बुधवार, 19 नवंबर 2008
तंत्र - अविद्या
शनिवार, 1 नवंबर 2008
वैदिक या सनातन मत (हिंदू)
क्या सत्य है और क्या असत्य इस बात का प्रमाण क्या हो जैसे कहीं ये लिखा है या कोई कहता है अग्नि में उष्णता नही होती तो उसकी बात का प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर खंडन हो सकता है. किसी भी पुस्तक या किसी भी मनुष्य के वचनों पर बिना प्रमाण के विश्वास नही किया जा सकता इसलिए भारतीय दर्शन वेदोक्त मत में सभी शास्त्र अपनी बातो को बड़ी बुद्धिमत्ता के साथ प्रमाणित करते हैं। मुख्यतः ३ प्रकार के प्रमाण है - प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द जिनको सभी वेदांत शास्त्र स्वीकारते हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण अनुसार जो हम ज्ञानेन्द्रियों से प्रत्यक्ष ग्रहण करते हैं जैसे की अग्नि में उष्णता होती है ये प्रत्यक्ष प्रमाण है और धुँए को देख कर कोई भी व्यक्ति अनुमान कर सकता है की निश्चित ही कहीं अग्नि लगी है ये अनुमान प्रमाण है क्योकि बिना अग्नि के धुआं नहीं उत्पन्न हो सकता और जो बात वेदों से या वेदानुसार आप्त ग्रंथों से प्रमाणित होती है वो शब्द प्रमाण के अंतर्गत आता है क्योंकि वेद अपोरुष्य या इश्वरकृत ज्ञान है जो स्वतः प्रमाणित है। वेद अपोरुष्य हैं इस बात को भी बहुत सारी बातो से प्रमाणित किया गया है किंतु यहाँ इस विषय पर अधिक बात न करते हुए मैं यहाँ केवल एक बात कहना चाहता हूँ क्योंकि वेदों के बनाने वाले को किसी ने भी नहीं देखा है इस कारण वो अपोरुष्य कहलाते हैं और स्रष्टि के आरम्भ में इतना गूढ़ ज्ञान देने वाला कोई मनुष्य नही हो सकता इसलिए इनको इश्वरकृत बोला गया है। अब इसमें प्रश्न ये उठता है की मनुष्य ने स्वयम ज्ञान अर्जित करके ये पुस्तकें लिखी होंगी किंतु अगर ऐसा माना जाए तो आज भी भील या वनवासी लोग क्यों स्वतः ज्ञान अर्जित करके ज्ञानी नहीं बन पाये अभी तक और ये भी प्रत्यक्ष है बच्चे को यदि जानवरों के मध्य पाला जाए या उसको ज्ञान से वंचित रखा जाए तो वो जानवरों के सद्रश्य ही व्यवहार करेगा और ज्ञान से उपेक्षित ही रहेगा। इसी बात से बुद्धिमान मनुष्य को समझ में आ जाना चाहिए की बिना शिक्षा और ज्ञान दिए कोई भी मनुष्य स्वतः ज्ञान अर्जित नही करता हाँ वो बात अलग है की ज्ञान मिलने के पश्चात वो खोज-कार्य या अनुसंधान करने लगे। उदाहरण के तौर पर एक इंजिनियर बिना शिक्षित हुए नही बना जा सकता अब कुछ लोग बिना शिक्षित हुए ही बहुत से इंजीनियरिंग वाले कार्य कर लेते हैं तो मेरा मतलब केवल विद्यालय शिक्षा से ही नही है किसी भी प्रकार की शिक्षा से है उसका स्रोत कुछ भी हो सकता है जैसे किसी से सुनकर,कहीं पढ़कर या किसी को देख कर ही किसी विषय का प्रारंभिक ज्ञान होता है और फ़िर उसके पश्चात ही अनुसंधान कार्य होता है। इस बात को थोड़ा गहराई से समझिये ये प्रत्यक्ष प्रमाणित है। यदि आपके पास कोई ऐसा उदाहरण है जो इस बात को ग़लत सिद्ध करता है तो मुझे भी बताइए। अभी भी बहुत लोगो की शंका का निवारण नहीं हो पाया होगा किंतु वो भिन्न विषय है ओर जिसको शंका हो वो वाद-विवाद कर सकता है. यदि कोई वेदों को ईश्वरीय या अपोरुष्य पुस्तक माने या न माने वो अलग बात है किंतु ये तो निश्चित है वो ज्ञान का भण्डार हैं इस पर प्रायः सभी सनातनी एक मत हैं।
वेदों में आत्म ज्ञान, श्रष्टि-ज्ञान के साथ-साथ उपासना विधि, कर्मकांड विधि , गणित, ज्योतिष(नक्षत्र,ग्रह, तारों के बारे में न की फलित ज्योतिष जैसा की आज कल के ढोंगी लोग बताते हैं), प्रकाश, पदार्थ विज्ञान आदि के अलावा गुरुत्व ज्ञान, नौकाविज्ञान, विमान विद्या आदि समस्त प्रकार के ज्ञानो का उल्लेख है जो कि मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक हैं . इस बात को जान कर आपको आश्चर्य होगा कि परमाणु से लेकर ब्रह्माण्ड के विस्तार तक सभी विषय वेदों में वर्णित हैं. कला यंत्र (मशीन) आदि का भी वर्णन है. मैंने अभी हाल ही में एक पुस्तक और पढ़ी जिसका विषय १०८ उपनिषद है इस पुस्तक में १०८ उपनिषदों कि व्याखा है किंतु पुस्तक को पढने पर ज्ञात हुआ अधिकतर उपनिषद वास्तविक उपनिषद नहीं हैं सांप्रदायिक हैं क्युकी प्रमाण सिर्फ़ कुछ बातों को छोड़ कर एक का भी नही देते जैसे बहुत सारे उपनिषदों के अन्तिम में लिखा कि इस उपनिषद को पढ़ने से कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो सब पापो से मुक्त हो जाता है और भी बहुत स्थानों पर तर्कहीन अप्रमाणित बातें हैं और जो उनमें सही बातें हैं वो आप्तग्रंथो या वास्तविक उपनिषदों से उध्रत हैं तो उनमे शंका करने का प्रश्न ही नही होता. मेरा तात्पर्य प्राचीन ऋषियों और ब्रह्मवेत्ताओं द्वारा लिखित उपनिषदों के विरुद्ध बोलना नही है वो तो साक्षात् वेदों का ही ज्ञान व्याखित करते हैं मेरा विरोध उन साम्प्रदायिक लोगो के साम्प्रदायिक ग्रंथो से है जिसको वो उपनिषदों का नाम देकर जनता को भ्रम में डालते हैं. वास्तविक उपनिषद कितने हैं ये तो मुझे भी पता नही(प्रयत्नरत हूँ) पर इतना मुझे भरोसा हो गया है कि धूर्त लोगो ने यहाँ भी चालबाजी दिखाई है उपनिषदों को बदनाम करने के लिए और अपनी-अपनी दुकान चलाने के लिए.
वैदिक मतानुसार इस जगत में दो तत्त्व हैं एक दृश्य(जड़) और एक द्रष्टा(चेतन) जोकि अनादी और अंतरहित हैं और ये चेतन दो तरह का है एक जीवात्मा(द्रष्टा) और एक परमात्मा(सर्वद्रष्टा) किंतु हैं दोनों सजातीय, जीवात्मा अल्पज्ञ है और इस स्थूल शरीर की अधिष्ठाता है परमेश्वर सर्वज्ञ है और इस समस्त जगत और जीवात्माओं का भी अधिष्टाता है जिसके कारण यह समस्त जगत चेतनवत कार्य करता रहता है. बिना चेतन के कोई जड़ स्वयम चेष्टा नहीं कर सकता और बिना कारण के इस जगत में कोई वस्तु कार्य रूप में परिणित नहीं होती और कार्य रूप में परिणित होने से पहले अपने कारण रूप में विद्यमान रहती है और बाद में कारण में ही लीन हो जाती है. उदाहरण के तौर पर घट(घड़ा) का उपादान कारण मिटटी है और वो नष्ट हो कर अपने उपादान कारण(जिस से वो निर्मित हुआ अर्थात मिट्टी) उसी में लय हो जाता है पर वास्तव में कोई वस्तु नष्ट नही होती और उत्पन्न भी नही होती केवल उसका रूप परिवर्तन होता है उसीको यहाँ पर नष्ट या उत्पन्न बोला जा रहा है (न्यूटन, आइन्स्टीन आदि वैज्ञानिको ने ये सिद्दांत यहीं से लिये हैं) इस प्रकार यह जगत भी अपने उपादान कारण प्रकर्ति से निर्मित होता है और उसी में लय हो जाता है और फ़िर से उत्पन्न होता है और फ़िर अपने कारण निरवयव प्रकृति में चला जाता है इस प्रकार यह प्रक्रिया भी अनादी और अंतरहित है. इस जगत कि यह प्रक्रिया उस परमेश्वर के सानिध्य से ही सम्भव है क्युकी जगत तो जड़ होने के कारण स्वयम चेष्टा नहीं कर सकता वो तो परमपिता परमेश्वर सबके आधार वैश्वानर अनादी अनंत प्रभु से प्रेरणा लेकर ही सक्रिय रहता है इस बात को प्रत्यक्ष इस विचित्र जगत में हर जगह देखा जा सकता है कि कोई भी जड़ स्वतः कार्य नही करता चेतन तत्त्व के बिना. हम सभी जीवधारी उस परमात्मा के अंश नही है किंतु प्रथक हैं क्युकी हम मनुष्य परोपकारी, दयालू, बुद्धिमान,निर्दयी,मुर्ख, ज्ञानी, अज्ञानी, अल्पज्ञ, जीवित, मृत सभी प्रकार के होते हैं किंतु इश्वर सदा एक सा सर्वज्ञ, परोपकारी, और भी उसके जो-जो गुण वेदों में वर्णित हैं होता है उसमें आम मनुष्यों के दोष आरोपित नही किए जा सकते और उसको अव्यक्त और अचिन्त्य भी कहा जाता है क्युकी वो इन्द्रियों का विषय नही है. जब-जब आत्मा इश्वर के गुणों में वर्तति है और इश्वर के अनंत गुणों में विचरती है तब-तब उसको इश्वर के सानिध्य का परमानंद का अनुभव होने लगता है और सब दुखो से निवृत्ति होने लगती है और जब वो अपने मूल स्वरुप से साक्षात्कार करती है तो परमानन्द में रहते हुए इस विचित्र जगत के सभी रहस्य जान जाती है और जीवन-म्रत्यु के बंधन से भी स्रष्टि के दोबारा उत्पन्न होने तक मुक्ति पा लेती.
बहुत से विद्वान् (शंक्रचार्यकाल के पश्चात् आजकल अधिकतर) के अनुसार हम जीवधारी उस इश्वर के अंश हैं और उसीमें हम को लय हो जाना है और जीवन मृत्यु से सदा के लिए छुटकारा पाना हमारा उद्देश्य है. इनके अनुसार इस जगत का उपादान कारण भी स्वयं ब्रह्मा ही है जो स्वयम को जगत और जीवात्माओं में परिवर्तित करके अज्ञानतावश या अविवेक्तावश अपने को पहचान नही पाता मतलब मैं, तुम, हम और ये जगत स्वयम इश्वर है और हमें अपने अन्दर और सब में इश्वर खोजना चाहिए. और एक बहुत लोकप्रिय इनका द्रष्टान्त है कि जिस प्रकार हम अंधेरे में रज्जू(रस्सी) को सर्प समझ लेते हैं या समझकर भ्रमतावश डर जाते हैं पर वास्तव में वहां सर्प नहीं है उसी प्रकार यह जगत को हम अविवेकी होने के कारण अस्तित्व वाला समझते है पर वास्तव में वो है नहीं वो उस सर्प कि तरह मिथ्या है मतलब ये जगत वास्तव में उपस्थित प्रतीत होता है किंतु जब ज्ञान का प्रकाश होता है तब वह उस सर्प की भाती गायब हो जाता है. यह सिद्धांत निराधार है और तर्कहीन है क्युकी पहले तो इश्वर में हम अज्ञानता का दोष नहीं लगा सकते दूसरा यह जगत इस द्रष्टान्त से भी मिथ्या नहीं सिद्ध हो सकता क्युकी हम किसी वस्तु में किसी वस्तु का ज्ञान का भ्रम तभी कर सकते हैं जब उस कल्पित वस्तु का भी कहीं अस्तित्व होता है जैसे इस द्रष्टान्त में सर्प का भ्रम इसलिए है क्युकी सर्प भी इस जगत में विद्यमान है इसका मतलब ये जगत भी विद्यमान है. मोक्ष या निर्वाण जीवन मृत्यु से छुटकारा प्राप्त करके इश्वर का सानिध्य प्राप्त करना है किंतु स्रष्टि लय तक जीवात्मा मुक्त होती और फ़िर स्रष्टि उत्पन्न होने पर फ़िर से जन्म लेती है और ये चक्र सदा चलता है. जीवन-मृत्यु क्या है और क्यों होता है ये जगत किन तत्वों से मिल कर बना है और हम कौन हैं, परमेश्वर कौन है, परमानन्द क्या है, दुखो से निवृत्ति कैसे हो ऐसे ही अनेक प्रश्नों का उत्तर मिलता है वेदों और उपनिषद में. इसके साथ-२ सामान्य मनुष्यों के कार्यो और अनेक कर्मकांडों जोकि समस्त जीवधारियों के भले के लिए हैं वो भी वर्णित हैं. इस छोटे से लेख में सभी बातो का समावेश नहीं हो सकता तो फिलहाल के लिए इतना ही लिखता हूँ बाकी सब आगे बाद में.
शनिवार, 25 अक्टूबर 2008
दिग्भ्रमित भारतवासी
ऐसे बहुत सारे प्रश्नों का उत्तर बहुत सारे भारतीय अलग- अलग देंगे वो बात अलग है की बहुमत किसका है पर वास्तव में यक्ष प्रश्न ये है की ऐसा क्यों है इतने दिग्भ्रमित क्यों हैं सभी।
उत्तर है ग़लत शिक्षा और ग़लत शासन का परिणाम जो आज हम विभिन्न तरह की बातें करके दिग्भ्रमित हो चुके हैं. सर्वप्रथम हम देश के नाम से आरम्भ करते हैं हमारे देश का सबसे प्राचीन नाम आर्याव्रत है किंतु भारत वर्ष प्राचीन होने के साथ-२ अधिक प्रसिद्द है अतः आज हमारे देश का तर्कसंगत नाम नाम भारत वर्ष है. यूनानियों की वर्णमाला में स का उच्चारण न होने के कारण और सिन्धु नदी की प्रसिद्दी के कारण उन्होंने ही भारत को हिंदूवासी या हिन्दुस्तान नाम दिया. अंग्रेजो ने इसको इंडस वैली बोला और देश को इंडिया बोला. १९४७ में राष्ट्र के विभाजन पर कांग्रेस और पाकिस्तानियों ने भारत को हिन्दुस्तान नाम से प्रसिद्द करने का प्रयास किया और तर्क दिया विभाजन के पश्चात नए देशों के नाम हिन्दुस्तान और पकिस्तान होंगे. अब उनसे ये कोई प्रश्न पूछें कि क्या भारत नया देश है जो इसका नामकरण किया जायेगा. पकिस्तान के सन्दर्भ में ये बात समझ में तो आती है. अतः वास्तव में हमारे देश का नाम न तो इंडिया है और ना हिन्दुस्तान सिर्फ़ और सिर्फ़ भारत वर्ष है. जाति के बारे में बात करें तो हमारी मानव जाति है और हम अपने कर्मो के अनुसार वर्गीकृत हैं. सभ्यता संस्कृति हमारी आर्य या भारतीय है चाहे वो देश के किसी भी कोने का ही क्यों न हो. हमारे आदर्श लूट खसोट मचाने वाले अकबर, ओरंगजेब या कोई अंग्रेज शाशक नही हैं या चालाक स्वार्थी नेता नेहरू, गाँधी नही हैं हमारे आदर्श हमारे भारत के ऋषि, संत, श्रीराम और श्रीकृष्ण जैसे लोग हैं या फ़िर पराक्रमी शिवाजी, महाराणा प्रताप जैसे लोग होने चाहिए. हमारे या सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण हेतु मूल ग्रन्थ वेद हैं जिनसे ही ज्ञान का प्रकाश लेकर अन्य अनेक पुस्तके लिखी गई हैं जैसे सांख्ययोग, योगशास्त्र, न्यायशास्त्र, वैशेषिक दर्शन, गीता, रामायण, महाभारत आदि धर्मं ग्रन्थ. वेद संस्कृत में लिखे गए हैं और संस्कृत से ही समस्त भाषाएँ निकली हैं. संकृत कि लिपि देवनागरी है और सभी भाषाओँ में सबसे अधिक समीप हिन्दी है तो हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी हैं. एक बार कि बात है राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के भुतपूर्व अध्यक्ष रज्जू भइया तमिलनाडु में एक अधिवेशन में भाषण देने गए वहां पर उन्होंने हिन्दी में बोलना प्रारम्भ कर दिया तभी सभा में लगभग सभी ने तिरस्कार करते हुए और शोर मचाते हुए इंग्लिश या तमिल में बोलने के लिए कहा तो रज्जू भइया ने कहा मैं भौतिक शास्त्र का प्राध्यापक हूँ और अंग्रेजी में भी बोल सकता हूँ पर एक बार आप लोग मुझे हिन्दी में बोलने दे उसके बाद अगर आपकी समझ में नही आएगा तो मैं इंग्लिश में अवश्य बोलूँगा इस बात पर सभी राजी हो गए और उन्होंने अपना पूर्ण भाषण हिन्दी में दिया. भाषण के पश्चात लोगो ने कहा क्या ये हिन्दी है इसको तो हम समझ सकते हैं तब रज्जू भइया ने कहा कि तुमने अभी नेहरू जैसे लोगो कि हिन्दी सुनी है जो कि हिन्दी में फारसी शब्दों का अधिकतम प्र्योग करते हैं जिस के कारण आप को हिन्दी समझ ने में समस्या होती है. इस बात से एक बात समझ में आती है कि यदि हिन्दी में संस्कृत के तत्सम शब्दों का ही अधिकतम प्र्योग हो तो देश के अन्य भाषी भी इसको आराम से समझेंगे और बोल पाने में भी समर्थ बनेंगे. धर्मं हमारा सनातन है या वैदिक कहो एक ही बात है. सनातन का अर्थ है जो अनादी काल से चला आ रहा है या इश्वर द्वारा प्र्ध्रत प्राकृतिक हर मनुष्य का होता है जो किसी सीमाओं में या संकीर्णताओं से नही बंधा है जो वेदों के अनुरूप वैज्ञानिक रूपवत चलता है जोकि एक जीवन शैली है और सभी मनुष्य जाति को समान रूप से देखती है. हिंदू नाम यूनान वासियों ने ही दिया था बाद में अरब और अंग्रेजो ने भी हमें हिंदू बोलना प्रारम्भ कर दिया. धीरे -धीरे अब ये ही सब भारतीयों में भी प्रचलित हो गया किंतु ये हमारा वास्तविक धर्मं नाम नही है. पूरे विश्व में बहुत सारे रिलिजन ,मजहब , या बहुत सारे मत हैं जैसे मुस्लिम, क्रिस्चियन, ज्युत्स, पारसी आदि और एक मत सेकुलर भी है जो इन सबका मिलाजुला रूप है जिसमें बहूत सारे हिंदू भी सम्मलित हैं. सेकुलर मत के अनुसार भारत, भारतीयता (हिंदू, सनातन या वैदिक मत) का ही विरोध किया जाता है और हिन्दुओं का सर्वनाश करना ही इसका मुख्य उद्देश्य है. भारत में यह मत बहुत अच्छी तरह से फलफूल रहा है और हमारे दिग्भ्रमित होने का भी सब से बड़ा कारण ये सेकुलर मत ही है. जो जितना बड़ा हिंदू-विरोधी उतना बड़ा सेकुलर. जो बात मैंने यहाँ पर लिखी हैं वो भी सेकुलर्स को मान्य नही हैं. ये लोग तार्किक बातो पर भी विश्वास नही करते हैं. और सभी मतों की जो घटिया बातें हैं उनके पूर्ण समर्थक हैं. जिस दिन हम इन सेकुलरिस्टों के छदम भारत विरोधी नीतियों का पूर्ण सफाया कर देंगे उसी दिन भ्रम का आवरण विच्छेद होकर भारत में विकासोदय का सूर्य आकाश में प्रज्वलित होगा और समस्त विश्व को अपने ज्ञान प्रकाश से आलोकित करके विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेगा.
वंदे मातरम् !!
गुरुवार, 17 अप्रैल 2008
क्या भारत वर्ष या आर्याव्रत हमारा देश नहीं है (क्या हम विदेशी हैं )
अब जरा एक बात अपनी बुद्दी से और अनुसंधान करके सोच कर बताओ जो सब कुछ वेदों में लिखा है और जो भी कुछ हमारे रीती रिवाज़ हैं और जो हमारी जीवन दर्शन का सिद्धांत है वो इस विश्व में कही भी नही है अगर आर्य बाहर से मध्य से आते तो उनके वहाँ भी तो तो कुछ प्रमाण होने चाहिए जबकि हमारी संस्कृति और उनमें धरती-आसमान का अन्तर दिखाई देता है। शायद मेरी बात को आप में से कुछ लोग स्वीकार नही करेंगे तो मैं यहाँ उनके लिये कुछ ब्रिटेनिका एनसाईक्लोपीडिया से लिये गए बातो को लिख रहा हूँ ।
१) आर्यों में कोई गुलाम बनाने का कोई रिवाज़ नही था।
समीक्षा - जबकि मध्य एशिया अरब देशो में ये रिवाज़ बहुत रहा है।
२) आर्य प्रारम्भ से ही कृषि करके शाकाहार भोजन ग्रहण करते आ रहें है।
समीक्षा - मध्य एशिया में मासांहार का बहुत सेवन होता है जबकि भारत में अधिकतम सभी आर्य या हिंदू लोग शाकाहारी हैं३) आर्यों ने किसी देश पर आक्रमण नहीं किया
समीक्षा- अधिकतम अपनी सुरक्षा के लिये किया है या फ़िर अधर्मियो और राक्षसों (बुरे लोगो) का संहार करने के लिये और लोगो को अन्याय से बचाने के लिये और शिक्षित करने के लिये किया है। इतिहास साक्षी है अरब देशो ने कितने आक्रमण और लौट-खसोट अकारण ही मचाई है।
४) आर्यों में कभी परदा प्रथा नही रही बल्कि वैदिक काल में स्त्रियाँ स्नातक और भी पढी लिखी होती थी उनका आर्य समाज में अपना काफी आदर्श और उच् स्थान था ( मुगलों के आक्रमण के साथ भारत के काले युग में इसका प्रसार हुआ था) समीक्षा- जबकि उस समय मध्य एशिया या विश्व के किसी भी देश में स्त्रियों को इतना सम्मान प्राप्त नही था।
५)आर्य लोग शवो का दाह संस्कार या जलाते हैं जबकि विश्व में और बाकी सभी और तरीका अपनाते हैं।
समीक्षा - ना की केवल मध्य एशिया में वरन पूरे विश्व में भारतीयों के अलावा आज भी शवो को जलाया नही जाता।
६) आर्यों की भाषा लिपि बाएं से दायें की ओर है।
समीक्षा - जबकि मध्य एशिया और इरानियो की लिपि दायें से बाईं ओरहै
७)आर्यों के अपने लोकतांत्रिक गाँव होते थे कोई राजा मध्य एशिया या मंगोलियो की तरह से नही होता था।
समीक्षा - मध्य एशिया में उस समय इन सब बातो का पता या अनुमान भी नही था
८)आर्यों का कोई अपना संकीर्ण सिद्दांत या कानून नही था वरन उनका एक वैश्विक अध्यात्मिक सिद्दांत रहा है जैसे की अहिंसा, सम्पूर्ण विश्व को परिवार की तरह मानना। समीक्षा -मध्य एशिया या शेष विश्व में ऐसा कोई सिद्दांत या अवधारणा नही है।
९)वैदिक या सनातन धर्म को कोई प्रवर्तक या बनाने वाला नहीं है जैसे की मोहम्मद मुस्लिमों का, अब्राहम ज्युष का या क्राईस्ट क्रिश्चियन का और भी सब इसी तरीको से।
समीक्षा - मध्य एशिया या शेष विश्व में भारतीयों या हिन्दुओं के अतिरिक्त सभी के अपने मत हैं और सभी में और मतों की बुराई और अपनी तारीफ़ लिखी गई है जबकि हिन्दुओं या आर्यों ने हमेशा समस्त विश्व को साथ लेकर चलने की बात कही गई है।
१०) वेदों में या किसी भी संस्कृत साहित्य में कहीं भी ये वर्णन नहीं है की आर्य जाती सूचक शब्द है और कोई मध्य एशिया से आक्रमणकारी यहाँ आ कर बसे हैं जिन्होंने वेदों की रचना की है।
समीक्षा -जबकि इस बात को विश्व में सभी सर्वसहमति से स्वीकारते हैं की वेद विश्व की सबसे पुराने ग्रन्थ हैंऔर किसी भी भारतीय उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत या अन्य किसी में भी कहीं भी ये एक शब्द भी नही मिलता की आर्य बाहर से आए हैं जबकि आर्य कोई जातिसूचक शब्द ना हो कर के उसका अर्थ श्रेष्ट है।
अब विचार करने योग्य ये है ये सभी बातें भारतीयों या हिन्दुओं के अलावा विश्व में कहीं और क्यों नही पाई जाती यदि हम आक्रमणकारी थे तो हमारे सिद्दांत या रीती रिवाज़, समाज या अन्य धार्मिक क्रिया-कलाप किसी और विश्व की सभ्यता में क्यों नही पाए जाते अगर वास्तव में हम आक्रमणकारी हैं तो हमारी मूल स्थान कहीं तो होगा जैसे की अधिकतर लोगो का मानना मध्य एशिया हमारा मूल स्थान है उनमें क्या एक भी गुण हम आर्यों के सिद्दान्तो या जीवनदर्शन से मिलता है बल्कि मूल स्थान पर ये गुण अधिक पाये जाने चाहिए थे। हम इस विश्व में शेष विश्व से अपनी एक अलग पहचान रखते हैं और ऐसे हजारों तथ्य हैं जो इस बात को सिद्ध करते हैं हम भारतीय मानव के जन्म काल से भारतवासी हैं। मेरे विचार से इससे बड़ी हास्यास्पद और विकट समस्या भारतीयों के लिये हो नहीं सकती अगर वो अपने को इस देश का मूल निवासी नही मानते। क्युकी इससे राष्ट्रभक्ति और स्वाभिमान पर सीधा आघात होता है जैसा की ब्रिटिश चाहते ही थे और इनके उद्देश्य को पूर्ण करने में पिछले १५० सालो से हमारे नेताओं ने जोकि अधिकतर भारतीयों की खाल में वेदेशी घुसे हुए हैं ने कोई कमी नही छोडी है जिससे आजकल की पीडी अपने राष्ट्र और संस्कृति से भी कटने लगी है। खैर देखते और आशा भी करते है भारत अपने इस काले युग से बाहर निकल कर फ़िर से अपने पैरो पर खड़ा हो कर के चलेगा किसी दिन।
धन्यवाद एवं शुभ कामनाओं सहित,
आपका मित्र सौरभ आत्रेय
मंगलवार, 15 अप्रैल 2008
क्या हम हिन्दी नहीं बोलते
मित्रो एक बार की बात है मेरी एक भारतीय से ये बैहस हुई कि भारतीय हिन्दी नहीं बोलते अब आप लोगो को सुन कर मेरा मतलब पढ़ कर बड़ा अजीब लगा होगा पर ऐसा ही कि कुछ मूर्ख लोग समझते हैं। अब उनका तर्क सुनिए उसने मुझ से हिन्दी में ही बोल कर कहा की आप इसको हिन्दी में बोलिए "भाईसाब दिल्ली जाने वाली ट्रेन कितने बजे जायेगी" सुन कर बड़ा अजीब लगा की हिन्दी में ही बोल रहा है और कहता है इसको हिन्दी में बोलिए। मैंने उससे कहा तुम तो इसको पहले से ही हिन्दी में बोल रहे हो तो कहता है हिन्दी में इसको ऐसा बोलेंगे "श्रीमान दिल्ली जाने वाली लोहपथगामिनी कितने समय पर प्रस्थान करेगी। मैंने उस से कहा ठीक है ये भी हिन्दी है और इसमें लोहपथगामिनी के स्थान पर अगर ट्रेन ही बोलोगे तो ज्यादा उचित रहेगा क्युकी ऐसा शब्द कुछ लोग जबरदस्ती बनाते हैं मजे लेने के लिये जैसे धुक-धुक वाहिनी और भी इस तरह के शब्द अपनी ही भाषा का मजाक उडाने के लिये लोग प्रयोग करते हैं और वास्तव में वो अपना मजाक स्वयं ही उड़ारे होते हैं , कहता है फ़िर ये हिन्दी कहाँ रहेगी। मैंने कहा अरे भले आदमी दुनिया की हर भाषा दूसरी भाषाओं से शब्द लेती रहती है इसका मतलब ये नही है की वो भाषा ही बदल गई अगर तुम्हे पता हो इंगलिश और अन्य भाषाओं में भी में कितने ही सैंकडो शब्द हिन्दी और अन्य भाषाओं से लिये गए हैं किंतु जब तुम ये क्यों नही बोलते की ये इंग्लिश नहीं है उदाहरण के तौर पर अगर मैं ये कहूं he is a tech guru. तो अब तुम इसको क्या बोलोगे गुरु शब्द तो हिन्दी का है जबकि अमेरिका मैं तो इसको बहुत प्रयोग में लाते हैं और ये सिर्फ़ एक शब्द नही ऐसे पता नही कितने शब्द हिन्दी(संस्कृत) , स्पेनिश , फ्रेंच, जर्मन और भी बहुत सी भाषाओं के शब्द तुम्हे इंग्लिश में आराम से मिल जायेंगे पर तुम उसको हमेशा इंग्लिश ही बोलोगे और वो है भी इंग्लिश। अब इसी तरह अगर हिन्दी में हम कुछ इंग्लिश के या फारसी के शब्द मिला कर बोल देते हैं तो वो हिन्दी ही रहेगी क्यूंकि ये शब्द हिन्दी ने ग्रहण कर लिये हैं हाँ लकिन अगर हम जानभूझ कर इंग्लिश या फारसी के शब्द अधिक से अधिक प्रयोग करते हैं तो वो हमारी नासमझगी गुलामी की मानसिकता और अच्छी हिन्दी नही होगी लेकिन वो होगी हिन्दी ही क्युकी भाषा व्याकरण से होती है न की सिर्फ़ संज्ञा से और तुम जब भी वाक्य की सरचना हिन्दी की ही व्याकरण से कर रहे हो। तो मेरे भाई अगर मैं ये कहता हूँ "दिल्ली जाने वाली ट्रेन कितने बजे\टाइम\वक्त या समय पर जायेगी" तो ये हिन्दी ही है। दोस्तो आप लोगो की क्या राय है इस बरे में कृपया कुछ प्रतिक्रिया दीजिये।
धन्यवाद एवं शुभ कामनाओं सहित,
आपका मित्र सौरभ आत्रेय
बुधवार, 9 अप्रैल 2008
सत्यार्थ-प्रकाश
शुभकामनाओ सहित
आपका मित्र सौरभ
रविवार, 6 अप्रैल 2008
प्रथम संदेश
शुभ कामनाओं सहित,
आपका मित्र
सौरभ त्यागी