहीं दिखाई देता कि आदिमानव को आलौकिक शक्ति द्वारा वह ज्ञान-साधन अवश्य प्राप्त हुआ, जिसके आधार पर वह अपने जीवन व्यवहार को चलने में समर्थ हो सका.

यह बात कह देने में बड़ी सरल है कि वेद काल में अपनी आवश्यकता-अनुसार जो विचार मनुष्य को उत्पन्न हुए , वे उसने लिख लिये या बना लिये , उन्हीं का नाम वेद है. वेद जिस रूप में हमारे सामने हैं , और उनमें जो कुछ है , वह सब इतना असाधारण है कि उस अवस्था तक पंहुचने के लिये मनुष्यों ने विस्तृत जगत का कितना सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त कर लिया होगा, इन्द्रियों के सर्वथा अगोचर विषयों को भी कितनी गहराई व सच्चाई के साथ जान लिया होगा , आज इसकी केवल कल्पना कर सकते हैं ; पर मूल प्रश्न यही है कि यदि कुछ सच्चाई इसी विचार में है, तो यह समस्या मुंह फाड़कर सामने आती है कि वह मानव , जिसके विचार वेद हैं –जानकारी की इतनी ऊँचीं अवस्था तक कैसे पहुँचा होगा? जबकि मानव स्वभावतः इतना अपाहज है कि बिना अन्य सहयोग के स्वतः कुछ नहीं सीख सकता.

इसके समाधान के लिये आधुनिक युग में एक ही मार्ग सुझाया गया है जो भारतीय परम्परा की इस विषय की प्रक्रियाओं की अपेक्षा करता है वह मार्ग है विकासवाद. आदिसर्ग की स्तिथि को हममें से किसी ने नहीं देखा है; जिन्होंने देखा वो आज नहीं ; हमारे–उनके सम्पर्क का कोई आधार नहीं. उसको किसी रूप में जानने या अंदाज़ा करने के लिये हमारे सामने यह प्राक्रतिक जगद्रूप पुस्तक है. इसको यदि कोई पढ़ सके , तो सम्भव है सच्चाई के समीप पहुंचने का मार्ग मिल जाये. प्राचीनकाल में साक्षातधर्मा ऋषियों ने इसे पढ़ा. उन्होंने जो परिणाम इसके प्रस्तुत किये , वे भारतीय संस्कृति व वैदिक साहित्य के रूप में कुछ सीमा तक सुरक्षित हैं. आधुनिक काल में कुछ समय से कुछ लोग इसके अध्यन का प्रशंसनीय प्रयास कर रहे हैं. अनेक जानकारियां भी सामने आ रही हैं. यह भी अपने ढंग का एक अनुपम प्रयास है , इसका अंतिम परिणाम क्या होगा, इसकी अभी प्रतीक्षा करनी होगी.सम्भव है कुछ अगली पीढियांइसे देख-समझ सकें. इसी दिशा में प्रकृति की परतों को उलटकर मानव समाज की यात्रा का जो स्वरुप किया गया है वही विकासवाद है; पर मूलतः यह एक अपसिद्धांत है.कारण यह कि संसार की ज्ञात परिस्तिथि के साथ यह मेल नहीं खाता. मूल प्रश्न यह है कि मानव का स्वतः विकास कैसे होता है? इसका उदाहरण कोई संसार में नहीं मिलता, जबकि इसके विपरीत सारा संसार प्रत्यक्ष उदाहरण है. इसीलिए संसार का ज्ञात या अज्ञात इतिहास कोई इस कल्पना की पुष्टि नहीं करता. जिन पर्त्तों को खोलकर तथाकथित उनके अध्यन से इस कल्पना का उदभावन किया गया है, वे पर्त्तें गहरे संदेशों से भरी हैं.

मानव –मस्तिष्क तथा मानव-देह की अन्य अनेक ग्रंथियों की ऐसी बनावट है जिससे ज्ञानवृद्धि के अत्यन्त साधन रूप में विशिष्ट सहयोग प्राप्त होता है, पर इसका बनाना मानव के हाथ में नहीं है. अपनी इच्छानुसार पूर्ण स्वस्थ मस्तिष्कयुक्त एवं सक्रिय ग्रंथियों से युक्त मानव-देह का निर्माण मानव द्वारा होना सम्भव नहीं, अन्यथा प्रत्येक व्यक्ति उन्नतमस्तिष्क बालक को पैदा कर सकता है. कौन ऐसा पिता हो सकता है, जो अपने पुत्र को सर्वश्रेष्ठ न होना चाहे? यह कितना आश्चर्य है कि इतना अक्षम होता हुआ भी मानव यह समझता है कि उसने स्वतः सब-कुछ अर्जित कर लिया है, उसे कभी किसी से कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं हुई !

मनुष्य के लाभ का प्रश्न भी विचारणीय है . लाभालाभ आदि आपेक्षिक भाव हैं, इनकी कोई नियत सीमा नहीं. पर समाज की उच्च स्तिथि में मानव के लिये यह विचार महत्त्व रखता है, इसमें अभ्युदय की श्रेणियाँ छिपी रहती हैं. सवाल यह कि मनुष्य के लाभ में ईश्वर के सहयोग की अपेक्षा है भी कि नहीं. मनुष्य अपने विचार तथा ऐश्वर्यों के लिये प्रयत्न करने पर जिन उपलब्धियों में सफल होता है उसे लाभ कहता है. यह ठीक है पर इन सब प्रकार की ऐहिक उपलब्धियों का जो मूल आधार है, ऐसी ऐश्वरी रचना की ओर से मानव अपनी आँखें मूँद लेता है.

आप मानते हैं संसार या संसार का क्रम अनादि है, संसार बनता व बिगड़ता रहता है, इसे प्रत्येक वैज्ञानिक समझता है. इसका बनाना या बिगाड़ना मनुष्य की शक्ति से बाहर है. जो शक्ति इसे बनाती या बिगाड़ती है, उसी का नाम ईश्वर है. ईश्वर वैसे ही मान नहीं लिया गया है . उसका अस्तित्व आवश्यक, प्रामाणिक है, अनुपेक्षणीय है. मनुष्य के सब प्रकार के ऐहिक-पारलौकिक लाभ जगाद्रचना पर अवलम्बित है. मानव –देह में बैठा देह का अधिष्ठाता[आत्मा] जो इस तर्कणा की उद्भावना किया करता है, वह सृष्टि-रचना के अनन्तर ही इस अवस्था में आ पता है. संसार की यह रचना ईश्वराधीन है., इससे मनुष्य सब प्रकार के लाभ प्राप्त किया करता है. तब क्या यह नहीं माना जा सकता कि ईश्वर द्वारा ही मनुष्य को यह लाभ हुआ है. ठीक मस्तिष्क वाले ने इस सच्चाई को समझा है , इसीलिए वह आपके शब्दों में ईश्वर की पूजा करता है, करता आया है और आगे सदा करता रहेगा.

शंका- विचार यह है कि मनुष्य अनादि है, उसकी बुद्धि या ज्ञान स्वाभाविक है , क्योंकि मनुष्य न हो तो सृष्टि का विचार कौन कर सकता है ? और बगैर मनुष्यों के सृष्टि ही नहीं, क्योंकि सृष्टि अनादि है; या सृष्टिक्रम अनादि है तो ईश्वर को सृष्टि बनाने या न बनाने में कोई अधिकार ही नहीं, तो मनुष्य जो सृष्टि का अंग है, जैसा और जहाँ तक उसका मस्तिष्क जिस काल में ले जाता है वही विचार बना लेता है, इस कारण वेद ईश्वरकृत नहीं हो सकते.

निवारण- मनुष्य की परिभाषा आपकी अनुमति से जो पूर्व-निर्दिष्ट की गयी है, उसके अनुसार उस रूप में मनुष्य को अनादि नहीं कहना चाहिये. जब एक विशेष प्रकार के देह के साथ शक्ति(आत्मा) का सम्बन्ध होता है, उसे मनुष्य कहा जाता है. इस मनुष्य –परिभाषा में देह भी आ जाता है; पर कोई देह अनादि सम्भव नहीं है. देह को बनते-बिगड़ते हम अपने सामने देखते हैं, इसीलिए मनुष्य को अनादि न कहकर इसके क्रम को अनादि कहना चाहिये. मनुष्य का क्रम अर्थात सिलसिला अनादि है, मनुष्य अनादि काल से इसी प्रकार होता आया है , यही अभिप्राय आपका मनुष्य को अनादि कहने का हो सकता है. इसमें शक्ति(आत्मा) अनादि है, देह बनते –बिगड़ते रहते हैं. ज्ञान के स्वाभाविक होने की जो बात है, उसका विवेचन पहले ही किया जा चुका है.

‘मनुष्य न हो तो सृष्टि का विचार कौन कर सकता है ? बगैर मनुष्य के सृष्टि नहीं ‘ यह कहना ठीक नहीं है. सभी वैज्ञानिक , प्राचीन और नवीन , इस बात को जानते और मानते हैं कि मनुष्य के प्रादुर्भाव से बहुत पूर्व सृष्टि की पूर्ण रचना हो चुकी होती है. सृष्टि रचना के पर्याप्त अनन्तर मानव का प्रादुर्भाव होता है. तब यह कहना कहाँ तक ठीक है कि बगैर मनुष्य के सृष्टि ही नहीं ? इसके विपरीत कहना यह चाहिये कि सृष्टि के बिना मानव का प्रादुर्भाव सम्भव नहीं. सृष्टि का विचार पीछे की बात है; जब वह अपने अस्तित्व में आ चुकी है, तो उसका विचार होना या न होना कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता. सृष्टिक्रम को अनादि मानने का तात्पर्य यही है कि सृष्टि अनादि काल से चली आ रही है . जब इसका बनना –बिगड़ना माना जाता है, तब उसके बनाने-बिगाड़ने वाले से नकार नहीं किया जा सकता. निश्चित है कि मनुष्य इसके लिये सर्वथा असमर्थ है, साथ ही मनुष्य के प्रादुर्भाव से बहुत पूर्व सृष्टि-रचना हो चुकी होती है. इसकी जो रचना करता है, वही ईश्वर है. फिर सृष्टि के बनाने में ईश्वर का कोई अधिकार नहीं , यह कैसे कहा जा सकता है ?

मनुष्य सृष्टि का अंग है, यह कथन इस बात को स्पष्ट करता है कि सृष्टि-रचना पर मनुष्य का कोई अधिकार नहीं है. मनुष्य का एक भाग देह सृष्टि-रचना हो जाने पर अस्तित्व में आ सकता है, अन्यथा नहीं. आत्मा, जो शक्ति देह के अंदर बैठकर समस्त दैहिक क्रियाकलाप को प्रेरित करती है, उसका सब लौकिक व्यवहार इस स्थूल देह पर आश्रित रहता है. देह के सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंग आत्मा-सम्बन्धी किसी भी व्यवहार के लिये उपयोगी होते हैं. देह के उन अंगों –प्रत्यंगों की क्रिया एवं प्रतिक्रिया के विषय में उसी देह के अधिष्ठाता आत्मा को कुछ भी जानकारी नहीं होती. परन्तु वे सब क्रिया एवं प्रतिक्रिया किसी नियम, किसी व्यवस्था के अनुसार अपना कार्य बराबर किया करती हैं. यदि गम्भीरता से देह की इस आन्तरिक प्रक्रिया पर विचार किया जाए, तो इस परिणाम पर पहुँचने में कोई बाधा नहीं होगी कि देह के अधिष्ठाता आत्मा का इन प्रक्रियाओं पर न कोई नियन्त्रण है और न उनकी इसे जानकारी है. उस प्रक्रिया में कभी व्यतिक्रम होने लगता है , तो अधिष्ठाता आत्मा को अपनी बेचैनी और मजबूरी का अहसास अच्छी तरह हो जाता है. स्पष्ट है कि देह की इस आन्तर व्यवस्था का व्यवस्थापक-आत्मा से अन्य कोई तत्व होना चाहिये. यह स्तिथि हमारे सम्मुख इस रहस्य को खोल देती है कि ‘ मनुष्य का मस्तिष्क जिस काल में उसे जहाँ ले जाता है, वही विचार बना लेता है.’ इस कथन में कितना बल है.

इस बात को पहले स्पष्ट कर दिया गया है कि मनुष्य चाहे जिस काल में हो, अन्य के सहयोग के बिना ज्ञानवृद्धि में सर्वथा अक्षम रहता है. इसीलिए ऐसे समय में जब उसके लिये लौकिक उपदेष्टाओं की उपलब्धि सम्भव है , आलौकिक उपदेष्टा के द्वारा उसके लिये ज्ञानवृद्धि के साधनों का उपलब्ध कराना अत्यन्त आवश्यक एवं स्वाभाविक है. इसमें गडबड होना मनुष्य की सांसारिक यात्रा को उत्पथ बना देना है. फलतः सर्गादीकाल में ईश्वर द्वारा मनुष्य के लिये सन्मार्ग प्रदर्शित करने का विचार अबुद्धिमत्तापूर्ण नहीं है. ऐसे ही आधारों पर कहा गया है कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है, यह उसी की देन है.

ऐसे विषय इन्द्रियागोचर हैं. सप्रमाण कल्पनाओं एवं ऊहाओं के आधार पर विवेचना प्रस्तुत की जा सकती है. भावुकता को छोड़कर केवल सत्यान्वेषण की भावना से इन विषयों पर मनन किया जाये तो सच्चाई तक पहुँचने की सम्भावना रहती है. पाठकगणों से मेरा हार्दिक निवेदन है कि वे स्वयं इन विषयों पर सलंग्नता से मनन करेंगे , तो उन्हें अवश्य सत्य का प्रकाश मिलेगा.

(ये लेख आचार्य उदयवीर शास्त्री द्वारा लिखे गए एक निबंध, पत्राचार के आधार पर है)