दोस्तो अभी हाल ही में मैंने दयानंद सरस्वती जी कृत सत्यार्थ प्रकाश पढ़ी तो मेरी आँखे खुली की क्यों पिछले १००० वर्षो से दुनिया ने हम पर इतने आक्रमण किए और बहुत सारे उनमें निष्फल और काफी सफल भी हुए। दुर्भाग्य से ज्यादातर हम केवल सफल आक्रमणकारियों से परिचित हैं और उनके गुणगान में बहुत कुछ अपनी किताबो में पढ़ा करते हैं लकिन बहुत से लोगो को ये मालूम नही होगा कि उनसे भी ज्यादा आक्रमणकारीनिष्फल हुए थे। खैर मैं कुछ और बताने के लिये लिखने बैठा हूँ और कहीं विषय से भटक ना जाऊं वापिस वहीं पर आता हूँ क्यों वो सफल हुए उसका कारण है हमारा अपनी मूल धारा से अलग हट कर सैंकडो धाराओं में बट जाना। अनादिकाल में इश्वर ने स्रष्टि रची और उसके पश्चात न जाने कब मनुष्य की सरंचना की और उनमें से कुछ के अंदर वेदों के स्वरूप में ज्ञान प्रकाशित और परिभाषित किया। अब बहुत से लोगो को ये बात बिल्कुल नही पची होगी किंतु ये परमसत्य है और साक्षात् है अगर विश्वास नही होता तो पहले वेदों को पढो तब विचार विमर्श करो और ये बात अवश्य याद रखो की वेद अपने यथासंभव मूल स्वरूप में होने चाहियें। मैं थोड़ा सा आपको इसको खोल कर समझाता हूँ। मैं भारतीयों का मूल धारा से हटकर विभाजित होने की बात कर रहा था तो वो ये है की काफी लंबे समय से काफी सारे धुर्तो ने वेदों की बुराई करके या ग़लत कामो को ये कहकर के कि ये वेदों में लिखा है या मुर्खता से कुछ मंत्रों और शब्दों का ग़लत मतलब लगा करके लोगो को बहकाया है और कुछ अपने पास से मन-घढ कर के ये कहा कि फलाने ऋषि ने लिखा है। इससे लोग उनके झासे में आकर के तरह-तरह के सैंकडो सम्प्रदायों में बट गए जैसे कि शैव, वैष्णव, जैन ,गोसाई , बोद्ध,निकृष्ट वाम-मार्गी, ब्रह्म समाज , प्रार्थना समाज और भी पता नहीं बहुत सारे हैं (इसाई, मुस्लिम की तो यहाँ पर चर्चा करना ही व्यर्थ है और ये सभी मत तो भारत वर्ष में बाहर से आक्रमणकारियों के कारण आए हैं।) और सब के अपने-अपने मत हैं और सब कहते हैं कि हमारे शिष्य बन जाओ अगर अपना भला चाहते हो। वेदानुसार जोकि परम सत्य है इश्वर निराकार ब्रह्म सचिदानान्द्स्वरूप नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव अज निरंजन निर्विकार सर्वान्तर्यामिन सर्वाधार जगत्पते सकलजगदुत्पादक अनादे विश्वम्भर सर्वव्यापिन करुणामृतवारिधे अनादी अनंत है और जिसके हम वैभव को अपने अन्दर आत्मसात करके परमानन्द का अनुभव करते हुए दुखो से दूर जीवन के भव सागर को तर जाते हैं। जिसकी शब्दों से व्याखा भी नहीं की जा सकती सिर्फ़ उसके थोड़े से वैभव को दर्शा सकते हैं उसको अनुभव किया जा सकता है केवल प्राणायाम, ध्यान और समाधि के माध्यम से उसमें सब व्याप्त हैं वह अनादी है अनंत है। शिव, विष्णु , ब्रह्म, महेश और भी काफ़ी सारे नाम इश्वर के वेदों में वर्णित हैं पर ये सब इश्वर की व्याखा और उसके वैभव को दर्शाने के लिये व्यक्त किए गए हैं ना कि ये कोई इंसान और मनुष्याकृति के नाम हैं। ये सब संस्कृत की अपनी-अपनी धातुओं से अलग-अलग अर्थ रखते हैं। जैसे उदाहरण के तौर पर इश्वर शिव है क्योंकि वो ही स्रष्टि का सहारंक है इश्वर इस स्रष्टि का पालनकर्ता है इसलिए उसको विष्णु बोला गया है उत्पत्ति कारक है इसलिए ब्रह्म बोला गया है विद्या और ज्ञान का देने वाला है इसलिए सरस्वती है इसी प्रकार तरह-तरह से उसको अलग-अलग नामो से संबोधित किया है और उसमें न केवल समस्त पृथ्वी वरन समस्त ब्रह्माण्ड के सुख की बात लिखी गई हैं अध्यात्म, पदार्थ विज्ञान, वनस्पति, जीव और सभी प्रकार के विज्ञानों का उसमे विस्तार से वर्णन है कोई भी विज्ञान वेदों से अछूता नही है। वेदों के आगे समस्त आधुनिक विज्ञान न्यून स्वरूप हैं। ये कोई बेवकूफी भरी रिलिजिअस या मजहबी पुस्तके नही हैं ये ऐसे ज्ञान के भंडार हैं जो समस्त मानव कल्याण और ब्रह्माण्ड की बातें करते हैं इनमे कोई भी संकीर्णता भरी बातें नही हैं ये सनातन धर्म जो मानव के साथ अनादी काल से चला आ रहा है उसको वर्णित करते हैं। आज दुनिया वेदविरुद्ध हो जाने के कारण ही आपस में लड़ रही है क्योंकि उन्हें मानवता के मूलभूत तत्व आदर-सत्कार, जीवन-दर्शन, समाज-दर्शन, उचित भोजन, परिवार, ब्रह्मचर्य आदि ... जैसे मनुष्य जीवन के आवश्यक तत्वों का बोध भी नही है। भारत कि जनता पिछले १००० वर्षो से वेद विरुद्ध हो जाने के कारण ही खण्डित हो कर के अधर्मियो से हार का दंश झेल रही है। गीता में वेदों के मंत्रों की ही श्रीकृष्ण ने व्याखा कि है और उसमें गहन अध्यात्म विज्ञान के साथ-साथ अधर्मियो का सर्वनाश करने के लिये बोला है जिसका अब कोई पालन नही करता है। बल्कि उसका भी ग़लत अर्थ करके लोगो को समझाया जाता है जैसे गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को अधर्मियो को सर्वनाश करने के लिये कहते हैं चाहे वो तुमाहरे सगे-सम्बन्धी ही क्यों न हो अगर वो अधर्म का साथ देते हैं तो उनका साथ ना देकर के उनके विरुद्ध युद्ध करो आजकल के गुरु ये कहते हैं अर्जुन तेरा मन है और कृष्ण तेरा विवेक और इस विवेक से अपने अंदर के अधर्म को नष्ट करना है ओर कृष्ण अर्जुन इसके अलावा कुछ भी नही हैं ऐसे उपदेश सुन कर कुछ लोग कायरता का बर्ताव करने लगते हैं जबकि वेदों में क्षत्रियों को धर्म और मानव कल्याण के लिये अधर्मियो का सर्वनाश करने के लिये बोला गया है अब इस बात को समझाने के लिये अपने इतिहास को झूठा क्यो साबित करने पर तुले हैं। हम कब कहते हैं की अन्दर का अधर्म नष्ट नही होना चाहिए समझाने के तौर पर इस तरह के गुरु इतिहास को क्यों नकारते हैं जबकि श्रीकृष्ण श्रीराम अर्जुन आदि सभी हम आर्यों के गौरवशाली इतिहास हैं इस काम के लिये तो हमारी सरकार ही काफ़ी है अब ये ढोंगी भी करने लगे एसे लोगो ने लोगो को कायर बनाने का ठेका लिया हुआ है। मैं दयानंद सरस्वती की १-२ बातो को छोड़ कर अधिकतर में एकमत हूँ। मैंने इस किताब के साथ-२ शंकराचार्य कृत विवेकचूडामणि भी पढी है वो भी वेदों की ही व्याखा करते हैं लकिन शंकराचार्य अद्वैत वादी हैं और दयानंद सरस्वती द्वैत वाद के प्रबल समर्थक हैं। आधुनिक काल में इन दोनों ने ही देश की काफी जनता को ढोंगियों से बचाने का उत्तम कार्य किया है। ये एक बहुत दीर्घ और गहन विषय है अभी के लिये इतना ही काफ़ी है आगे भविष्य में और सभी विषयों के बीच-बीच में आप लोगो को इनके और वेदों के महान विज्ञान विचारों से परिचित कराया करूंगा।
शुभकामनाओ सहित
आपका मित्र सौरभ
2 टिप्पणियां:
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