शुक्रवार, 26 मार्च 2010

सत्य का निर्धारण कैसे हो (न्यायदर्शनम् भाग ३)

भाग ३ –

प्रमाण का दूसरा प्रकार है अनुमान. प्रत्यक्ष के अनंतर प्रत्यक्ष पूर्वक होने वाला (अर्थात प्रत्यक्ष है कारण जिसका) ३ प्रकार का अनुमान प्रमाण है – वे ३ प्रकार हैं पूर्ववत, शेषवत, और सामान्यतोदृष्ट. अनुमान में कोई साध्य, हेतु एवं उदाहरण आदि को प्रस्तुत कर – सिद्ध किया जाता है . यद्यपि अनुमान के प्रयोग में पञ्च अवयवों(वाक्य खण्डों) का प्रयोग किया जाता है , तथापि(फिर भी) महत्वपूर्ण अवयव साध्य सिद्धि के लिए ‘हेतु’ होता है, उसीको ‘साधन’ कहा जाता है. यह नाम ही उसके महत्त्व का द्योतक है.

प्रत्यक्ष एवं अनंतर अनुमान-काल में साधन का प्रत्यक्ष होना अभिप्रेत है. साध्य-साधन के परस्पर संबंध को ‘व्याप्ति’ कहा जाता है. अनुमान में सर्वप्रथम व्याप्ति का प्रत्यक्ष ज्ञान होना चाहिये. व्यक्ति देखता है जब लकड़ियों में आग जलाई जाती है , तो उससे धुआं अवश्य निकलता है, इससे वह जान लेता है धुंए का कारण आग है, धुँआ आग के बिना हो नहीं सकता.ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान ही ‘व्यप्तिज्ञान’ है.

हेतु, साधन, लिंग ये पद एक ही अर्थ को कहते हैं, इसी प्रकार साध्य, लिंगी ये पर्याय पद हैं. साध्य और साधन अथवा लिंगी और लिंग के संबंध का उक्त प्रकार प्रत्यक्ष हो जाने के अनंतर प्रत्यक्ष ज्ञान की स्तिथि तो नहीं रहती, उसका संस्कार आत्मा में रह जाता है. ऐसा व्यक्ति जिसने लिंग-लिंगी-सम्बन्ध का प्रत्यक्ष ज्ञान कर लिया है, कभी जंगल में चला जा रहा है उसे आग की आवश्यकता होती है. इधर उधर दृष्टिपात करता हुआ चल रहा है. एक जगह उसे धुँआ उठता दिखाई देता है. उसको देखते ही वह संस्कार जाग जाता है, जो पूर्व में हुए ज्ञान से आत्मा में हुआ था. संस्कार के जागते ही साध्य-साधन के सम्बन्ध का स्मरण हो आता है . उस समय धुंए के दीखने और साध्य-साधन के सम्बन्ध का स्मरण हो आने से उस व्यक्ति को वहां अग्नि का ज्ञान हो जाता है. अनुमान-प्रमाण से हुआ यह ज्ञान अनुमिति–ज्ञान कहा जाता है.

अनुमान के पांच अवयव-

१.) सामने जगह आग वाली है. यहाँ आग साध्य है, प्रदेश (जगह) अधिकरण है. साध्य के अधिकरण को तार्किक भाषा में ‘पक्ष’ कहा जाता है . अनुमान के पांच अवयवों में यह प्रतिज्ञा वाक्य है .

२.) वहां धुआं दिखने से यह हेतुवाक्य है .

३.) जैसे लकड़ियों को जलाने में , यह दृष्टान्तवाक्य है .

४.) वैसा ही यहाँ है , अर्थात सामने धुंआ दिख रहा है. यह उपनय वाक्य कहा जाता है .

५) धुआं वाला होने से यह प्रदेश(जगह) अवश्य आग वाला है. यह निगमनवाक्य है .

इस स्मृति का मूल वह प्रत्यक्ष ज्ञान है, जो प्रथम लकड़ियों के ढेर आदि में साध्य-साधन सम्बन्ध का व्यक्ति को साक्षात् होता है . कोई अनुमान इसके बिना हो नहीं सकता , इसीलिए अनुमान के लक्षण में प्रत्यक्षपूर्वक्ता का प्राधान्य होता है .

अनुमान के ३ भेद – अनुमान –प्रमाण विशिष्ट वाक्य प्रयोगों द्वारा किसी अदृष्ट अर्थ को जानलेने-समझने की एक पद्धति है. ऐसे कतिपय आधारों पर अनुमान ३ प्रकार का होता है – पूर्ववत , शेषवत सामान्यतोदृष्ट.

पूर्ववत्- जहाँ कारण से कार्य का अनुमान हो, अनुमान का यह प्रकार पूर्ववत् कहलाता है.

उदाहरण –जैसे उमड़ते-घुमड़ते बदलो को देख कर यह अनुमान हो जाता है कि अभी भविष्य में वर्षा होने वाली है. यहाँ उन्नत-मेघ कारण और वर्षा कार्य है . कार्योन्मुख कारण से होने वाले कार्य का अनुमान हो जाता है .

शेषवत्- पूर्व विद्यमान कारण की अपेक्षा से कार्य शेष समझा जाता है . अतः यह यह शेष पद कार्य का बोध कराता है . अर्थ हुआ कार्य वाला , वह कारण होगा . तात्पर्य है –जहाँ कार्य से कारण का अनुमान हो.

उदाहरण – साधारण जल प्रवाह के विपरीत नदी का पानी बहुत चड़ आया है, प्रवाह बहुत तीव्र है , जल, मिटटी , सूखे पत्ते ,कूड़ा-कबाड़ अदि मिला बहुत मलिन है , कभी पेड़ व झाड़-झंखाड़ भी बहे चले आ रहे हैं; नदी के ऐसे प्रवाह से ऊपरी भागों में कहीं वृष्टि के होने का अनुमान होता है .नदिजल का वैसा प्रवाह कार्य तथा वृष्टिजल उसका कारण है . यहाँ कार्य से कारण का अनुमान होता है . धूम-कार्य से अग्नि-कारण का अनुमान भी इसका उदाहरण है.

सामान्यतोदृष्ट- विभिन्न प्रदेश में एकत्वेन द्रष्ट व्यक्ति या पदार्थ जहाँ अदृष्ट अर्थ का अनुमान कराता है, वह अनुमान का सामान्यतोद्रष्ट नामक तीसरा प्रकार है.

उदाहरण – गत वर्ष मैंने जिस देवदत्त को मुंबई में देखा था, वही आज दिल्ली में विद्यमान है . मुंबई में देखे देवदत्त का दिल्ली में दीखना -- हमारे लिए अदृष्ट – उसकी यात्रा का अनुमान कराता है . यात्रा के बिना ऐसा संभव ही नहीं है अतः कालान्तर से विभिन्न प्रदेश में किसी व्यक्ति या पदार्थ का दीखना उसकी यात्रा अथवा गति का अनुमान कराता है, जिसको अनुमाता ने देखा ही नहीं है .

पूर्ववत् अनुमान का अन्य विवरण- यह अनुमान भी २ प्रकार का होता है –एक समव्याप्तिक, दूसरा –विषमव्याप्तिक. पहला वह अनुमान होता है जहाँ साध्य और साधन दोनों एक दूसरे के साध्य व साधन हो सकें . तात्पर्य है , साध्य-साधन दोनों का परस्पर व्याप्य-व्यापकभाव हो, जैसे –‘उत्पतिमत्त्व’ (उत्पत्ति वाला) हेतु से घट (घड़ा) का अनित्यत्व सिद्ध किया जाता है –‘घटः अनित्यः, उत्पत्तिमत्त्व’ . यहाँ घट का अधिकरण अथवा पक्ष में अनित्यत्व साध्य है , उत्पत्तिमत्त्व हेतु है. इसकी व्याप्ति होगी-जो उत्पन्न होने वाला पदार्थ है , वह अनित्य होता है. इस प्रकार के कथन में व्याप्य का पहले और व्यापक का अनंतर कथन किया जाता है . यह एक व्यवस्था है –व्याप्ति के ऐसे निर्देश में हेतु अर्थात साधन व्याप्य और साध्य व्यापक होता है. इस उदाहरण में साध्य-साधन को परस्पर बदला जा सकता है. अर्थात जो पदार्थ अनित्य है, वह उत्पत्ति वाला होता है. इस प्रकार अनित्यत्व और उत्पत्तिमत्व दोनों धर्म सामान व्यप्तिवाले हैं. इनमें से प्रत्येक एक दूसरे का साध्य व साधन कहा जा सकता है . इसीलिए यह पूर्ववत् समव्याप्तिक अनुमान माना जायेगा.

यह स्तिथि धूम-अग्नि के उदाहरण में नहीं है. जहाँ आग है वहां धुंआ अवश्य होता है किन्तु जहाँ आग है , वहां धुंआ अवश्य होता है ऐसा निर्देश नहीं किया जा सकता. क्योंकि दहकते अंगारों में आग के रहते भी धुंआ नहीं रहता . इस कारण यह पूर्ववत् विषमव्याप्तिक अनुमान कहाता है.

शेषवत् का अन्य विवरण – इस पद का अर्थ है, परिशेष अर्थात बचा हुआ. किसी पदार्थ के स्वरुप का निर्णय करने के लिए , अन्य विविध पदार्थों से उसके भेद का उपपादन करने पर जो पदार्थ शेष रह जाता है; अर्थात जिसके साथ उसके भेद का वर्णन नहीं हुआ; वही स्वरूप उस पदार्थ को समझ लिया जाता है. जैसे किसी कार्य या द्रव्य के हमारे पास संभावित कारण उपलब्ध ५ कारणों में से एक है और हम ४ कारणों को असिद्ध प्रमाणित कर देते हैं तो शेष बचे हुए कारण को ही उसका कारण प्रमाणित माना जायेगा.

उदाहरण के तौर पर शब्द के स्वरूप का निर्णय करने के लिए प्रसंग चलाया – शब्द सत् अर्थात सत्ता वाला है, और अनित्य है, यह जानलेने पर इतना निश्चय हो जाता है कि शब्द न सामान्य (जातिरूप) हो सकता है , न विशेष और न समवाय . क्योंकि इन पदार्थों में न सत्ता जाति रहती है और न ये अनित्य हैं . इसीलिए शब्द सत्ता जाति वाला और अनित्य होने से सामान्य, विशेष, समवाय इन पदार्थों से अलग हो जाता है . अब सामान्य आदि से अतिरिक्त ३ पदार्थ और हैं –द्रव्य, गुण और कर्म . तब विवेचन करना होगा शब्द द्रव्य है, गुण है या कर्म है ?

ज्ञात हुआ –शब्द द्रव्य नहीं हो सकता , क्योंकि शब्द अनित्य है; जो अनित्य द्रव्य होते हैं , उनके समवायिकरण अनेक द्रव्य हुआ करते हैं . किसी भी अनित्य द्रव्य का समवायिकरण एक द्रव्य कभी नहीं होता . परन्तु शब्द का समवायिकरण केवल एक द्रव्य –आकाश है . अतः शब्द का द्रव्य माना जाना संभव नहीं .

शब्द कर्म पदार्थ के वर्ग में भी नहीं आता , क्योंकि कर्म कभी दूसरे कर्म का कारण नहीं होता ; अर्थात कर्म किसी अन्य कर्म को कभी उत्पन्न नहीं करता . इसके विपरीत शब्द अन्य शब्द का उत्पादक होता है . वक्ता के मुख से उच्चारित शब्द , श्रोता के श्रोतेंद्रिय तक शब्द-संतति द्वारा पहुँचता है . मुखोच्चारित प्रथम शब्द से समानजातीय शब्द आगे-२ उत्पन्न होते जाते हैं , और वह ध्वनि इस प्रकार श्रोत्र तक पहुँच जाति है . अतः शब्द, शब्दान्तर का हेतु होने से कर्म के वर्ग में समावेश नहीं हो पाता . इस प्रकार द्रव्यादी पांच पदार्थों से अतिरिक्त केवल एक पदार्थ शेष रह जाता है . उस वर्ग में असमावेश के लिए कोई हेतु न होने के कारण शब्द का समावेश गुण वर्ग में मान लिया जाता है . इस परिशेष अनुमान के आधार पर शब्द का गुण होना निश्चित हो जाता है .

किसी पदार्थ का स्वरुप क्या -२ हो सकता है उसको भी सिद्ध किया जा सकता है किन्तु उक्त उदाहरण में वो स्वरुप को सिद्ध मान कर विवेचन किया गया है. तार्किकता से प्रमाणों के आधार पर शब्द पञ्च भूतों में से आकाश का गुण होता है . यहाँ केवल उदाहरण के लिए संक्षिप्त में लिखा है .

क्रमशः

रविवार, 7 मार्च 2010

सत्य का निर्धारण कैसे हो (न्यायदर्शनम् भाग २)

पिछले भाग में मैंने उन १६ विद्याओं का केवल बहुत ही संक्षिप्त में परिचय कराया था और प्रमाण से लेकर निर्णय तक का क्रम रखा था। अब मैं यहाँ इन सब के बारे में थोड़ा खोल कर और आवश्यकता पड़ी तो उदाहरण के साथ समझाता हूँ। मैं फिर से ये बात दोहरा रहा हूँ कि जब आप इन सब के बारे में जानेंगे तो वास्तव में न केवल अध्यात्मिक जगत में बल्कि व्यवहारिक जीवन में भी सही निर्णय लेने में अपने आप को सक्षम पाएंगे। मैं इन विद्याओं के बारे में समझाने के पश्चात जो भी आगे लेख लिखूंगा उनको ढंग से समझने के लिए इनको समझना आवश्यक है। उदाहरण के तौर पर ईश्वर-सिद्धि, शाकाहार-मांसाहार, पुनर्जन्म आदि अनेक विवादस्पद विषयों के समझाने में इनका समझना आवश्यक है। इसीलिए इनको समझने का प्रयास करिये।

प्रमाण : कोई पदार्थ जिस साधन द्वारा जाना जाता है या निश्चय किया जाता है, उसे प्रमाण कहते हैं अर्थात ज्ञान का जो करण-साधन है, वह प्रमाण है। प्रमाण ४ हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। इन सब प्रमाणों में प्रधान होने से प्रत्यक्ष का सर्वप्रथम उल्लेख हुआ है। अन्य प्रमाणों द्वारा पदार्थ के जान लेने पर भी उस विषय की कुछ जिज्ञासा बनी रहती है; किन्तु प्रत्यक्ष के जान लेने पर वह समाप्त हो जाती है, यही प्रत्यक्ष की प्रधानता का स्वरुप है। अनुमान के प्रत्यक्ष-पूर्वक होने से प्रत्यक्ष के अनंतर अनुमान का पाठ है। इसका क्षेत्र त्रैकालिक होने से यह अन्य प्रमाणों से पहले पढ़ा जाता है। अनुमान के समान होने, तथा विषय के प्रत्यक्ष होने पर इस प्रमाण की प्रवृत्ति का अवसर आने से अनुमान के अनंतर उपमान है। शब्द प्रमाण की प्रवृत्ति में प्रत्यक्ष व् अनुमान यथाप्रसंग अपेक्षित रहते हैं, अतः अंत में शब्द का उल्लेख आता है। शब्द का विषय प्रायः अतीन्द्रिय रहता है; यह भी कारण है अंत में इसको पढ़े जाने का।

जिज्ञासा: क्या किसी विषय को जानने के लिए चारों प्रमाण सम्मलित रूप से अपेक्षित होते हैं? अथवा एक प्रमाण द्वारा प्रत्येक प्रमेय को जानलेना अपेक्षित रहता है? तात्पर्य है किसी प्रमेय में चारों प्रमाणों की प्रवृत्ति होती है अथवा एक की?

समाधान: प्रमेय में प्रमाण की प्रवृत्ति के दोनों प्रकार देखे जाते हैं। कहीं एक प्रमेय में अनेक प्रमाणों की प्रवृत्ति होती है, तथा किसी विषय में एक प्रमाण का प्रवृत्त होना संभव रहता है।

उदाहरण: तिरोहित अप्रत्यक्ष अग्नि का किसी आप्त (विद्वान, ज्ञानी, सत्य वचन बोलने वाला जिसने उस अग्नि को प्रत्यक्ष जाना है) के निर्देश से शब्दप्रमाण द्वारा बोध हो जाता है। जब व्यक्ति उस और जाने लगता है, और कुछ समीप पंहुच जाता है तब अग्नि के तिरोहित रहने पर भी उसमें से उठता हुआ धुँआ दिखाई देता है। तब धूम को देखकर अग्नि का अनुमान हो जाता है। उसी प्रकार अग्नि के समीप जाकर उसका प्रत्यक्ष हो जाता है। यह प्रमाणों का ‘अभिसंप्लव’ है, एक प्रमेय को जानने में एकाधिक प्रमाणों का प्रवृत्त होना।

इसी प्रकार जब हमारी हथेली पर एक फल अथवा कोई अन्य द्रश्य पदार्थ रखा रहता है, उस समय स्पष्ट हम उसका केवल प्रत्यक्ष करते हैं; न वहां अनुमान प्रवृत्त है और न शब्द। ऐसे स्थलों पर केवल एक प्रमाण की प्रवृत्ति देखि जाती है। इस प्रकार ये प्रमाण अकेले या मिलकर अर्थज्ञान के साधन होते हैं। सर्वप्रथम प्रत्यक्ष प्रमाण के शुद्ध रूप को ढंग से समझना अति आवश्यक है उसी से चारों प्रमाण और अन्य तथ्य भी आसानी से जल्दी समझ में आ जायेंगे इसीलिए मैं यहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण को संक्षिप्त में समझाने का प्रयास कर रहा हूँ शायद आपको यह दीर्घ लगे किन्तु मैं यहाँ काफी केवल मुख्य-२ बातें ही रख रहा हूँ। हाँ यदि किसी जिज्ञासु के मन में इसको पढ़ कर कोई विषयानुरूप तार्किक प्रश्न आता है तो मैं उसको टिप्पणी द्वारा या आगे के भागो में समाधान लिख दूंगा।

प्रत्यक्ष प्रमाण: वह ज्ञान प्रत्यक्ष है, जो इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष द्वारा उत्पन्न होता है; परन्तु वह अव्यप्देश्यम्, अव्यभिचारी, और व्य्वासयात्मक होना चाहिए। प्रत्यक्षज्ञान के स्वरूप को स्पष्टरूप में समझने की भावना से ३ विशेषण पद होते हैं जो निम्न प्रकार हैं।

अव्यपदेश्य-विशेषण: व्यपदेश्य का अर्थ है –कथन करना, शब्द द्वारा किसी अर्थ का बोध कराना इसीलिए यहाँ अभिप्रायः वह प्रत्यक्ष ज्ञान अभीष्ट है, जो ‘अव्यपदेश्य’ हो, अर्थात शब्द द्वारा जिसको बोध न कराया जा सके।

उदाहरण: एक व्यक्ति पेड़ा, बर्फी या रसगुल्ला खाता है। खाने पर जिसका वह अनुभव करता है, उसके लिए साधारण शब्द है --रस, और विशेष है -- मधुर रस। परन्तु प्रत्येक वस्तु के माधुर्य में परस्पर अंतर रहता है, भोक्ता व्यक्ति उस अनुभूति के लिए जिन पदों –रस अथवा मधुररस—का प्रयोग करता है, उससे अन्य किसी श्रोता व्यक्ति को उस माधुर्य का बोध का अर्थात अनुभूति नहीं करा सकता, और न ही वह उस माधुर्य के परस्पर अंतर का बोध करा सकता है। रस, मधुर रस, अथवा विभिन्न रस आदि पदों से जो बोध श्रोता को होता है, वह केवल शाब्दिक है ---शब्द्प्रमाणजन्य । मधुर पदार्थ और रसन-इन्द्रिय के सन्निकर्ष से जो ज्ञान का अनुभव होता है, वह उन शब्दों द्वारा उस श्रोता को होना संभव नहीं, जो शब्द भोक्ता अपने अनुभव को अभिव्यक्त करने के लिए बोलता है । इसी कारण भोक्ता का वह प्रत्यक्ष ज्ञान अव्यपदेश्य है; शब्द द्वारा अबोध्य । यदि वह शब्द द्वारा बोध्य हुआ करता तो ‘मधुर’ शब्द द्वारा माधुर्यशब्द की अनुभूति हो जाया करती। फलतः इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से जो ज्ञान भोक्ता-प्रमाता को होता है वह शब्द-निरपेक्ष है, अतः अव्यपदेश्य है। जो व्यपदेश्य है, वह शब्द ज्ञान है, प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं। इस मान्यता में यह परिस्तिथि सुस्पष्ट प्रमाण है – यदि किसी वस्तु के वाचक शब्दों को न जानने वाले और जाननेवाले दोनों व्यक्तियों को मधुर आदि पदार्थ का उपभोग कराया जाये, तो उस रस की अनुभूति में कोई अंतर न होगा। इससे स्पष्ट है इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्य वस्तु ज्ञान में शब्द की अपेक्षा नहीं होती इसीलिए वह ज्ञान शब्द द्वारा बोध्य नहीं। उस अर्थज्ञान के वाचक शब्द का कोई उपयोग नहीं होता। केवल बाह्य व्यवहार के लिये शब्द और अर्थ के वाचक –वाच्य सम्बन्ध को जानना आवश्यक है । यहाँ रहस्य यह है , कि उस अनुभुत्यात्मक अर्थज्ञान का – जो इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से उत्पन्न होता है – कोई ऐसा वाचक शब्द नहीं है, जिससे उसका तद्रूप बोध कराया जा सके। परन्तु किसी न किसी रूप में बोध कराये बिना लोकव्यवहार चल नहीं सकता । अतः अर्थ के लिए संज्ञा शब्द अथवा वाचक शब्द नियत हैं।

अव्यभिचारी विशेषण – प्रत्यक्ष ज्ञान का दूसरा विशेषण है –‘अव्यभिचारि’। अन्य पदार्थ में अन्य का ज्ञान होना व्यभिचारी ज्ञान कहलाता है। इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान , वही प्रत्यक्ष ज्ञान माना जाता है जो व्यभिचारी न हो।

उदाहरण: सांयकाल झुटपुटा होने पर मार्ग में पड़ी टेड़ी-मेंडी रस्सी को देखकर पथिक भय के वातावरण में सांप समझ लेते है। यह ज्ञान इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष से अवश्य होता है ; परन्तु उपयुक्त प्रकाश न होने और भय की भावना उभरने के कारण रस्सी में सांप का ज्ञान व्यभिचारी है। ऐसा ज्ञान उपयुक्त प्रकाश में भय की आशंका न रहने से नष्ट हो जाता है । तब वहां ‘यह रस्सी है’ ऐसा अव्यभिचारी ज्ञान प्रत्यक्ष माना जाता है। मृग-मरीचिका में भी व्यक्ति को व्यभिचारी प्रत्यक्ष ज्ञान अमान्य होता है किन्तु पास जाकर ‘यहाँ जल नहीं है’ ऐसा अव्यभिचारी प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। यदि उक्त ज्ञान का विशेषण अव्यभिचारी न रखा जाता तो व्यभिचारी-ज्ञान को भी प्रत्यक्ष माना जाता ; तब यथार्थ में उस वस्तु के वहां न मिलने पर प्रत्यक्ष प्रमाण का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता। प्रमाणों में प्रत्यक्ष को महत्व इसी आधार पर दिया जाता है कि प्रत्यक्ष द्वारा वस्तु का ज्ञान हो जाने पर उसमें आगे किसी प्रकार का संदेह या न्यूनता का अवकाश नहीं रहता , जो व्यभिचारी ज्ञान में संभव नहीं है।

व्य्वसायात्मक विशेषण: प्रत्यक्ष का तीसरा विशेषण है ---‘व्य्वसायात्मक’ । यहाँ व्यवसाय का अर्थ है – क्रिया का पूर्ण रूप से संपन्न हो जाना। ज्ञान के विषय में क्रिया की सम्पन्नता निश्चय पर होती है। अतः निश्चय, अवधारण, निर्धारण यहाँ व्यवसाय का अर्थ है।यद्यपि ‘व्यवसाय’ पद का प्रयोग विभिन्न प्रसंगों के अनुसार अनेक अर्थों में होता है , पर यहाँ उसका अर्थ केवल निश्चय है; ज्ञान का सर्वथा संदेह रहित होना। इस प्रकार व्य्वसायात्मक पद का अर्थ है निश्चयात्मक। जो ज्ञान निश्चय के स्तर पर पंहुच जाता है , उसी को प्रत्यक्ष कहते हैं।

उदाहरण: एक व्यक्ति मार्ग पर चला जा रहा है। दूर जाना था , साथ में दाल-चावल बंधे हैं । भूख उभर आई है; सोचता है , कहीं आग मिल जाती तो इन्हें पकाकर खा लिया जाता , क्षुदा निवृत्त हो जाती। इतने में एक ओर वह कुछ धुंद सा उठता हुआ देखता है। उसे देख कर वह दुविधा में पड़ जाता है कि क्या यह धुआं है , या धूल उड़ रही है ? ऐसा ज्ञान इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्य होने पर भी व्य्वसायात्मक नहीं है , संशयात्मक है ; अतः यह प्रत्यक्ष नहीं माना जायेगा।

जिज्ञासा: व्य्वसायात्मक ओर अव्यभिचारी में क्या अंतर है और व्य्वसायात्मक विशेषण आवश्यक क्यों है?

समाधान: व्यभिचारी में पुरुष निश्चय कर लेता है किन्तु उपयुक्त प्रकाश होने पर या पास जाकर इत्यादि क्रियाओं के पश्चात उसको यथार्थ बोध अर्थात अव्यभिचारी ज्ञान होता है जबकि संशयात्मक में वह निश्चय नहीं कर पाता है और संशय में पड़ जाता है अर्थात उसको व्य्वसायात्मक ज्ञान जब तक नहीं होता वह प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं माना जा सकता।

व्य्वसायात्मक ज्ञान इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्य होता है । इससे यह न समझना चाहिए कि जो ज्ञान आत्मनःसन्निकर्षजन्य है, वह अनवधारणात्मक –अनिश्चयात्मक होता है ; प्रत्युत्त चक्षु (नेत्र, आँख) से देखे जाते हुए पदार्थ का भी दृष्टा कभी-२ निश्चय नहीं कर पाता। जैसे चक्षु द्वारा अवधारण किये अर्थ का मन से अवधारण होता है ; ऐसे ही चक्षु से अनवधारण किये अर्थ का मन से अनवधारण होता है , इन्द्रिय से जैसा अनवधारणात्मक मनन होगा , मन से वैसा ही अनवधारणात्मक मनन होगा। ऐसी दशा में जब वहां विशेष धर्म जानने की अपेक्षा रहती है , तभी वह संशय का स्वरुप बनता है; उसे प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता । फलतः जो यह समझता है कि इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्य ज्ञान निश्चयात्मक ही होता है और व्य्वसायात्मक विशेषण अनावश्यक है , ऐसा समझना सर्वथा असंगत होगा।

क्रमशः

शनिवार, 6 मार्च 2010

सत्य का निर्धारण कैसे हो (न्यायदर्शनम् भाग १)

ऐसा लगता है इन्टरनेट पर भी कोई भी व्यक्ति कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र है चाहे वो सत्य हो या असत्य, तार्किक हो या अतार्किक। इस बात से बहुत से पाठक धुर्त और मुर्ख लोगो के असत्य के जाल में फंस जाते हैं जिस से सत्य की हानि होती है। नैट पर लोगो द्वारा छलना और छला जाना एक आम बात है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए सत्य और असत्य का निर्धारण कैसे हो मैं यहाँ इस लेख में कुछ तथ्यों को रखूंगा जो अध्यात्मिक सत्य को जांचने के साथ-२ आम जीवन के भी असत्य प्रलापों और धोखा-धड़ी को समझने में लोगो कि सहायता करेंगे। पाठकगण कृपया इन तथ्यों पर चिंतन करके अपनी आत्मनुभूति या अंतर्द्रष्टि से विवेकपूर्ण होकर किसी भी लेख का विवेचन करें और तभी उसके पश्चात कोई निर्णय लें। यह लेख समस्त मानवजाति के लिए आर्य हिंदू वैदिक सनातन धर्म के उस न्यायदर्शनम् के अनुरूप है जिसके रचियेता आदि विद्वान परमर्षि गौतम मुनि हैं । भारतीय वैदिक दर्शनों में गौतमीय न्याय दर्शन अर्थ-तत्व को समझने की प्रक्रियाओं का सर्वांगपूर्ण विवरण प्रस्तुत करता है।यह विवरण इतना वस्तुनिष्ठ है कि प्रारंभ से लेकर विचार के अंतिम स्तर तक इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। सभी वैदिक-अवैदिक दर्शनों को अपने मान्य सिद्धांत प्रस्तुत करते समय इस पद्दति का प्रयोग करना अपेक्षित होता है। वैसे तो न्याय-दर्शन का विषय अत्यंत दीर्घ आध्यत्मिक है किन्तु सामान्यजनों को जितना कम से कम तो जानना ही चाहिए उतना ही मैं यहाँ वर्णन करने का प्रयास करूँगा । मेरे विचार से इस न्याय-दर्शन का लोगो को ज्ञान होना अति आवश्यक है। क्योंकिं इस व्यभिचारी युग में छल अपने परमरूप में विद्यमान है जिसको समझने और लोगो को समझाने के लिए न्याय-दर्शन का ज्ञान अति-महत्त्वपूर्ण हो जाता है। लेख में मैं मन्त्र या सूक्त नहीं लिख रहा हूँ और मैं यहाँ प्रयास करूँगा जितना हो सकेगा इन तत्वों का विवेचन संक्षिप्त कर सकूं फिर भी जहाँ कुछ समझने के लिए अधिक आवश्यक होगा वहां पर थोड़ा विस्तृत हो सकता है।

किसी बात की सत्यता प्रमाण द्वारा होती है। प्रमाण प्रत्येक पदार्थ के ज्ञान का साधन है चाहे वो जीवन में प्रयुक्त होने वाले आम पदार्थ हों, कोई वाक्य हो, कोई विचार हो, आत्मतत्व हो या ईश्वर तत्व हो सभी के ज्ञान में प्रमाण आवश्यक है अन्यथा किसी विवेकशील व्यक्ति को संतुष्टि नहीं मिलती। जो पदार्थ प्रमाण से जाना जाता है वह सब प्रमेय कहा जाता है। प्रमाण की प्रवृत्ति प्रमेय में तभी होती है जब संशय अंकुरित होता है। अतः प्रमेय के अनंतर संशय आता है। संशय तभी जागृत होता है , जब व्यक्ति किसी विशिष्ट उद्देश्य से कहीं प्रवृत्त होना चाहता है अथवा उसका कोई प्रयोजन होता है। विशिष्ट प्रयोजन पहले किसी अनुकूल अनुभव के आधार पर उभरता है वो अनुकूल अनुभव दृष्टान्त कहा जाता है। उसके बल पर ही सिद्धांत प्रकाश में आता है। यह सब खेल जिन पर अवलंबित है वे अवयव कहलाते हैं उनके प्रसंग में उहापोह द्वारा कोई निर्णय निखार में आता है अर्थात तर्क और निर्णय आते हैं।

इस प्रकार के कथनोपकथन केवल ३ विद्याओं में संभव हैं, वो ३ विद्याएँ हैं वाद, जल्प और वितण्डा। इन विद्याओं में उत्तर की अपेक्षा पूर्व-२ (पहले आने वाले) श्रेष्ठ हैं अर्थात वितण्डा से श्रेष्ट जल्प है और सर्वश्रेष्ट वाद है। किसी बहस या चर्चाओं में दब आने पर व्यक्ति अपनी खाल को बचने के लिए दूषित प्रयोग करता है। ये दूषित प्रयोग भी ४ प्रकार के होते हैं, जिनको हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान पदों से अभिव्यक्त करते हैं। इनमें भी दूषण की द्रष्टि से पूर्व की अपेक्षा उतरोत्तर (बाद में आने वाले) निकृष्ट है अर्थात निग्रहस्थान सर्व-निकृष्ट है। सत्य-असत्य को जानने समझने के लिए इन १६ विद्याओं का जानना आवश्यक है। इस प्रकार ये सब विद्याएं सब धर्मों का आश्रय हैं।

क्रमशः