शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

साँख्य दर्शन

अनेक शताब्दियों से यह प्रवाद रहा है की महर्षि कपिल अनीश्वरवादी थे और उनके द्वारा लिखित सांख्य दर्शन इश्वर को नहीं मानता। परन्तु साँख्य दर्शन का गंभीर तर्कपूर्ण अध्यन इस परिणाम पर नहीं पहुँचता तो यह प्रश्न यह उठता है इस प्रवाद का रहस्य क्या होगा। साँख्य शास्त्र के साथ कपिल का नाम आदि काल से जुडा हुआ है। इस बात में समस्त भारतीय दर्शन निर्विवाद रूप से एकमत है की साँख्य के प्रवक्ता आदि विद्वान परम ऋषि कपिल है। कपिल के अनंतर साँख्य दर्शन में अनेक ऐसे आचार्य हें हैं जिन्होंने इस विषय में कपिल के विचारों से अपना मतभेद प्रस्तुत किया है। उनमें से एक मुख्य आचार्य वार्षगण्य है। उसका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है पर साँख्य के व्याख्या ग्रंथो में उसके कतिपय उद्धृत सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं जिनके अनुसार वार्षगण्य के विचारों का ज्ञान प्राप्त होता है उसका एक सन्दर्भ युक्तिदिपिका में उद्धृत है जिसके अनुसार आदिसर्ग में प्रधान की प्रवृत्ति चेतना रहित हुआ करती है इससे स्पष्ट है प्रकृति की प्रवृत्ति में चेतन प्रेरणा की अपेक्षा स्वीकार नहीं करता, यह मान्यता जगत के प्रति ईश्वर के नियंत्रण को हटा देती है। भारतीय साहित्य पर साँख्य के अनुपम प्रभाव का लाभ उठाने की भावना से अनीश्वरवादी बोद्ध विद्वानों ने अपने उदय काल में वार्षगण्य के इस सिद्दांत का साँख्य के नाम से प्रचार किया जो कालांतर में साँख्य के प्रवक्ता कपिल के होने से कपिल पर आरोपित हो गया। उसके पश्चात उक्त विचार के प्रभाव में मध्य-कालिक विद्वानों द्वारा साँख्य के ईश्वरासिद्धेः सूत्र के वास्तविक आर्थ समझने में भ्रान्ति हो जाने के कारण इस विचार को काफी हवा दी गयी और इस आधार पर कपिल को अनीश्वरवादी मान लिया गया।

वस्तुतः कपिल इस साँख्य सूत्र में जड़ प्रकृति को जगत का मूल उपादान स्वीकार करने के कारण ईश्वर को जगत का केवल अधिष्ठाता व नियंता मानते हैं। इसी कारण प्रकृति के अतिरिक्त ईश्वर तथा अन्य किसी तत्व को जगत के उपादान होने का निषेध किया गया है। ईश्वरासिद्धेः सूत्र में भी जगत के उपादानभूत ईश्वर को असिद्ध बताया है। सर्वजगतनियंता ईश्वर का यहाँ निषेध नहीं है। पूर्वापर प्रसंग के अनुसार यह अर्थ किस प्रकार स्पष्ट होता है यह उस सूत्र के प्रकरण से ही पता चल जाता है। साँख्य के अन्य प्रसंगों में भी ईश्वर के जगतनियंता व अधिष्ठाता होने तथा प्रकृति के जगादुत्पादन होने का विस्तृत वर्णन है।

जिस प्रकार किसी घड़े के निर्मित होने में 3 कारण होते हैं पहला उपदान कारण जोकि यहाँ मिटटी है दूसरा निमित्त कारण जोकि यहाँ कुम्भकार है अथवा ज्ञान या चेतन है और तीसरा कारण है घड़े का प्रयोजन अथवा निर्माण का उद्देश्य जोकि यहाँ अन्य घड़े के उपयोगकर्ता हैं। इन ३ मुख्य कारणों के अलावा सहायकभूत कारण जोकि यहाँ चाक, पानी आदि हैं और उनके भी 3 ही मुख्य कारण होते हैं उपादान, निमित्त और प्रयोजन। उसी प्रकार जगत का एक कारण प्रकृति-उपादान दूसरा सर्वज्ञ ईश्वर-निमित्त और प्रयोजन - अनंत आत्माएं हैं और आत्मा को अविवेक होने के कारण ईश्वर आत्माओं के लिए प्रकृति से जगत निर्मित कर देता है किन्तु स्वयं इन सबसे मुक्त होता है।

सत्व , रजस् और तमस् ये ३ प्रकार के मूल तत्व हैं इनकी साम्यवस्था का नाम प्रकृति है अर्थात जब ये तत्व कार्यरूप में परिणित नहीं होते, प्रत्युत मूल कारण रूप में अवस्थित रहते हैं तब इनका नाम प्रकृति है। समस्त कार्य की कारणरूप अवस्था का नाम प्रकृति है। इस प्रकार कार्यमात्र का मूल उपादान होने से गौण रूप में भले इसे एक कहा जाये ,पर प्रकृति नाम का एक व्यक्ति रूप में कोई तत्व नहीं है। कार्यमात्र के उपादान कारण की मूल भूत स्तिथि 'प्रकृति'है। समस्त वैषम्य अथवा द्वन्द्व विकृति अवस्था में संभव हो सकते है, इसलिए प्रकृति स्वरूप को साम्य अवस्था कहकर स्पष्ट किया जाता है। इस प्रकार मूल तत्व ३ वर्ग में विभक्त है और वह संख्या में अनंत है । जब चेतन की प्रेरणा से उसमें क्षोभ होता है तब वे मूल तत्व कार्योन्मुख हो जाते हैं । अर्थात कार्यरूप में परिणित होने के लिए तत्पर हो जाते हैं। तब उनकी अवस्था साम्य न रह कर वैषम्य की और अग्रसर होती है तब उनका जो प्रथम परिणाम है उसका नाम महत् होता है। इसीको बुद्धि या प्रधान कहते हैं।

यहाँ से सर्ग का आरम्भ होता है महत् से अंहकार आदि और तत्व बनते चले जाते हैं (यहाँ विवरण देने से लेख काफी लम्बा हो जायेगा)। इनमें मूल प्रकृति केवल उपादान, तथा महत् आदि तेईस पदार्थ उसके विकार हैं। ये चौबीस अचेतन जगत है। इसके अतिरिक्त पुरुष अर्थात चेतन तत्व है। इस प्रकार चौबीस अचेतन और पच्चीसवां पुरुष चेतन है। चेतन तत्व भी २ वर्गों में विभक्त है, एक परमात्मा दूसरा जीवात्मा। परमात्मा एक है जीवात्मा अनेक, अर्थात संख्या की द्रष्टि से अनंत हैं। ये हैं वे समस्त तत्व जिनके वास्तविक स्वरुप को पहचान कर अचेतन तथा चेतन के भेद का साक्षात्कार करना है।

बहुत लोग साँख्ययोग को एक साथ जोड़ कर देखते हैं और उसको एक ही पुस्तक या दर्शन समझते हैं। साँख्य के साथ योग का नाम इसलिए लिया जाता है जैसे हम भौतिक-रसायन, जीव-वनस्पति विज्ञानं आदि विषयों को जोड़ी में रखते हैं अन्यथा साँख्य दर्शन एवं योग दर्शन दोनों अलग पुस्तकें हैं और एक दुसरे की पूरक हैं। इसी प्रकार हम न्याय-वैशेषिक (न्याय दर्शन , वैशेषिक दर्शन ) और वेदांत-मीमांसा (वेदांत दर्शन अथवा ब्रह्मसूत्र , मीमांसा दर्शन ) का नाम लेते हैं पर वो सभी हैं अलग -अलग पुस्तकें। साँख्य योग में जगत के उन मूल तत्वों की संख्यात्मक विवेचना की है जो नेत्रों से दिखाई नहीं देते किन्तु जगत के मूल कारण में वो ही तत्व मुख्य होते हैं। और मोक्ष क्या है और उसकी प्राप्ति कैसे होती है इन सब बातो का भी उसमें उत्तर है । साँख्य को पढने मात्र से ही यह तत्व भेद्ज्ञान नहीं होता जब तक योग दर्शन के अनुरूप सबीज और निर्बीज समाधि तक नहीं पंहुचा जाये। इन तत्वों, आत्मा और इश्वर का साक्षात्कार केवल पढने मात्र या साधारण ज्ञान प्राप्त करने से नहीं होता है इसके लिए उच्च कोटि का पुरषार्थ चाहिए।

इससे स्पष्ट है की वास्तविक सांख्य सिद्दांत अकाल में ही किस प्रकार भ्रान्ति-घटाओं में आच्छादित होते रहे हैं। आचार्य उदयवीर शास्त्री के भाष्य में उनको विच्छिन्न कर वास्तविकताओं को स्पष्ट किया गया है। विवेकशील पाठक मनन करने पर स्वयं अनुभव कर सत्य का निर्धारण कर सकते हैं ।