बुधवार, 29 सितंबर 2010

इन्द्र- वृत्रासुर कथा

एक कथा वृत्रासुर की है जिसको मुर्ख लोगो ने ऐसा धर के लौटा है कि वह प्रमाण और युक्ति इन दोनों से विरुद्ध जा पड़ी है।

'त्वष्टा के पुत्र वृत्रासुर ने देवों के राजा इन्द्र को निगल लिया। तब सब देवता लोग बड़े भय युक्त होकर विष्णु के समीप गये, और विष्णु ने उसके मारने का उपाय बतलाया कि --मैं समुद्र के फेन में प्रविष्ट हो जाऊँगा। तुम लोग, उस फेन को उठाकर वृत्रासुर के मारना, वह मर जायेगा।'

यह पागलों की सी बनाई हुई पुराणग्रन्थों की कथा सब मिथ्या है।श्रेष्ठ लोगो को उचित है कि इनको कभी न मानें। देखो सत्यग्रन्थों में यह कथा इस प्रकार लिखी है कि --

(मैं यहाँ संस्कृत के श्लोक नहीं लिख पा रहा हूँ केवल उनका हिन्दी अनुवाद ही लिख रहा हूँ।)

(इन्द्रस्य नु०) यहाँ सूर्य का इन्द्र नाम है। उसके किये हुए पराक्रमों को हम लोग कहते हैं, जोकि परम ऐश्वर्य होने का हेतु बड़ा तेजधारी है। वह अपनी किरणों से 'वृत्र' अर्थात मेघ को मारता है। जब वह मरके पृथ्वी में गिर पड़ता है, तब अपने जलरूप शरीर को सब पृथ्वी में फैला देता है। फिर उससे अनेक बड़ी-२ नदी परिपूर्ण होके समुद्र में जा मिलती हैं। कैसी वे नदी हैं कि पर्वत और मेघों से उत्पन्न होके जल ही बहने के लिए होती हैं। जिस समय इन्द्र मेघरूप वृत्रासुर को मार के आकाश से पृथ्वी में गिरा देता है, तब वह पृथ्वी में सो जाता है।।१।।


फिर वही मेघ आकाश में से नीचे गिरके पर्वत अर्थात मेघमण्डल का पुनः आश्रय लेता है। जिसको सूर्य्य अपनी किरणों से फिर हनन करता है। जैसे कोई लकड़ी को छील के सूक्ष्म कर देता है। वैसे ही वह मेघ को भी बिन्दु-बिन्दु करके पृथ्वी में गिरा देता है और उसके शरीररूप जल सिमट-सिमट कर नदियों के द्वारा समुद्र को ऐसे प्राप्त होते हैं, कि जैसे अपने बछड़ों से गाय दौड़ के मिलती हैं।।२।।

जब सूर्य्य उस अत्यन्त गर्जित मेघ को छिन्न-भिन्न करके पृथ्वी में ऐसे गिरा देता है कि जैसे कोई मनुष्य आदि के शरीर को काट काट कर गिराता है, तब वह वृत्रासुर भी पृथ्वी पर मृतक के समान शयन करने वाला हो जाता है।।३।।

'निघण्टु' में मेघ का नाम वृत्र है(इन्द्रशत्रु)--वृत्र का शत्रु अर्थात निवारक सूर्य्य है,सूर्य्य का नाम त्वष्टा है, उसका संतान मेघ है, क्योंकि सूर्य्य की किरणों के द्वारा जल कण होकर ऊपर को जाकर वाहन मिलके मेघ रूप हो जाता है। तथा मेघ का वृत्र नाम इसलिये है कि वृत्रोवृणोतेः० वह स्वीकार करने योग्य और प्रकाश का आवरण करने वाला है।

वृत्र के इस जलरूप शरीर से बड़ी-बड़ी नदियाँ उत्पन्न होके अगाध समुद्र में जाकर मिलती हैं, और जितना जल तालाब व कूप आदि में रह जाता है वह मानो पृथ्वी में शयन कर रहा है।।५।।

वह वृत्र अपने बिजली और गर्जनरूप भय से भी इन्द्र को कभी जीत नहीं सकता । इस प्रकार अलंकाररूप वर्णन से इन्द्र और वृत्र ये दोनों परस्पर युद्ध के सामान करते हैं, अर्थात जब मेघ बढ़ता है, तब तो वह सूर्य्य के प्रकाश को हटाता है, और जब सूर्य्य का ताप अर्थात तेज बढ़ता है तब वह वृत्र नाम मेघ को हटा देता है। परन्तु इस युद्ध के अंत में इन्द्र नाम सूर्य्य ही की विजय होती है।

(वृत्रो ह वा०) जब जब मेघ वृद्धि को प्राप्त होकर पृथ्वी और आकाश में विस्तृत होके फैलता है, तब तब उसको सूर्य्य हनन करके पृथ्वी में गिरा देता है। उसके पश्चात वह अशुद्ध भूमि , सड़े हुये वनस्पति, काष्ठ, तृण तथा मलमुत्रादि युक्त होने से कहीं-कहीं दुर्गन्ध रूप भी हो जाता है। तब समुद्र का जल देखने में भयंकर मालूम पड़ने लगता है। इस प्रकार बारम्बार मेघ वर्षता रहता है।(उपर्य्युपय्यॅति०)--अर्थात सब स्थानों से जल उड़ उड़ कर आकाश में बढ़ता है। वहां इकट्ठा होकर फिर से वर्षा किया करता है। उसी जल और पृथ्वी के सयोंग से ओषधी आदि अनेक पदार्थ उत्पन्न होते हैं।उसी मेघ को 'वृत्रासुर' के नाम से बोलते हैं।

वायु और सूर्य्य का नाम इन्द्र है । वायु आकाश में और सूर्य्य प्रकाशस्थान में स्थित है। इन्हीं वृत्रासुर और इन्द्र का आकाश में युद्ध हुआ करता है कि जिसके अन्त में मेघ का पराजय और सूर्य्य का विजय निःसंदेह होता है।

इस सत्य ग्रन्थों की अलंकाररूप कथा को छोड़ कर मूर्खों के समान अल्पबुद्दी वाले लोगो ने ब्रह्मा-वैवर्त्त और श्रीमद्भागवतादि ग्रन्थों में मिथ्या कथा लिख रखी हैं उनको श्रेष्ठ पुरुष कभी न मानें।

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

इन्द्र और अहल्या की कथा

सुर्य्यरश्पिचन्द्रमा गन्धर्वः।। इत्यपि निगमो भवति । सोअपि गौरुच्यते।।
जार आ भगः जार इव भगम्।। आदित्योअत्र जार उच्यते, रात्रेर्जरयिता।।


उपरोक्त सूक्त के आधार पर एक कथा है इन्द्र और अहल्या की जिसको मूढ़ लोगो ने अनेक प्रकार बिगाड़ के लिखा है। जोकि संक्षिप्त में इस प्रकार है-

'देवों का राजा इन्द्र देवलोक में देहधारी देव था। वह गोतम ऋषि की स्त्री अहल्या के साथ जारकर्म किया करता था। एक दिन जब उन दोनों को गोतम ऋषि ने देख लिया, तब इस प्रकार शाप दिया की हे इन्द्र ! तू हजार भगवाला हो जा । तथा अहल्या को शाप दिया की तू पाषाणरूप हो जा। परन्तु जब उन्होंने गोतम ऋषि की प्रार्थना की कि हमारे शाप को मोक्षरण कैसे व कब मिलेगा, तब इन्द्र से तो कहा कि तुम्हारे हजार भग के स्थान में हजार नेत्र हो जायें, और अहल्या को वचन दिया कि जिस समय रामचन्द्र अवतार लेकर तेरे पर अपना चरण लगाएंगे, उस समय तू फिर अपने स्वरुप में आ जाओगी।'

इस प्रकार यह कथा बिगाड़ कर लिखी गयी है। सत्य ग्रंथों में ऐसा नहीं है । सत्य इस प्रकार है --

(इन्द्रागच्छेती०) अर्थात उनमें इस रीति से है कि सूर्य का नाम इन्द्र ,रात्रि का नाम अहल्या तथा चन्द्रमा का गोतम है। यहाँ रात्रि और चन्द्रमा का स्त्री-पुरुष के समान रूपकालंकार है। चन्द्रमा अपनी स्त्री रात्रि के साथ सब प्राणियों को आनन्द कराता है और उस रात्रि का जार आदित्य है। अर्थात जिसके उदय होने से रात्रि अन्तर्धान हो जाती है। और जार अर्थात यह सूर्य ही रात्रि के वर्तमान रूप श्रंगार को बिगाड़ने वाला है। इसीलिए यह स्त्रीपुरुष का रूपकालंकार बांधा है, कि जिस प्रकार स्त्रीपुरुष मिलकर रहते हैं, वैसे ही चन्द्रमा और रात्रि भी साथ-२ रहते हैं।

चन्द्रमा का नाम गोतम इसलिए है कि वह अत्यन्त वेग से चलता है। और रात्रि को अहल्या इसलिये कहते हैं कि उसमें दिन लय हो जाता है । तथा सूर्य रात्रि को निवृत्त कर देता है, इसलिये वह उसका जार कहाता है।

इस उत्तम रूपकालंकार को अल्पबुद्धि पुरुषों ने बिगाड़ के सब मनुष्य में हानिकारक मिथ्या सन्देश फैलाया है। इसलिये सब सज्जन लोग पुराणोक्त मिथ्या कथाओं का मूल से ही त्याग कर दें।
(ऋग्वेदभाष्यभूमिका से उद्दृत)

रविवार, 26 सितंबर 2010

भारतीय सनातन धर्म और चार्वाक, जैन-बोद्ध दर्शन

भारतीय ६ धर्म-शास्त्रों जिनको वेदांग भी कहा जाता है को लक्ष्य कर उनके पारस्परिक अविरोध को प्रकट करने के लिये इससे पूर्व का लेख(भारतीय सनातन धर्म और उसके दर्शन-शास्त्र ) लिखा गया था। अब हम इस लेख में भारतीय नास्तिक दर्शनों का विचार करते हैं।

नास्तिक दर्शन(चार्वाक)— यदि हम भारतीय तथाकथित नास्तिक दर्शनों का गम्भीरता से विवेचन और परिक्षण करें तो इन दर्शनों में भी सनातन वैदिक धर्म से कोई उत्कट और मूलभूत विरोध की भावना नहीं पाई जाती है, यह पर्याप्त सीमा तक स्पष्ट हो जाता है। वैदिक या आस्तिक दर्शन के समान चार्वाक अथवा जैन-बोद्ध दर्शनों द्वारा चेतन-अचेतन रूप में तत्वों का विवेचन किया गया है।

चार्वाक दर्शन की अचर एवं जड़ चेतन जगत का मूल आधार तत्व केवल जड़ है; तब उसका तात्पर्य केवल इतने अर्थ में है कि इस लोक में हमारी सुख-सुविधा और सब प्रकार के अभ्युदय के लिये सर्वप्रथम जड़ तत्व की यथार्थता और उसकी प्राणी कल्याणकारी उपयोगिता को जानना परम आवश्यक है, उसकी उपेक्षा कर संसार में हमारा सुखी रहना सम्भव न होगा। इस मान्यता के विरोध में चार्वाकदर्शन के सामने जब यह आशंका प्रस्तुत की जाती है कि क्या जड़ तत्व से अतिरिक्त चेतनतत्त्व का नित्य अस्तित्त्व नहीं माना जाना चाहिये ? तब इसके समाधान में चार्वाक दर्शन का यही कहना है , कि चेतन के अस्तित्त्व से उसे कोई नकार नहीं है , पर वह नित्य है, या कैसा है , कहाँ से आता है , कहाँ जाता है ? इत्यादि विचार-मन्थन उस समय तक अनपेक्षित है, जब तक उन तत्वों की यथार्थता व उपयोगिता को नहीं जान लिया जाता , जिन पर हमारा वर्तमान अस्तित्व निर्भर करता है। मरने के बाद क्या होगा ? इसकी अपेक्षा यह अधिक आवश्यक है कि हम जीवित कैसे रह सकते हैं। वर्तमान जीवन के आधारभूत जड़तत्व की रहस्यमय वास्तविकता व उपयोगिता के जान लेने से पहले यदि हम ऐसा मान लें , कि चेतन तत्व जड़ से ही उभर आता है , तो इसमें क्या हानि है ? चार्वाकदर्शन का यह मन्तव्य ‘अन्तिमेत्थम्’ नहीं है, मानव समाज के विचार-प्रवाह और कर्तव्य का यह एक स्तर है, इसकी उपेक्षा किया जाना मंगल का मूल नहीं है। यह प्रत्यक्ष है , कि प्रायः मानव करता वही है, जो चार्वाकदर्शन बताता है; पर कहता वह है, जो उस दर्शन का विषय नहीं है, तब स्वभावतः संघर्ष की स्तिथि उत्पन्न हो जाती है।

जैन-बोद्ध दर्शन- चार्वाकदर्शन की अपेक्षा इन दोनों दर्शनों में यह विशेषता है, कि ये जड़तत्व से अतिरिक्त चेतन तत्व के स्वतन्त्र अस्तित्व का उपदेश करते हैं। यह सम्भावना की जा सकती है कि इन दर्शनों के मूल प्रवक्ताओं ने विचार की द्रष्टि से कुछ उन्नत जिज्ञासु जनों को तत्वज्ञान के इस स्तर का अधिकारी समझकर चेतन-अचेतन तत्वों का विवेचन प्रस्तुत किया हो। जैन दर्शन चेतन(आत्म) तत्व को जहाँ संकोच-विकासशील बताता है , दूसरा दर्शन उसे ज्ञान स्वरुप मानकर क्षणिक कहता है , और उसके निर्विकार भाव को अक्षुण बनाये रखना चाहता है। बोद्ध-दर्शन में अधिकारी स्तर की भावना से ज्ञानरूप अथवा विज्ञानरूप चेतन तत्व का विवेचन उस स्तिथि तक पहुंचा दिया गया है जहाँ यह प्रतिपादन किया जाता है, कि समस्त चराचर जड़-चेतन जगत उस ‘विज्ञान’ का ही आभास है , ब्रह्मा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व कुछ नहीं है, वस्तुभूत सत्तामात्र एक विज्ञान है, भले वह क्षणिक हो। यह सम्भव है, कदाचित मूल स्वरूप में उसका भी वस्तु भूत अस्तित्व न हो। इस प्रकार हम संसार के मूलतत्व की विवेचना व खोज करते एक रहस्यमय स्तिथि पर पहुंच जाते हैं। ये सब तत्व-विचार के विभिन्न स्तर हैं। सम्भवतः इनमें कोई एक ऐसा ठिकाना नहीं , जिसे ‘अन्तिमेत्थम्’ कहकर निश्चयरूप से वहां टिका जा सके। इससे उन-उन विचारों के मूल प्रवक्ताओं को अज्ञानी बताने का यहाँ हमारा तात्पर्य नहीं है ; वे वस्तुतः महाज्ञानी रहे होंगे, उनके वैसे उपदेश में लोक-कल्याण की भावना अधिक हो सकती है। फलतः चेतन-अचेतन का यह विवेचन जो इतने अनेक प्रकारों में प्रस्तुत हुआ है, इसमें परस्पर विरोध की भावना न होकर जिज्ञासु अधिकारी के कल्याण की भावना अधिक है।


आस्तिक-नास्तिक दर्शन के भेद का कारण ईश्वर अथवा ब्रह्मा-तत्व की मान्यता-अमान्यता कहा जा सकता है। आस्तिक दर्शन उसके अस्तित्व को सर्वतोभावेन स्वीकार करते हैं, जबकि दूसरे नहीं, इस्सी आधार पर उनका यह नाम-भेद हो गया है। दूसरा कारण है, वेद के प्रामाण्य को स्वीकार करना, न करना ; परन्तु यह पहले कारण पर आश्रित है। वेद को मानने वाले उसे ईश्वरीय ज्ञान कहते हैं , जिन्होंने ईश्वर को न माना , वे ईश्वरीय ज्ञान वेद को उसके प्रामाण्य को क्यों मानेंगे ? इस प्रसंग में तर्कपूर्ण विचार यह है कि तथाकथित नास्तिक दर्शन के मूल प्रवक्ताओं ने ईश्वर—अथवा ऐसी परम चेतन शक्ति, जो संसार का नियन्तरण करती है –के अस्तित्व का निषेध नहीं किया । उनकी रचनाओं से ऐसा अवगत होता है , कि उन्होंने किन्हीं विशेष परिस्तिथियों से बाधित होकर ऐसा प्रवचन किया । वे परिस्तिथियाँ चाहे जिज्ञासु-जनों की योग्यता पर आधारित हों , अथवा ईश्वर या वेद के मानने वालों द्वारा अपनी मान्यताओं को अन्यथा प्रस्तुत करने से पैदा हुई हों या तत्कालिक समाजिक प्रवृत्तियां आदि अन्य कारण रहे हों। ऐतिहासिक द्रष्टि से महाभारत के पश्चात एक वाममार्गी सम्प्रदाय वेदों के नाम पर यज्ञों में बलि, घृणित यौन-क्रीडाएं, मदिरापान इत्यादि सभी निन्दित कार्य करता है और उसका अस्तित्व आज भी अघोरी, झाड़-फूंक वाले, ईश्वर के नाम पर प्रसाद के रूप में मदिरा(दारु) आदि चढ़ाने वाले, चरस-गांजा नशा करने वाले लोगो के रूप में जीवित है। ये मुर्ख लोग ये सभी कार्य वेद और ईश्वर के नाम पर करते हैं जबकि सत्य के आस-पास भी ये लोग नहीं है। इसीलिए यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इस वाममार्गी सम्प्रदाय, मुर्ख और स्वार्थी लोगो से आहत होकर चार्वाक और जैन-बोद्ध दर्शनों का उदय हुआ है। उनके मूल प्रवक्ताओं ने समाज कल्याण हेतु समझाया कि अपने वर्तमान जीवन को सुधारों, सबके कल्याण के लिये सदाचार पर ध्यान दो, परस्पर सहानुभूति से रहना सीखो उससे यह हमारा लोक सुखमय होगा और परलोक भी। ऐसे आचरण से ईश्वर तक भी पहुंचा जा सकता है। इसकी अपेक्षा तब रही होगी, वस्तुतः इसकी अपेक्षा सदा रहती है। यदि गम्भीरता से परिक्षण करते हैं तो उन प्रवक्ताओं का तात्पर्य लोक-कल्याण में अधिक ईश्वर अस्तित्व के नकार में कम प्रतीत होता है। तब ऐसे में विरोध की भावना इन दर्शनों में कहाँ रह जाती है।

अनन्तर काल में उन-उन विचारों के अनुयायियों ने अपने आदिप्रवक्ता के तात्पर्य को यथार्थ रूप में न समझते हुए परस्पर विरोध की भावना को उभारने में सहयोग दिया। धीरे-धीरे ऐसी प्रवृत्तियां बढ़ती गईं; कालान्तर में उन्होंने विभिन्न वर्ग, सम्प्रदायों अथवा पन्थ का रूप धारण कर लिया, तब परस्पर विरोधी अखाड़ों ने स्थायिता प्राप्त कर ली। प्रत्येक विचार के व्याख्याकार विद्वानों ने उसी रूप में अपने विषय के विशाल साहित्य का सृजन कर लिया। उसमें कारण चाहे उनके निजी स्वार्थ रहे हों अथवा अन्य कारण पर आज हम उसी आदर्श की आधार पर मूल तत्व-विवेचना को परखने का प्रयास करते हैं। निश्चित रूप में हम उद्देश्य से बहुत दूर भटक गये हैं। आदि-प्रवक्ताओं के जन-कल्याणी लक्ष्य-विचार इन काली-पीली आँधियों में तिरोहित हो चुके हैं।

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

भारतीय सनातन धर्म और उसके दर्शन-शास्त्र

चेतन और अचेतन दो प्रकार के तत्व संसार में पाए जाते हैं। सृष्टिविद्या के पारदर्शी विद्वानों ने इस विषय में जो विशद विचार प्रस्तुत किये हैं, वे प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को इसी परिणाम पर पहुंचाते हैं। इन तत्वों का विवेचन भारतीय शास्त्रों में विस्तार के साथ किया गया है, विशेषरूप से दर्शनशास्त्रों का यही मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। यद्यपि आज काफी लोगो द्वारा ऐसा भी समझा जाता है, कि भारतीय दर्शनों में परस्पर विरोधी अर्थों का प्रतिपादन हुआ है, वे एक-दूसरे के प्रतिपाद्य अर्थों का प्रतिषेध करते दिखाई देते हैं। ऐसी स्तिथि में वास्तविक तत्व क्या है, यह निर्णय कर लेना सरल कार्य नहीं है।

दर्शनशास्त्रों की इस स्तिथि को आधुनिक द्रष्टि से इस आधार पर महत्त्वपूर्ण बतलाया जाता है, कि ऐसी विचार-विभिन्नता मानवीय मस्तिष्क के विकास और उसके क्रमिक उर्वरभाव की द्योतक है। आदिकाल से आज तक मानव कि इस प्रवृत्ति को यथार्थ रूप में अनुभव किया जा सकता है। इससे हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं , कि मानव ने विचारों की दासता को नैसर्गिक रूप में सर्वात्मना कभी स्वीकार नहीं किया , अपने आप पर कभी उसको प्रभावी नहीं होने दिया । ये विचारमूलक संघर्ष जनता के सामने सदा आते रहे हैं, और आते रहेंगे। इस प्रवृत्ति को मानव की ज्वलन्त जागृति एवं सतर्कता का प्रमाण कहा जाता है।

किन्तु इस विषय में महान आत्माओं का अनुभव है , कि यह प्रवृत्ति भले ही नैसर्गिक हो, जीवन्त जागृति का चिह्न हो , पर एक ओर की खिड़की से चुपचाप अज्ञान की छाया इसे झाँका करती है। मानव ने मुड़कर उस ओर बहुत कम देखा है ।कहा जा सकता है कि यह प्रवृत्ति अपने रूप में कितनी भी यथार्थ लगती हो, पर इससे तत्व के निर्णय व उसके स्वरुप के समाधान में कोई संतोषकर सहयोग प्राप्त नहीं होता ; जब वे विचार इतने स्पष्ट विभेदों के साथ हमारे सामने आते हैं , तो उनमें कौन सच्चा और कौन झूठा है, यह जानना कठिन हो जाता है। ऐसी स्तिथि में दो विकल्प हो सकते हैं –उनमें से कोई एक विचार सत्य हो अथवा कोई सत्य न हो; और यह अन्धेरे में लाठी चलाने व हाथ-पैर मारने का प्रदर्शन हो रहा है।

हम अपने आपको ऐसी स्तिथि में अनुभव करते हैं, कि जिन विद्वानों ने उन विचारों को प्रस्तुत किया है, यह साहस नहीं होता कि उन विचारों को अनायास ही असत्य मान लिया जाये। तब किसी भी विचारक के सम्मुख यह गम्भीर समस्या आ जाती है कि उन विभेदों की छाया में कौनसी समानता अन्तर्निहित है, जो इसका समाधान दे सकती है।

ज्ञात होता है –तत्व की वास्तविकता के स्वरुप का विस्तार अनन्त है। समय-२ पर जो तत्वदर्शी विद्वान प्रादुर्भूत होते रहे हैं , और उस तत्व की वास्तविकता के महासागर का अवगाहन करते रहे हैं; उन्होंने लोककल्याण की भावना से उस अथाह सागर के उतने ज्ञान-रत्नों को प्रस्तुत करने का स्तुत्य यत्न किया है, जिनको उस समय के जन-मानस के लिये आवश्यक अथवा अपेक्षित समझा। उनके सामने यह परिस्तिथी सदा जागरूक रही है कि जिन व्यक्तियों के लिये यह तत्व स्वरुप आलोकित किया जा रहा है , उसे ग्रहण करने की क्षमता उन व्यक्तियों में कहा तक है। इस प्रकार प्रत्येक दर्शन तत्व विषयक जितने अंश का वर्णन करता है, उसीको पूर्ण और अन्तिम समझकर उनके परस्पर विरोध की घोषणा कर देना उचित नहीं है।

इस विचार की छाया में यदि हम दर्शनों के प्रतिपाद्य विषयों पर ध्यान दें , तो स्पष्ट हो जाता है , कि प्रत्येक दर्शन एक दूसरे का पूरक है और वैदिक है, विरोधी नहीं है। भारतीय दर्शनों के दो विभाग किये जाते हैं—एक आस्तिक दर्शन , दूसरा नास्तिक दर्शन। आस्तिक दर्शन छः हैं –न्याय,वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा ,वेदान्त। नास्तिक दर्शनों में चार्वाकदर्शन, जैनदर्शन, तथा बोद्धदर्शन का समावेश है।

आस्तिक दर्शनों को लीजिए – सभी मान्य आस्तिक धर्म-शास्त्र शब्द प्रमाण के रूप में सर्वोपरि वेद को निर्बाध स्वीकार करते हैं। न्यायदर्शन में प्रमाण , प्रमेय आदि का वर्णन है, वस्तुमात्र की सिद्धि के लिये प्रत्येक स्तर पर प्रमाणों का आश्रय लेना पड़ता है। इस स्तिथि का कोई दर्शन विरोध नहीं करता। न्याय इसीका मुख्यरूप से वर्णन करता है। तत्वविषयक जिज्ञासा होने पर प्रारम्भ में उस विषय की शिक्षा का उपक्रम वहीँ से होता है, जिसका प्रतिपादन वैशेषिक ने किया है। यहाँ उन भौतिक तत्वों का विवेचन है, जो जीवन के सीधे सम्पर्क में आते हैं । मानव जीवन अथवा प्राणिमात्र जिस वातावरण से आवेष्टित है, और अपने निर्वाह तथा अपने अस्तित्व को –जब तक सम्भव हो –बनाये रखने के लिये साक्षात् जिन भूत-भौतिक तत्वों की अपेक्षा रखता है , उनका तथा उनके स्थूल-सूक्ष्म साधारण स्वरूप एवं उनके गुण-धर्मों का विवेचन करना वैशेषिक दर्शन का मुख्य विषय है। यह ग्रन्थ आधुनिक भौतिकी का आधार स्तम्भ भी कहा जा सकता है। इसको जानकार ही आगे तत्वों की अतिसूक्ष्म अवस्थाओं को जानने-समझने की ओर प्रवृत्ति एवं क्षमता का होना अधिक सम्भव है। इसके विरोध का कहीं अवसर नहीं आता , यह तत्वविषयक जानकारी का अपना स्तर है। वेदान्त आदि के प्रतिपाद्य विषय को समझने के लिये ज्ञान-साधन के इस स्तर से गुजरना आवश्यक है। वेदान्त अथवा कोई अन्य दर्शन इसका विरोध नहीं करता।

तत्वों की उन अतिसूक्ष्म अवस्थाओं और चेतन-अचेतन रूप में उनके विश्लेषण को तथा उनके वस्तुभूत भेदज्ञान की आवश्यकता को सांख्य प्रस्तुत करता है। प्रमाणों से वस्तुसिद्धि और वैशेषिक के तत्त्व विषयक प्रतिपाद्य अंश को वह अपनी सीमा में समेटे रखता है। तब न्याय-वैशेषिक के साथ उसके विरोध का प्रश्न ही नहीं उठता। न वे दोनों संख्य का विरोध करते हैं, क्योंकि उनका अपना –प्रतिपाद्य विषय का –सीमित क्षेत्र है। वेदान्त आदि के साथ भी सांख्य का कोई विरोध नहीं है, क्योंकि वेदान्त के मुख्य प्रतिपाद्य विषय को स्वीकार करने से नकार नहीं करता।, और न मीमांसा-प्रतिपाद्य धर्मानुष्ठान का वह विरोधी है। सांख्य ने चेतन-अचेतन के जिस विश्लेषण को प्रस्तुत किया है, उसके साक्षात्कार की प्रक्रियाओं का वर्णन योगदर्शन में है। इसका भी विरोध कोई दर्शन नहीं करता। वेदान्त केवल ब्रह्मा के अस्तित्व को सिद्ध करता है, वेदान्त का अध्यन मात्र उस चेतन ब्रह्म के स्वरुप का साक्षात्कार नहीं करा सकता; उसके लिये योगदर्शन की प्रक्रियाओं तथा औपनिषद उपासनाओं का आश्रय लेना होता है। तब वेदान्त आदि के साथ इसका विरोध कैसा।

योगप्रतिपाद्य इन प्रक्रियाओं के मुख्य साधनभूत मन अथवा अन्तःकरण की जिन विविध अवस्थाओं के विश्लेषण का योग में वर्णन किया गया है, वह मनोविज्ञान की विभिन्न दिशाओं का एक केन्द्रभूत आधार भी है। समाज की समस्त गति-प्रगतियों की डोर इसीके हाथ में रहती है। तब समाज के कर्तव्य-अकर्तव्यों का विश्लेशानात्मक विवेचन प्रस्तुत करने वाले मीमांसाशास्त्र का इससे विरोध कैसा ? समस्त विश्व के संचालक व नियन्ता चेतन-तत्व का वर्णन वेदान्त करता है। जगत के कर्ता-धर्ता-संहर्ता के रूप में प्रत्येक शास्त्र ने इसको स्वीकार किया है, कोई इसका प्रतिषेध नहीं कर्ता। वेदान्त का तात्पर्य केवल ब्रह्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने में है, अन्य तत्वों के प्रतिषेध में नहीं।

(शेष अगले भाग में)