शुक्रवार, 11 जून 2010

सुवचन-सुधा

११.) अर्थसम्पप्रकृतिसम्पदं करोति ।

अर्थ-सम्पत्ति ‘प्रकृति-सम्पत्ति’ (अमात्य, सेना, मित्र आदि सम्पत्ति)को उत्पन्न करने वाली होती है

१२.) प्रकृतिसम्पदा ह्मानायकमपि राज्यं नीयते ।

प्रकृतिसम्पत्ति के द्वारा नेतारहित राज्य का भी सञ्चालन किया जा सकता है

१३.) प्रकृतिकोपस्सर्वकोपेभ्यो गरीयान् ।

‘प्रकृतिकोप’ सब कोपों से बलवान होता है।

१४.) अविनीतस्वामिलाभः श्रेयान् ।

विनयहीन स्वामी के लाभ से , स्वामी का लाभ न् होना ही अच्छा है।

१५.) संपाद्यात्मानमन्विच्छेत्सहायवान् ।

अपने आपको शक्ति-सम्पन्न बनाकर, फिर सहायकों की इच्छा करो।

१६.) नासहायस्य मन्त्रनिश्चयः ।

सहायकहीन राजा के मन्त्र(विचार) का, कभी निश्चय नहीं हो सकता।

१७.) नैकं चक्रं परिभ्रमयति ।

एक पहिया कभी गाड़ी को घुमा नहीं सकता।

१८.) सहायस्समसुखदुःखः ।

सहायक वही होता है, जो अपने सुख और दुःख में बराबर का साथी रहे।

१९.) मानि प्रतिमानिनमात्मनि द्वितीयं मन्त्रमुत्पादयेत् ।

मानी पुरुष , अपने समान दूसरे मानि पुरुष को ही अपना सलाहकार बनावे।

२०.) अविनितं स्नेहमात्रेण न् मन्त्रे कुर्वीत् ।

विनयपुरुष को , केवल स्नेह के कारण, कभी मन्त्र (सलाह या विचार) करने में सम्मलित न करे।

२१.) श्रुतवन्तमुपधाशुद्धं मंत्रिणं कुर्वीत् ।

विद्वान तथा सब तरह से परीक्षा किये हुये शुद्धह्रदय पुरुष को मन्त्री बनावे।

गुरुवार, 10 जून 2010

सुवचन-सुधा

१.)सुखस्य मूलं धर्मः ।

सुख का मूल(कारण) धर्म है।

२.)धर्मस्य मूलमर्थः ।

धर्म का मूल अर्थ है।

३.)अर्थस्य मूलं राज्यम् ।

अर्थ का मूल राज्य है।

४.)राज्यमूलमिन्द्रियजयः

इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना ही राज्य का मूल है।

५.)इन्द्रियजयस्य मूलं विनयः ।

इन्द्रियों के विजय का मूल विनय है।

६.)विनस्य मूलं वृद्धोपसेवा ।

वृद्धों की सेवा करना विनय का मूल है।

७.)वृद्धोपसेवाया विज्ञानम् ।

वृद्धों की सेवा का मूल विज्ञान है।

८.)विज्ञानेनात्मानं संपादयेत ।

इसीलिए पुरुष विज्ञान से अपने-आपको सम्पन्न बनावे।

९.)संपादितात्मा जितात्मा भवति

जो पुरुष विज्ञान से सम्पन्न होता है, वह अपने ऊपर काबू पा सकता है।

१०.)जितात्मा सर्वार्थेस्संयुज्येत

अपने ऊपर काबू रखने वाला पुरुष सब अर्थों से सयुंक्त हो जाता है।

( क्रमशः)

बुधवार, 9 जून 2010

हिंदू वेदों को इतना अत्यधिक महत्त्व क्यों देते हैं?

(लेख थोड़ा दीर्घ है किन्तु अतिरिक्त समय में पढ़े अवश्य विशेष तौर पर हिन्दू लोग क्योंकि उन्हें अपने धर्म के मूल को तो जानना चाहिये कम से कम.)

हिंदू धर्म में वेदों का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है. सभी हिंदू धार्मिक ग्रन्थ अपनी बातों को प्रमाणित करने के लिये शब्द प्रमाण के अन्तर्गत वेदों को सर्वोपरि स्थान देते हैं. किन्तु आज अधिकतर लोगो का मानना है कि इन वेदों को किसी पूर्वकाल में मनुष्यों ने समयानुसार अपने ज्ञान के अनुरूप लिखा था जिनमें कुछ बात सही हैं और कुछ गलत. कुछ हिंदू लोग मानते हैं वेद ईश्वरकृत ज्ञान है. अब इनमें ऐसा क्या लिखा है जो कुछ लोग गलत और कुछ लोग इनको सम्पूर्ण सत्य मानते हैं. यहाँ मैं इस लेख में केवल यह ही कहना चाहूँगा कि जो लोग इनमें असत्य या गलत बातों का आरोप लगाते हैं वे इस बात का आत्म-मंथन अवश्य करें कि वेद-भाष्य करने वाला या वेदों पर पुस्तक लिखने वाला किस स्तर, मानसिकता और कितना ज्ञान रखता है क्योंकि वेदों में भी और सभी प्रामाणिक वैदिक ग्रन्थों में वेद भाष्य का अधिकार केवल ध्यान अवस्था की उच्चतम अवस्था सबीज या निर्बीज समाधि तक पहुँचने वाले इंसान को ही दिया है. आजकल की संस्कृत या अन्य विषयों की डीग्री या थोड़ा बहुत शाब्दिक ज्ञान रखने वालों का वेद-भाष्य विद्वानों के मध्य मान्य नहीं होता है. एक तो ये डिग्रीयां वैदिक संस्कृत की ही नहीं हैं और यदि उसको वैदिक संस्कृत आती भी है तब भी जब तक वह योग, सांख्य दर्शन आदि के अनुरूप जितेन्द्रिय होकर अष्टांग योग का पालन नहीं करता है उसकी व्याख्या मान्य नहीं है. इसका एक सीधा सा कारण है वेदों में तत्वों के यथार्थ रूप, सृष्टि-सृजन, आत्मा-परमात्मा, जीवन-मौत जैसे अत्यन्त गूढ़ विषयों के साथ-२ मानव जीवन के लिये आवश्यक समस्त विज्ञान, गणित, संख्या आदि के मूल और सामाजिक, राजकीय इत्यादि सभी विषयों के ज्ञान का वर्णन हैं. मंत्रो के वास्तविक अर्थ और व्याख्या को समझाने वाला यदि कोई साधारण पुरुष होगा तो निश्चित तौर पर अर्थ का अनर्थ कर देगा. और यही कारण है आज वेदों को साधारण पुस्तक समझने की भूल का. उदाहरण के तौर पर आधुनिक युग में आइंस्टीन की रिलेटिविटी थियोरी को यदि कम बुद्धि वाला व्यक्ति और भौतिक शास्त्र को न जाने वाला व्यक्ति व्याखित करे तो वो उसको क्या समझेगा या क्या समझायेगा.

वेदों से मेरा तात्पर्य स्याही, कलम द्वारा लिखित पुस्तक से नहीं है मेरा तात्पर्य केवल उस ज्ञान से है जो वेद नाम से जाना जाता है. मैं फिलहाल वेदों में क्या लिखा और क्या नहीं लिखा है उस पर विचार न करते हुए यहाँ केवल इस बात पर विचार कर रहा हूँ कि वेद ईश्वरीय ज्ञान क्यों कहलाते हैं. क्योंकि बहुत लोगो का ये मानना है कि वेदों में उच्च स्तर का तो ज्ञान है किन्तु ये हैं ऋषियों या बुद्धिमान मानव द्वारा निर्मित ही हैं . इनके ईश्वर द्वारा कृत होने में क्या लाभ या तर्क है.

यहाँ एक नए द्रष्टिकोण से विचार किया गया है. यहाँ विषयानुरूप इस लेख में न कोई वेद प्रमाण दिया गया है न किसी अन्य शास्त्र का और न किसी ऋषि की उक्ति का निर्देश है, फिर भी पाठक को इसमें कुछ प्रेरणाप्रद तत्व अवश्य मिलेंगे.

मनुष्य को पूर्णरूप से जाने बगैर कोई विचार ठीक-ठीक समझ नहीं आता और न आ सकता है, क्योंकि यह मनुष्य ही तो है जो विचारशील है. तो प्रथम ‘मनुष्य क्या है’ यह जानना आवाश्यक है.

देखने से यह प्रतीत होता है कि शरीर और एक शक्ति के सम्बन्ध से जो वस्तु या व्यक्ति बनता है, वह मनुष्य कहाता है. इस समय हमें सिर्फ उसी शरीर और शक्ति पर ध्यान देना है जो मनुष्य को उत्पन्न करता है, और अन्य प्राणियों का यहाँ वृतान्त नहीं है.

मनुष्य पैदा होता है और उसी समय एक ध्वनि करता है. वह माता के स्तन से दूध पीने लगता है. वह मलमूत्र करता है ; और भी क्रियायें करता देखा जाता है. ये सब क्रियायें उसको किसी ने नहीं बताई हैं, यानि उसमें स्वाभाविक हैं. इस तरह ज्यों-ज्यों वह बढ़ता जाता है और उसमें बहुत से लक्षण पाए जाते हैं, उन्ही में ज्ञान भी है. इसी कारण बहुत से विद्वानों ने या ऋषियों ने , या योगियों ने कहा है और गौर करने पर अब भी प्रतीत होता है कि मनुष्य में ६ लक्षण हैं , वे हैं –सुख ,दुःख ,राग द्वेष ,ज्ञान , प्रयत्न.

यहाँ हमें ज्ञान को समझना है कि उसको कोई देता है या उसका , यानि मनुष्य का स्वभाविक गुण है. मनुष्य सृष्टि का एक अंग है और सृष्टि हमेशा होती आई है, यानि सृष्टि का होना अनिवार्य है है, यानि अनादी है.

मनुष्य जो अपनी इन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करता है, इसी कारण मनुष्य में ज्ञान-इन्द्रियां कहीं जाति हैं. परन्तु एक और मन या अन्तःकरण , जिसका नाम बुद्धि है भी मनुष्य में है. इनकी सबकी सहायता से मनुष्य अपने लिये जो उसे लाभदायक प्रतीत होता है, कार्यप्रणाली बना लेता है, अर्थात ज्ञान वह है जिससे वह बाह्य पदार्थ से अपने को लाभ पहुँचाने की रीती निकालता है और अपने विचार बनाता है .

अब जब हम यह देखते हैं कि मनुष्य में ज्ञान स्वाभाविक है और उसमें प्रयत्न भी है जिससे ज्ञान बढ़ सकता है , तो किसी अन्य प्रकार से ज्ञान ग्रहण करके अपने विचार बनाने की क्या आवश्यकता है ? अर्थात मनुष्य को ज्ञान देने का क्या अवसर है ? अर्थात यह मानना कि ईश्वर ने मनुष्य को आदिसृष्टि में ज्ञान दिया , किसी तर्क से ठीक प्रतीत नहीं होता?

इस बात को मानने से कि वेद ईश्वरकृत ज्ञान है, मनुष्यमात्र विशेषकर हिंदुओं की बड़ी हानि हुयी है और हो रही है, जिस भ्रान्ति को मिटाना मनुष्य का कर्तव्य है.

आजकल सभी का अनुभव यह है कि हर-एक जो जिस मत का अनुयायी है , अपने मत को सबसे अच्छा मानता है और अन्य प्रकार के विचारवालों की बातें सुनना या उनपर विचार करना भी अपनी बे-इज्जती समझता है; परन्तु प्रायः हिंदू धर्म के विद्वानों या आर्यों को यह कहते सुना जाता है कि हम तो केवल जो बात बुद्धि के अनुकूल होती है अर्थात तार्किक विद्वता पूर्ण होती वही मानते हैं.

आधुनिक समाज में यह भी विचार है कि यदि मनुष्य या कोई विद्वान मनुष्य की परिभाषा कर ले और ज्ञान की भी, तो उसका फल यही हो सकता है कि वेद मनुष्यों के विचारों की पुस्तक है , न कि परमात्मा का दिया हुआ ज्ञान है. मनुष्यों को जो वेदों के काल में अपनी आवश्यकता के अनुसार कुछ विचार उत्पन्न हुए, वे लिख दिए या बना लिये. मनुष्यों को जिससे लाभ होता है वह उसकी पूजा करता है, परन्तु ईश्वर से न तो कोई लाभ होता है और न हो सकता है. यह तो माना जा सकता है कि कोई ऐसी वस्तु अवश्य होनी चाहिये. ऐसा मानने में कोई बुद्धि का काम नहीं है.परन्तु बुद्धि स्वाभाविक है और मनुष्य अनादि है, क्योंकि मनुष्य न हो तो सृष्टि का विचार कौन कर सकता है ? और बगैर मनुष्यों के सृष्टि ही नहीं, क्योंकि सृष्टि अनादि है; या सृष्टिक्रम अनादि है तो ईश्वर को सृष्टि बनाने या न बनाने में कोई अधिकार ही नहीं, तो मनुष्य जो सृष्टि का अंग है, जैसा और जहाँ तक उसका मस्तिष्क जिस काल में ले जाता है वही विचार बना लेता है, इस कारण वेद ईश्वरकृत नहीं हो सकते.

उपरोक्त विचार किसी भी विचारवान व्यक्ति के दिमाग में आ सकते हैं इसमें कोई शंका नहीं है. अब यहाँ से इन शंकाओं के निवारण पर विचार करते हैं.

शंका- वेद ईश्वर का दिया ज्ञान है, इस बात को समझने के लिये यह जानना आवश्यक है कि यह ज्ञान किसके लिये दिया गया है?

निवारण- यह ज्ञान समस्त मनुष्यमात्र के लिये दिया गया है. सब मनुष्य इसके अधिकारी हैं. मनुष्य से अतिरिक्त अन्य प्राणियों के लिये यह ज्ञान नहीं है.

शंका- यह ज्ञान कब दिया गया ?

निवारण- इस विषय के जानकारों का कहना है कि सृष्टि-रचना होने के अनंतर जब जब सर्वप्रथम मानव का प्रादुर्भाव हुआ, उसी समय विशिष्ट मानवों के मस्तिष्क में किसी दिव्य आलौकिक शक्ति के द्वारा उस ज्ञान ज्ञान का उद्भावन किया गया.

शंका- यदि यह मनुष्यमात्र के लिये दिया गया, तो पहले यह जानना होगा मनुष्य क्या है ? और उसके लिये ज्ञान की आवश्यकता भी है या नहीं.

निवारण- आपका कहना उचित है, पर इस विषय में आपका अपना विचार क्या है ?

शंका- हमारे विचार में तो देखने से यह प्रतीत होता है कि शरीर और एक शक्ति के सम्बन्ध से जो वस्तु या व्यक्ति बनता है , वह मनुष्य कहाता है. इस समय हमें सिर्फ उसी शरीर और शक्ति पर ध्यान देना है, जो मनुष्य को उत्पन्न करता है. और प्राणियों का यह वृतान्त नहीं.

निवारण- यह पहले ही कहा गया है कि वेदज्ञान मनुष्यमात्र के लिये है, अन्य प्राणियों के लिये नहीं. मनुष्य कहे जाने वाले देह के साथ जब एक शक्ति का सम्बन्ध होता है, वह मनुष्य है, यही आपका मनुष्य से अभिप्रायः है तो इसे ईश्वर द्वारा सृष्टि के आदि में ज्ञान दिए जाने के लिये आप क्या कहते हैं.

शंका- हमारा कहना है कि मनुष्य जब पैदा होता है उसी समय एक ध्वनि करता है, वह माता के स्तन से दूध पीने लगता है, वह मल-मूत्र करता है, और भी क्रियाएँ करता देखा जाता है. ये सब क्रियायें उसको किसी ने नहीं बाताई हैं, अर्थात उसमें स्वाभाविक हैं. इस तरह ज्यों-ज्यों वह बढ़ता जाता है, उसमें और बहुत से लक्षण पायें जाते हैं, उन्हीं में ज्ञान भी है. इसी करण ऋषियों ने कहा है और गौर करने पर अब भी प्रतीत होता है मनुष्य में छः लक्षण हैं – सुख, दुःख, राग, द्वेष, ज्ञान, प्रयत्न.

निवारण- आपके कहने का तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि इस मनष्य-देह के साथ जिस शक्ति का सम्बन्ध आपने बतलाया है , वह शक्ति वही है, जिसको ऋषियों ने जीवात्मा कहा है. ज्ञान, प्रयत्न आदि लक्षण उसी के बताये गए हैं. फलतः एक विशेष प्रकार के देह के साथ जीवात्मा का सम्बन्ध होना मनुष्य का स्वरूप है. जब बालक के रूप में यह प्रादुर्भूत होता है , उस समय की इसकी क्रियाओं और चेष्टाओं को आपने स्वाभाविक कहा है , क्योंकि उसे यह सब किसी ने बताया नहीं है.

यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि ऐसी क्रियायें सभी प्राणियों में समान रूप से होती हैं. मनुष्य की यह कोई विशेषता नहीं है. आपने इन्हें स्वाभाविक इसलिए कहा कि इस देह का प्रादुर्भाव होने पर उसे यह किसी ने सिखाया नहीं. जिन ऋषियों जीवात्मा के अस्तित्व , उसके स्वरुप का निर्णय कर उसे समझाया है. उनका कहना है कि नवजात बालक की ये क्रियायें पूर्वजन्म के संस्कार के करण होती हैं, जो प्राणी मात्र के लिये साधारण हैं. इन क्रियायों से मनुष्य की कोई विशेषता प्रकट नहीं होती. आहार, निद्रा, भय, आदि सम्बन्धी सब क्रियाएँ प्राणियों में पूर्व-संस्कारवश नवजात बालक में हुआ करती हैं, इन्हें किसी से सीखने की आवश्यकता नहीं होती. आप इन्हें स्वाभाविक बताकर ईश्वरीय ज्ञान के विषय में क्या कहना चाहते हैं?

शंका- यहाँ हमें ‘ज्ञान’ को समझना है कि यह मनुष्य को कोई देता है, या उसका स्वाभाविक गुण है. मनुष्य सृष्टि का एक अंग है और सृष्टि अनादि है. मनुष्य पांच ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करता है. एक अन्तःकरण, मन या बुद्धि है. इन सबकी सहायता से मनुष्य अपने लिये जो उसे लाभदायक प्रतीत होता है कार्यप्रणाली बना लेता है, यानि ज्ञान वह है जिससे मनुष्य बाह्य पदार्थ से अपने को लाभ पंहुचाने की रीति निकलता है और अपने विचार बनाता है.

हम यह देखते हैं कि मनुष्य में ज्ञान स्वाभाविक है और उसमें प्रयत्न भी है जिससे ज्ञान बढ़ सकता है , तो किसी अन्य प्रकार से ज्ञान ग्रहण करके अपने विचार बनाने की क्या आवश्यकता है ? अर्थात मनुष्य को ज्ञान देने का क्या अवसर है ? अर्थात यह मानना कि ईश्वर ने मनुष्य को आदिसृष्टि में ज्ञान दिया , किसी तर्क से ठीक प्रतीत नहीं होता.

निवारण- ज्ञान जीवात्मा की एक विशेषता है या उसका स्वरुप, ऐसी हालत में हम कह सकते हैं यह उसका स्वाभाविक रूप है. पर जीवात्मा स्वभावतः अल्पज्ञान और अल्पशक्ति होता है; यद्यपि प्रयत्न उसमें हैं, पर केवल अपने प्रयत्न से अपने ज्ञान विषय को बढ़ा नहीं सकता. उसे इस कार्य के लिये बहार के सहयोग की सदा अपेक्षा रहती है. आदिसृष्टि के विषय में विचार को एक ओर रखिये, वर्त्तमान सृष्टि में भी कोई बालक स्वतः ज्ञान-वृद्धि नहीं कर सकता है. उसके लिये माता, पिता, आचार्य, गुरु एवं अन्य प्रकार के अनुभवी व्यक्तियों की अपेक्षा रहती है. उपदेश द्वारा ज्ञान बढ़ाने की यह परम्परा आदिसृष्टि से चली आ रही है. इस बात की एक से अधिक बार परीक्षा की गयी है कि एक नवजात बालक को बिना उसके साथ बोले और उसको कुछ सिखाये बिना अलग एकान्त में रखा गया. उसको आहार आदि का पूरा प्रबंध रखा गया . उसकी ऐसी उम्र तक यह अवस्था रखी गयी जैसी उम्र तक माता,पिता ,गुरु आदि या अन्य पारिवारिक जनों के सहयोग से सीखने वाला बालक संसार के सभी साधारण व्यवहारों को प्रायः सीख लेता है और भाषा आदि के द्वारा अपने सब भावों को प्रकट कर सकता है. एकान्त में रखा बालक यह सब-कुछ नहीं जान सका . शरीर से सब प्रकार पुष्ट होने पर भी वह स्वतः ज्ञानवृद्धि करना तो दूर, अपने आवश्यक उचित आहार आदि को भी समझ लेने में असमर्थ रहता है.

जैसा स्वाभाविक ज्ञान मनुष्य में है, वैसा प्रत्येक प्राणी में रहता है , पर मनुष्य देह की बनावट में ऐसी विशेषताएं हैं, और देह में ऐसी कुछ ग्रंथिया और अवयव हैं कि उनके अपने उचित कार्य करते रहने पर ज्ञान-वृद्धि में अतंत सहयोग प्राप्त होता है पर यह उसी अवस्था में सम्भव है जब बाह्य उपदेश या शिक्षा आदि का उचित सहयोग हो. यह उपदेश या शिक्षा की परम्परा जब से मनुष्य ने सर्गआदिकाल में आँखें खोली हैं तभी से चली आ रही है. वर्तमान काल में माता-पिता, गुरु आदि उपदेश द्वारा बालक को शिक्षित करते हैं; बालक के माता, पिता आदि ने अपने बड़ों से उपदेश प्राप्त किया, उन्होंने अपने पूर्वजों से. इस प्रकार यह उपदेश परम्परा आदिसृष्टि तक पंहुचती है. प्रश्न यह है कि जो सर्वप्रथम मानव हुए , उनको ऐसा उपदेश किसने दिया? माता, पिता आदि उनके पूर्वज कोई न थे. इस बात को निश्चित रूप से जाना जा चुका है कि जीवात्मा को अतिरिक्त ज्ञान-ग्रहण का सामर्थ्य होने पर भी, बिना अन्य सहयोग के स्वतः ज्ञान वृद्धि में वह असमर्थ रहता है. एक सशक्त मनुष्य को गहरे पानी में छोड़ने पर वह तत्काल तैरने नहीं लगेगा, डूब ही जायेगा. पर प्रायः समस्त पशु एवं अनेक पक्षी स्वभावतः जल में छोड़े जाने पर तैर जाते हैं, उन्हें यह सिखाया किसी ने नहीं. मनुष्य एक ऐसा अपाहज प्राणी है, जो बिना सिखाए ऐसे कार्यों में अक्षम रहता है ; सिखाए जाने पर उल्टा, सीधा, तिरछा सब तरह तैर सकता है, तथा जल पर तैरने, अंदर डुबकी लगाने एवं आकाश में उड़ने आदि के अनेक साधनों का निर्माण कर सकता है जबकि अन्य प्राणियों में ऐसी कोई सम्भावना नहीं. मनुष्य की यह यह विशेषता इसकी विशेष शरीर रचना पर आधारित है जैसा कि अभी हम पहले ही कह चुकें हैं. आदिकाल में कोई लौकिक शिक्षक सम्भव न होने से, मानव की उक्त स्तिथि इस बात को प्रमाणित करती है कि उसे किसी अलौकिक पद्वति से वह ज्ञान प्राप्त होता है. जिसपर उसके आगे के समस्त व्यवहार आधारित हैं. यही एक अवसर है जब मनुष्य को उस रीति पर ज्ञान का उपदेश किया जाता है, जो अनंतर काल में साधारण रूप से अनपेक्षित है. जिस रीति पर आदिमानव को ज्ञान वृद्धि का साधन प्राप्त हुआ, उसी का नाम साक्षत्धर्मा व्यक्तियों ने ईश्वर प्रेरणा से ज्ञान प्राप्ति बताया है, उस ज्ञान साधन का मानव सदा लाभ उठा सकता है. वही साधन वेद हैं, जो सृष्टि के आदि समय से लेकर आज तक मानव द्वारा सुरक्षित हैं.

शंका- मेरा विचार है कि यदि मनुष्य या कोई विद्वान मनुष्य की परिभाषा कर ले और ज्ञान की भी, तो उसका फल यही हो सकता है कि वेद मनुष्यों के विचारों की पुस्तक है , न कि परमात्मा का दिया हुआ ज्ञान है. मनुष्यों को जो वेदों के काल में अपनी आवश्यकता के अनुसार कुछ विचार उत्पन्न हुए, वे लिख दिए या बना लिये. मनुष्यों को जिससे लाभ होता है वह उसकी पूजा करता है, परन्तु ईश्वर से न तो कोई लाभ होता है और न हो सकता है. यह तो माना जा सकता है कि कोई ऐसी वस्तु अवश्य होनी चाहिये. ऐसा मानने में कोई बुद्धि का काम नहीं है.

निवारण- मनुष्य और ज्ञान के विषय में अभी ऊपर थोड़ा उपयुक्त विचार प्रस्तुत किया गया है. उतना विचार इस समय हमारी विवेचना के लिये पर्याप्त है और आपकी उसमें सहमति है. मनुष्य और ज्ञान की स्तिथि ऐसी है कि उसमें अन्य सहयोग के बिना किसी तरह के परिवर्तन या वृद्धि आदि की सम्भावना नहीं देखी जाती. ऐसी अवस्था में आपने जो उसका परिणाम निकाला कि वेद मनुष्य के विचारों की पुस्तक है, यह वास्तविकता से सर्वथा विपरीत है. मनुष्य स्वतः बिना किसी अन्य सहयोग के अपने विचारों को इतना महान एवं विस्तृत जानकारी तक पंहुचा सकता है, यही बात तो समझनी है. हमारे सामने जो हालात हैं, उनसे गहरा विचार करने पर हम इसी नतीजे पर पंहुचते हैं कि मानव सहयोग के बिना स्वतः उस स्तिथि को प्राप्त नहीं कर सकता. ऐसा मालूम होता है कि जब मानव अपने व अन्य सहयोगियों के महान प्रयत्न के फलस्वरूप उस अवस्था में पंहुचता है कि वह ऐसी समस्याओं पर विचार कर सके, तब स्वभावतः वह अपनी उन पहली अवस्थाओं को भुला देता है, जब उसने तोतली अटपटी ध्वनियों के साथ एक विशिष्ट सामाजिक वातावरण में रहकर बोलना और अपना सुकोमल हाथ दूसरे के हाथ में देकर कलम पकड़ना सीखा था.वह स्तिथि केवल स्वभाविक ज्ञान द्वारा प्राप्त नहीं होती. यदि कोई विचारशील व्यक्ति आंकें खोल कर मानव समाज की; या अपनी पिछली यात्रा का सिंहावलोकन करे , तो वह इस नतीजे पर पंहुच सकता है कि जहाँ से मानव ने अपनी जीवनयात्रा प्रारम्भ की; वह अवस्था कैसी रही होगी – जीवन का प्रारम्भ किन दशाओं में सम्भव रहा होगा. इससे अच्छा और अधिक निर्दोष कोई अन्य मार्ग नहीं दिखाई देता कि आदिमानव को आलौकिक शक्ति द्वारा वह ज्ञान-साधन अवश्य प्राप्त हुआ, जिसके आधार पर वह अपने जीवन व्यवहार को चलने में समर्थ हो सका.

यह बात कह देने में बड़ी सरल है कि वेद काल में अपनी आवश्यकता-अनुसार जो विचार मनुष्य को उत्पन्न हुए , वे उसने लिख लिये या बना लिये , उन्हीं का नाम वेद है. वेद जिस रूप में हमारे सामने हैं , और उनमें जो कुछ है , वह सब इतना असाधारण है कि उस अवस्था तक पंहुचने के लिये मनुष्यों ने विस्तृत जगत का कितना सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त कर लिया होगा, इन्द्रियों के सर्वथा अगोचर विषयों को भी कितनी गहराई व सच्चाई के साथ जान लिया होगा , आज इसकी केवल कल्पना कर सकते हैं ; पर मूल प्रश्न यही है कि यदि कुछ सच्चाई इसी विचार में है, तो यह समस्या मुंह फाड़कर सामने आती है कि वह मानव , जिसके विचार वेद हैं –जानकारी की इतनी ऊँचीं अवस्था तक कैसे पहुँचा होगा? जबकि मानव स्वभावतः इतना अपाहज है कि बिना अन्य सहयोग के स्वतः कुछ नहीं सीख सकता.

इसके समाधान के लिये आधुनिक युग में एक ही मार्ग सुझाया गया है जो भारतीय परम्परा की इस विषय की प्रक्रियाओं की अपेक्षा करता है वह मार्ग है विकासवाद. आदिसर्ग की स्तिथि को हममें से किसी ने नहीं देखा है; जिन्होंने देखा वो आज नहीं ; हमारे–उनके सम्पर्क का कोई आधार नहीं. उसको किसी रूप में जानने या अंदाज़ा करने के लिये हमारे सामने यह प्राक्रतिक जगद्रूप पुस्तक है. इसको यदि कोई पढ़ सके , तो सम्भव है सच्चाई के समीप पहुंचने का मार्ग मिल जाये. प्राचीनकाल में साक्षातधर्मा ऋषियों ने इसे पढ़ा. उन्होंने जो परिणाम इसके प्रस्तुत किये , वे भारतीय संस्कृति व वैदिक साहित्य के रूप में कुछ सीमा तक सुरक्षित हैं. आधुनिक काल में कुछ समय से कुछ लोग इसके अध्यन का प्रशंसनीय प्रयास कर रहे हैं. अनेक जानकारियां भी सामने आ रही हैं. यह भी अपने ढंग का एक अनुपम प्रयास है , इसका अंतिम परिणाम क्या होगा, इसकी अभी प्रतीक्षा करनी होगी.सम्भव है कुछ अगली पीढियांइसे देख-समझ सकें. इसी दिशा में प्रकृति की परतों को उलटकर मानव समाज की यात्रा का जो स्वरुप किया गया है वही विकासवाद है; पर मूलतः यह एक अपसिद्धांत है.कारण यह कि संसार की ज्ञात परिस्तिथि के साथ यह मेल नहीं खाता. मूल प्रश्न यह है कि मानव का स्वतः विकास कैसे होता है? इसका उदाहरण कोई संसार में नहीं मिलता, जबकि इसके विपरीत सारा संसार प्रत्यक्ष उदाहरण है. इसीलिए संसार का ज्ञात या अज्ञात इतिहास कोई इस कल्पना की पुष्टि नहीं करता. जिन पर्त्तों को खोलकर तथाकथित उनके अध्यन से इस कल्पना का उदभावन किया गया है, वे पर्त्तें गहरे संदेशों से भरी हैं.

मानव –मस्तिष्क तथा मानव-देह की अन्य अनेक ग्रंथियों की ऐसी बनावट है जिससे ज्ञानवृद्धि के अत्यन्त साधन रूप में विशिष्ट सहयोग प्राप्त होता है, पर इसका बनाना मानव के हाथ में नहीं है. अपनी इच्छानुसार पूर्ण स्वस्थ मस्तिष्कयुक्त एवं सक्रिय ग्रंथियों से युक्त मानव-देह का निर्माण मानव द्वारा होना सम्भव नहीं, अन्यथा प्रत्येक व्यक्ति उन्नतमस्तिष्क बालक को पैदा कर सकता है. कौन ऐसा पिता हो सकता है, जो अपने पुत्र को सर्वश्रेष्ठ न होना चाहे? यह कितना आश्चर्य है कि इतना अक्षम होता हुआ भी मानव यह समझता है कि उसने स्वतः सब-कुछ अर्जित कर लिया है, उसे कभी किसी से कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं हुई !

मनुष्य के लाभ का प्रश्न भी विचारणीय है . लाभालाभ आदि आपेक्षिक भाव हैं, इनकी कोई नियत सीमा नहीं. पर समाज की उच्च स्तिथि में मानव के लिये यह विचार महत्त्व रखता है, इसमें अभ्युदय की श्रेणियाँ छिपी रहती हैं. सवाल यह कि मनुष्य के लाभ में ईश्वर के सहयोग की अपेक्षा है भी कि नहीं. मनुष्य अपने विचार तथा ऐश्वर्यों के लिये प्रयत्न करने पर जिन उपलब्धियों में सफल होता है उसे लाभ कहता है. यह ठीक है पर इन सब प्रकार की ऐहिक उपलब्धियों का जो मूल आधार है, ऐसी ऐश्वरी रचना की ओर से मानव अपनी आँखें मूँद लेता है.

आप मानते हैं संसार या संसार का क्रम अनादि है, संसार बनता व बिगड़ता रहता है, इसे प्रत्येक वैज्ञानिक समझता है. इसका बनाना या बिगाड़ना मनुष्य की शक्ति से बाहर है. जो शक्ति इसे बनाती या बिगाड़ती है, उसी का नाम ईश्वर है. ईश्वर वैसे ही मान नहीं लिया गया है . उसका अस्तित्व आवश्यक, प्रामाणिक है, अनुपेक्षणीय है. मनुष्य के सब प्रकार के ऐहिक-पारलौकिक लाभ जगाद्रचना पर अवलम्बित है. मानव –देह में बैठा देह का अधिष्ठाता[आत्मा] जो इस तर्कणा की उद्भावना किया करता है, वह सृष्टि-रचना के अनन्तर ही इस अवस्था में आ पता है. संसार की यह रचना ईश्वराधीन है., इससे मनुष्य सब प्रकार के लाभ प्राप्त किया करता है. तब क्या यह नहीं माना जा सकता कि ईश्वर द्वारा ही मनुष्य को यह लाभ हुआ है. ठीक मस्तिष्क वाले ने इस सच्चाई को समझा है , इसीलिए वह आपके शब्दों में ईश्वर की पूजा करता है, करता आया है और आगे सदा करता रहेगा.

शंका- विचार यह है कि मनुष्य अनादि है, उसकी बुद्धि या ज्ञान स्वाभाविक है , क्योंकि मनुष्य न हो तो सृष्टि का विचार कौन कर सकता है ? और बगैर मनुष्यों के सृष्टि ही नहीं, क्योंकि सृष्टि अनादि है; या सृष्टिक्रम अनादि है तो ईश्वर को सृष्टि बनाने या न बनाने में कोई अधिकार ही नहीं, तो मनुष्य जो सृष्टि का अंग है, जैसा और जहाँ तक उसका मस्तिष्क जिस काल में ले जाता है वही विचार बना लेता है, इस कारण वेद ईश्वरकृत नहीं हो सकते.

निवारण- मनुष्य की परिभाषा आपकी अनुमति से जो पूर्व-निर्दिष्ट की गयी है, उसके अनुसार उस रूप में मनुष्य को अनादि नहीं कहना चाहिये. जब एक विशेष प्रकार के देह के साथ शक्ति(आत्मा) का सम्बन्ध होता है, उसे मनुष्य कहा जाता है. इस मनुष्य –परिभाषा में देह भी आ जाता है; पर कोई देह अनादि सम्भव नहीं है. देह को बनते-बिगड़ते हम अपने सामने देखते हैं, इसीलिए मनुष्य को अनादि न कहकर इसके क्रम को अनादि कहना चाहिये. मनुष्य का क्रम अर्थात सिलसिला अनादि है, मनुष्य अनादि काल से इसी प्रकार होता आया है , यही अभिप्राय आपका मनुष्य को अनादि कहने का हो सकता है. इसमें शक्ति(आत्मा) अनादि है, देह बनते –बिगड़ते रहते हैं. ज्ञान के स्वाभाविक होने की जो बात है, उसका विवेचन पहले ही किया जा चुका है.

‘मनुष्य न हो तो सृष्टि का विचार कौन कर सकता है ? बगैर मनुष्य के सृष्टि नहीं ‘ यह कहना ठीक नहीं है. सभी वैज्ञानिक , प्राचीन और नवीन , इस बात को जानते और मानते हैं कि मनुष्य के प्रादुर्भाव से बहुत पूर्व सृष्टि की पूर्ण रचना हो चुकी होती है. सृष्टि रचना के पर्याप्त अनन्तर मानव का प्रादुर्भाव होता है. तब यह कहना कहाँ तक ठीक है कि बगैर मनुष्य के सृष्टि ही नहीं ? इसके विपरीत कहना यह चाहिये कि सृष्टि के बिना मानव का प्रादुर्भाव सम्भव नहीं. सृष्टि का विचार पीछे की बात है; जब वह अपने अस्तित्व में आ चुकी है, तो उसका विचार होना या न होना कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता. सृष्टिक्रम को अनादि मानने का तात्पर्य यही है कि सृष्टि अनादि काल से चली आ रही है . जब इसका बनना –बिगड़ना माना जाता है, तब उसके बनाने-बिगाड़ने वाले से नकार नहीं किया जा सकता. निश्चित है कि मनुष्य इसके लिये सर्वथा असमर्थ है, साथ ही मनुष्य के प्रादुर्भाव से बहुत पूर्व सृष्टि-रचना हो चुकी होती है. इसकी जो रचना करता है, वही ईश्वर है. फिर सृष्टि के बनाने में ईश्वर का कोई अधिकार नहीं , यह कैसे कहा जा सकता है ?

मनुष्य सृष्टि का अंग है, यह कथन इस बात को स्पष्ट करता है कि सृष्टि-रचना पर मनुष्य का कोई अधिकार नहीं है. मनुष्य का एक भाग देह सृष्टि-रचना हो जाने पर अस्तित्व में आ सकता है, अन्यथा नहीं. आत्मा, जो शक्ति देह के अंदर बैठकर समस्त दैहिक क्रियाकलाप को प्रेरित करती है, उसका सब लौकिक व्यवहार इस स्थूल देह पर आश्रित रहता है. देह के सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंग आत्मा-सम्बन्धी किसी भी व्यवहार के लिये उपयोगी होते हैं. देह के उन अंगों –प्रत्यंगों की क्रिया एवं प्रतिक्रिया के विषय में उसी देह के अधिष्ठाता आत्मा को कुछ भी जानकारी नहीं होती. परन्तु वे सब क्रिया एवं प्रतिक्रिया किसी नियम, किसी व्यवस्था के अनुसार अपना कार्य बराबर किया करती हैं. यदि गम्भीरता से देह की इस आन्तरिक प्रक्रिया पर विचार किया जाए, तो इस परिणाम पर पहुँचने में कोई बाधा नहीं होगी कि देह के अधिष्ठाता आत्मा का इन प्रक्रियाओं पर न कोई नियन्त्रण है और न उनकी इसे जानकारी है. उस प्रक्रिया में कभी व्यतिक्रम होने लगता है , तो अधिष्ठाता आत्मा को अपनी बेचैनी और मजबूरी का अहसास अच्छी तरह हो जाता है. स्पष्ट है कि देह की इस आन्तर व्यवस्था का व्यवस्थापक-आत्मा से अन्य कोई तत्व होना चाहिये. यह स्तिथि हमारे सम्मुख इस रहस्य को खोल देती है कि ‘ मनुष्य का मस्तिष्क जिस काल में उसे जहाँ ले जाता है, वही विचार बना लेता है.’ इस कथन में कितना बल है.

इस बात को पहले स्पष्ट कर दिया गया है कि मनुष्य चाहे जिस काल में हो, अन्य के सहयोग के बिना ज्ञानवृद्धि में सर्वथा अक्षम रहता है. इसीलिए ऐसे समय में जब उसके लिये लौकिक उपदेष्टाओं की उपलब्धि सम्भव है , आलौकिक उपदेष्टा के द्वारा उसके लिये ज्ञानवृद्धि के साधनों का उपलब्ध कराना अत्यन्त आवश्यक एवं स्वाभाविक है. इसमें गडबड होना मनुष्य की सांसारिक यात्रा को उत्पथ बना देना है. फलतः सर्गादीकाल में ईश्वर द्वारा मनुष्य के लिये सन्मार्ग प्रदर्शित करने का विचार अबुद्धिमत्तापूर्ण नहीं है. ऐसे ही आधारों पर कहा गया है कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है, यह उसी की देन है.

ऐसे विषय इन्द्रियागोचर हैं. सप्रमाण कल्पनाओं एवं ऊहाओं के आधार पर विवेचना प्रस्तुत की जा सकती है. भावुकता को छोड़कर केवल सत्यान्वेषण की भावना से इन विषयों पर मनन किया जाये तो सच्चाई तक पहुँचने की सम्भावना रहती है. पाठकगणों से मेरा हार्दिक निवेदन है कि वे स्वयं इन विषयों पर सलंग्नता से मनन करेंगे , तो उन्हें अवश्य सत्य का प्रकाश मिलेगा.

(ये लेख आचार्य उदयवीर शास्त्री द्वारा लिखे गए एक निबंध, पत्राचार के आधार पर है)

गुरुवार, 3 जून 2010

धर्म और विज्ञान तथा धर्म और राष्ट्र में कौन बड़ा ?

अक्सर लोग धर्म को ही सब चीजो की समस्या का मूल कारण बताते हैं। आपने बहुत बार ये वाक्य पढ़े या सुने होंगे -- शासन धर्म-निरपेक्ष होना चाहिये, धर्म से ऊपर उठकर भी सोचना चाहिये, धार्मिक कर्मकाण्डो में नहीं फंसना चाहिये, धर्म और विज्ञान मैं कौन श्रेष्ठ है, धर्म और राष्ट्र में कौन बड़ा है, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म-प्रचारक इत्यादि अनेक धर्म शब्द आधारित वाक्य हैं जो आजकल जीवन में प्रत्येक जगह सुनने को मिल ही जाते हैं। सबसे पहले हम धर्म और विज्ञान की बात करते है क्योंकि आजकल के बुद्दिजीवियों ने इन्हें आपस में शत्रु घोषित किया हुआ है।

विज्ञान क्या है –आधुनिक परिभाषा के अनुसार किसी विषय का विशेष ज्ञान विज्ञान है। उस विशेष ज्ञान के आधार पर कुछ प्राप्त करना या चीजो का समायोजन करके बना लेना वैज्ञानिक उपलब्धि कहलाती है जैसे कार , कम्प्यूटर, विमान इत्यादि। विज्ञान के बारे में अधिकतर लोग परिचित हैं तो उसकी अधिक व्याखा न करते हुये धर्म की संक्षिप्त में परिभाषा देकर उनकी तुलना करना अधिक बेहतर है।

धर्म क्या है – क्योंकि धर्म संस्कृत या हिंदी का शब्द है और वैदिक (हिंदू) पुस्तकों से ही इस शब्द की उत्पत्ति हुई है इसीलिए उन्ही पुस्तकों के अनुरूप उसके मूल ग्रंथों वेदों के अनुसार --परमेश्वर हम सभी मनुष्यों के लिये धर्म का उपदेश इस तरह से करता है कि – हे मनुष्यों ! जो पक्षपात रहित न्याय सत्याचरण से युक्त धर्म है, तुम लोग उसी को ग्रहण करो , उससे विपरीत कभी मत चलो, तुम लोग अपने यथार्थ ज्ञान को नित्य बढाते रहो जिससे तुम्हारा मन प्रकाशयुक्त होकर पुरूषार्थ को नित्य बढ़ावे, जिससे तुम लोग ज्ञानी होके नित्य आनंद में बने रहो और तुम लोगो को धर्म का ही सेवन करना चाहिये, अधर्म का नहीं। सक्षिप्त में इस परिभाषा के अनुसार धर्म वह है जो न्याय और सत्य है बाकी सब अधर्म है। उदाहरण के तौर पर एक न्यायधीश(Judge) यदि पक्षपातरहित निर्णय लेता है तो वह अपने धर्म का पालन करता है, माता-पिता, गुरु आदि बालक को सत्य ज्ञान का उपदेश करते हैं तो वो अपने धर्म का पालन करते हैं, एक वैज्ञानिक कुछ मानव उपकार हेतु आविष्कार करता है तो वह भी उसका कार्य धर्मान्तार्गत ही आता है।

हिंदू धर्म(वेदों) में अवयव रूप तो अनेक विषय हैं परन्तु उनमें से चार मुख्य हैं –(१) विज्ञान अर्थात सब पदार्थों को यथार्थ जानना, (२) दूसरा कर्म , (३) तीसरा उपासना, और (४) चौथा ज्ञान है। धर्म के अनुसार ‘विज्ञान’ उसको कहते हैं जो कर्म, उपासना और ज्ञान इन तीनों से यथावत उपयोग लेना और परमेश्वर से लेकर त्रणपर्यन्त पदार्थों का साक्षात बोधका होना उनसे यथावत उपयोग का करना, इससे यह विषय इन चारों में भी प्रधान है, क्योंकि इसी में वेदों का मुख्य तात्पर्य है। और यह भी २ प्रकार का है –एक तो परमेश्वर का यथावत ज्ञान और उसकी आज्ञा का बराबर पालन करना, और दूसरा यह है कि उसके रचे हुए सब पदार्थों के गुणों को यथावत विचार करके उनसे कार्य सिद्ध करना, अर्थात ईश्वर ने कौन-कौन से पदार्थ किस-किस प्रयोजन के लिये रचे हैं। और इन दोनों में से भी जो ईश्वर का प्रतिपादन है वो ही प्रधान है

आपने बहुत से निबंध आदि इस विषय पर पढ़े होंगे जो धर्म और विज्ञान के मतभेद को बताते हुए अंत में विज्ञान को श्रेष्ट सिद्ध कर देते हैं। पर वास्तव में वे लोग विज्ञान की तुलना धर्म का नाम लेकर किये जा रहे विभिन्न अंधविश्वासों और बहुत से क्रिया-कलापों से करते हैं, या तो वो धर्म से अनभिज्ञ हैं या फिर वे जान-बूझकर अपने को जल्दबाजी में श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहते हैं। वेदों में बहुत सारी अतार्किक और असत्य बातें लिखी हैं और ये आज के समय में अप्रसांगिक हैं यह कहने वालो की संख्या हिंदुओं में ही अधिक मिल जायेगी कहीं और जाने की भी जरूरत नहीं है। इसका कारण अपने को श्रेष्ठ घोषित करने के लिये और अशिक्षा आदि के कारण विभिन्न प्रतिस्पर्धा से उपजे सैकड़ों मत (मजहब, रिलीजन, सम्प्रदाय आदि) हैं जिन सबकी नीव ही वैदिक सनातन धर्म के विरोध स्वरुप खड़ी है, यदि ये वेदों में वास्तविक जो सत्य लिखा है उसको बताएँगे तो इनकी कौन सुनेगा इसीलिए इन्होने हमेशा से ही वेदों का अत्यधिक दुष्प्रचार किया है और आज भी यहीं कारण है समस्त विश्व के मत आदि इस वैदिक सनातन संस्कृति को जड़ से मिटाने का अपना निरंतर प्रयास जारी किये हुए हैं।

धर्म कभी भी विज्ञान विरोधी नहीं है अपितु उससे ही विज्ञान निकला है, यह बात शायद आपको अजीब लगे क्योंकि धर्म और विज्ञान को आज मनुष्यों ने एक दूसरे का प्रतिस्पर्धी बना दिया है जबकि प्रामाणिक सत्यता कुछ और ही कहती है। धर्म कोई अपना किसी का निजी मत, सम्प्रदाय, मजहब या रिलीजन नहीं है जो एक मत के वर्ग के लिये ही होता है। धर्म समस्त मानव जाति के कल्याणार्थ हेतु होता है। हम सभी अपने दैनिक जीवन में कुछ ना कुछ धर्म का पालन करते ही हैं अन्यथा यदि मनुष्य धर्म का पालन ना करे तो उसका मानव शरीर भी व्यर्थ है। जैसे यदि हम अपने बालको को शिक्षा देकर अपने धर्म का पालन करते हैं। यह बात अलग है कि हम कुछ धर्मों का पालन करते हैं और कुछ का नहीं जोकि आज मानव के दुःख का यथार्थ कारण है।

धर्म के अनुसार विश्व के समस्त मनुष्य की एक जाति है जिसमें उसके बोद्धिक स्तर के अंतर के फलस्वरूप विभिन्न वर्गों में बाटा जा सकता है किन्तु धर्म, धर्म का पालन करने से किसी को नहीं रोकता। हम हिंदू लोग अपने बच्चे को कोई भी अच्छा कार्य करने के लिये जब भी प्रेरित करते हैं तो उसको समझाते हैं यह हमारा धर्म है कर्तव्य है। जैसे किसी भी जीव को बिना मतलब सताना नहीं चाहिये यह हम सब मनुष्यों का धर्म है किन्तु दुराचारी को दण्ड देना भी धर्म है। इसी प्रकार की शिक्षा लेकर जब बच्चा बड़ा होता है और दुनिया के बाकी लोगो के सम्पर्क में आता है जिनमें बहुतसे लोग अपने किसी निजी मत को ही मान्यता देते हैं चाहे उनकी मान्यता कुछ भी क्यों न हो, तब हम बालक से यह कहकर कि ये भी धर्म हैं, एक बहुत ही गंभीर और भारी गलती करते हैं जो आज इस राष्ट्र की सबसे मूल समस्या का कारण है। क्योंकि बालक को अब तक शिक्षित यह कह कर किया जाता है जो सत्य और न्याय है वही धर्म है किन्तु बालक उन मतों की मिथ्या बातों को धर्म मानकर उनके गलत संस्कारों, मिथ्या, व्यभिचार और अनेक असत्य बातों को भी धर्म या धार्मिक कार्यों की संज्ञा देने लगता है और अपने मन में उस निर्मल वास्तविक धर्म के संस्कारों को भी संशय की द्रष्टि से देखने लगता है। अब वह सत्य हो या असत्य सभी बातों को धर्म की संज्ञा देता है। उन असत्य बातों को धर्म मानकर जब वह कभी विचलित होता है तो नए अजीब संज्ञा अर्थविरोधी आदि शब्दों का प्रयोग करता है जैसे कि एक शब्द है ‘धर्मान्ध’। धर्म मानव के मन-मस्तिष्क को प्रकाशित करता है और प्रेरणा भी देता है न कि उसको अंधा बनाता है। यदि उसे धर्म और बाकी मतों में अंतर बताया जाता तो वह ऐसा कभी नहीं कहता वह उसको श्रेष्ठ धर्मयुक्त ही कहता और बाकी को मतान्ध या अंधविश्वास। यह सब बातें देखने और सुनने में बहुत छोटी लगती हैं किन्तु गहराई से देखने पर हिंदू धर्म की दुर्दशा का कारण आपको दिखाई दे जायेगा। जैसे कि आजकल के बुद्धिजीवी भी वास्तविक धर्म को जाने बिना धर्म और विज्ञान को आपस में लड़ाते हैं ऐसे ही धर्म और राष्ट्र को , धर्म और न्याय को , धर्म और सत्य को तथा धर्म और ज्ञान को भी लड़ाते हैं। क्योंकि उनको सर्वधर्मसमभाव के अनर्थ का रट्टा घोट-घोट कर पिलाया गया है जिस कारण वो विभिन्न मतों द्वारा फैलाई गयी असत्य बातों को जानते हुए भी उनको धर्म की संज्ञा से ही सुशोभित करते हैं जबकि धर्म विज्ञान को सर्वोच्च मान्यता देता है, राष्ट्र क्या होता है यह बताता है, राष्ट्र-प्रेम और विश्व-प्रेम की शिक्षा देता है, सत्य और न्याय ही धर्म होता है और धर्म से ही मानव ज्ञान प्राप्त करता है। इस तरह की संज्ञा से वे धर्म की हानि ही करते हैं और अनजाने में लोगो को यह कहने का मौका भी देते हैं कि सभी धर्मों में गलत-सही सभी तरह की बाते हैं जबकि धर्म तो केवल सत्य और न्याय है और वह कभी गलत नहीं होता।

जो धर्म का विज्ञान के बारे में यह कहना कि ‘परमेश्वर के रचे हुए सब पदार्थों के गुणों को यथावत विचार करके उनसे कार्य सिद्ध करना’ उसको आज लोगो ने अत्यधिक महत्व दिया है किन्तु धर्म के प्रधान विज्ञान विषय ‘परमेश्वर का यथावत ज्ञान और उसकी आज्ञा का बराबर पालन करना’ को लोगो ने भुला दिया है। पदार्थों के गुणों के यथावत ज्ञान को भी आज मनुष्य ने कल्याण हेतु नहीं अपितु विश्व संहारक की तरह अधिक प्रयोग किया है जबसे उन्होंने मुख्य प्रधान विषय की अवेहलना की है। यहीं कारण है आज के विज्ञान ने मनुष्यों के दुःख को बढ़ावा ही दिया है और पृथ्वी और पर्यावरण को अत्यंत दूषित कर दिया है। २०% लोग पृथ्वी के ८०% संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं जबकि शेष ८०% लोग केवल २०% का उपयोग करते हैं। इसी से आप मनुष्य के सुखों का अंदाज़ा लगा सकते हैं।

देखिये कितना विरोधाभास है --लोग कहते हैं धर्म कहता है अहिंसा परम धर्म है जबकि वास्तव में धर्म कहता है राजाओं की सेना सभा में जो पुरुष हों वे सब दुष्टों को दण्ड , श्रेष्ठों पर शान्त स्वरुप करने वाले हों क्योंकि दुष्टों पर क्रुद्धस्वभावऔर श्रेष्ठों पर सहनशील होना यही राज्य का स्वरूप है। सभी जीवों पर दया और उनका भला मनुष्यों को करना चाहिये अर्थात उन्हें सभी जीवों के प्रति अहिंसक होना चाहिये।

लोग कहते हैं धर्म कहता है अश्वमेध यज्ञ में घोड़े को मारकर उसके अंगों का होम करना चाहिये जबकि वास्तविक धर्म कहता है –जो न्याय से राज्य का पालन करना है, वहीँ क्षत्रियों का अश्वमेध कहाता है।

लोग कहते हैं धर्म ने मनुष्यों को जातियों में विभाजित कर दिया जबकि धर्म वास्तव में मनुष्य को एक जाति और विश्व को एक परिवार कि तरह स्वीकार करता है।

लोग भांग, चरस का नशा करते हैं और कहते हैं हम ऐसे भगवान का ध्यान लगाते हैं जबकि धर्म नशे को पूर्णतयः निषेध करता है।

ऐसे ही कितने अनर्गल आरोप लोग धर्म पर लगाते हैं किन्तु सत्यता कुछ और ही है। इसीलिए कोई भी धर्म अर्थात वैदिक पुस्तक पढ़ने से पहले यह जरूर विचार लें कि लेखक का उद्देश्य, स्तर और उसकी मानसिकता क्या है अन्यथा आप धर्म के नाम पर उल्लू की बीट, कौउए की हड्डी, जानवर की खोपड़ी, मुर्दे का मांस, गन्दी यौनक्रीडाएं इत्यादि अनेक बकवास ही पढेंगे जो वास्तविक धर्म से कोसो दूर ही नहीं अत्यन्त विरोधी है।

रही बात अन्य मतों को मानने वालों के आरोपों की तो उसके लिये उनकी पुस्तकों को ही पढकर समझ सकते हैं कि उनकी मानसिकता ऐसी क्यों है।

इसीलिए धर्म को विज्ञान, राष्ट्र और न्याय इत्यादि सत्य बातों से लड़ाईये नहीं अपितु धर्म से इनको प्रमाणित कीजिये और धर्म और मत, मजहब, रिलीजन इत्यादि में अन्तर समझिये तथा उनका उपयोग उनके अर्थो के अनुरूप ही कीजिये वरना अर्थ का अनर्थ हो जाता है और लोग असत्य को भी धर्म कि संज्ञा देते हैं। ।