शुक्रवार, 26 मार्च 2010

सत्य का निर्धारण कैसे हो (न्यायदर्शनम् भाग ३)

भाग ३ –

प्रमाण का दूसरा प्रकार है अनुमान. प्रत्यक्ष के अनंतर प्रत्यक्ष पूर्वक होने वाला (अर्थात प्रत्यक्ष है कारण जिसका) ३ प्रकार का अनुमान प्रमाण है – वे ३ प्रकार हैं पूर्ववत, शेषवत, और सामान्यतोदृष्ट. अनुमान में कोई साध्य, हेतु एवं उदाहरण आदि को प्रस्तुत कर – सिद्ध किया जाता है . यद्यपि अनुमान के प्रयोग में पञ्च अवयवों(वाक्य खण्डों) का प्रयोग किया जाता है , तथापि(फिर भी) महत्वपूर्ण अवयव साध्य सिद्धि के लिए ‘हेतु’ होता है, उसीको ‘साधन’ कहा जाता है. यह नाम ही उसके महत्त्व का द्योतक है.

प्रत्यक्ष एवं अनंतर अनुमान-काल में साधन का प्रत्यक्ष होना अभिप्रेत है. साध्य-साधन के परस्पर संबंध को ‘व्याप्ति’ कहा जाता है. अनुमान में सर्वप्रथम व्याप्ति का प्रत्यक्ष ज्ञान होना चाहिये. व्यक्ति देखता है जब लकड़ियों में आग जलाई जाती है , तो उससे धुआं अवश्य निकलता है, इससे वह जान लेता है धुंए का कारण आग है, धुँआ आग के बिना हो नहीं सकता.ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान ही ‘व्यप्तिज्ञान’ है.

हेतु, साधन, लिंग ये पद एक ही अर्थ को कहते हैं, इसी प्रकार साध्य, लिंगी ये पर्याय पद हैं. साध्य और साधन अथवा लिंगी और लिंग के संबंध का उक्त प्रकार प्रत्यक्ष हो जाने के अनंतर प्रत्यक्ष ज्ञान की स्तिथि तो नहीं रहती, उसका संस्कार आत्मा में रह जाता है. ऐसा व्यक्ति जिसने लिंग-लिंगी-सम्बन्ध का प्रत्यक्ष ज्ञान कर लिया है, कभी जंगल में चला जा रहा है उसे आग की आवश्यकता होती है. इधर उधर दृष्टिपात करता हुआ चल रहा है. एक जगह उसे धुँआ उठता दिखाई देता है. उसको देखते ही वह संस्कार जाग जाता है, जो पूर्व में हुए ज्ञान से आत्मा में हुआ था. संस्कार के जागते ही साध्य-साधन के सम्बन्ध का स्मरण हो आता है . उस समय धुंए के दीखने और साध्य-साधन के सम्बन्ध का स्मरण हो आने से उस व्यक्ति को वहां अग्नि का ज्ञान हो जाता है. अनुमान-प्रमाण से हुआ यह ज्ञान अनुमिति–ज्ञान कहा जाता है.

अनुमान के पांच अवयव-

१.) सामने जगह आग वाली है. यहाँ आग साध्य है, प्रदेश (जगह) अधिकरण है. साध्य के अधिकरण को तार्किक भाषा में ‘पक्ष’ कहा जाता है . अनुमान के पांच अवयवों में यह प्रतिज्ञा वाक्य है .

२.) वहां धुआं दिखने से यह हेतुवाक्य है .

३.) जैसे लकड़ियों को जलाने में , यह दृष्टान्तवाक्य है .

४.) वैसा ही यहाँ है , अर्थात सामने धुंआ दिख रहा है. यह उपनय वाक्य कहा जाता है .

५) धुआं वाला होने से यह प्रदेश(जगह) अवश्य आग वाला है. यह निगमनवाक्य है .

इस स्मृति का मूल वह प्रत्यक्ष ज्ञान है, जो प्रथम लकड़ियों के ढेर आदि में साध्य-साधन सम्बन्ध का व्यक्ति को साक्षात् होता है . कोई अनुमान इसके बिना हो नहीं सकता , इसीलिए अनुमान के लक्षण में प्रत्यक्षपूर्वक्ता का प्राधान्य होता है .

अनुमान के ३ भेद – अनुमान –प्रमाण विशिष्ट वाक्य प्रयोगों द्वारा किसी अदृष्ट अर्थ को जानलेने-समझने की एक पद्धति है. ऐसे कतिपय आधारों पर अनुमान ३ प्रकार का होता है – पूर्ववत , शेषवत सामान्यतोदृष्ट.

पूर्ववत्- जहाँ कारण से कार्य का अनुमान हो, अनुमान का यह प्रकार पूर्ववत् कहलाता है.

उदाहरण –जैसे उमड़ते-घुमड़ते बदलो को देख कर यह अनुमान हो जाता है कि अभी भविष्य में वर्षा होने वाली है. यहाँ उन्नत-मेघ कारण और वर्षा कार्य है . कार्योन्मुख कारण से होने वाले कार्य का अनुमान हो जाता है .

शेषवत्- पूर्व विद्यमान कारण की अपेक्षा से कार्य शेष समझा जाता है . अतः यह यह शेष पद कार्य का बोध कराता है . अर्थ हुआ कार्य वाला , वह कारण होगा . तात्पर्य है –जहाँ कार्य से कारण का अनुमान हो.

उदाहरण – साधारण जल प्रवाह के विपरीत नदी का पानी बहुत चड़ आया है, प्रवाह बहुत तीव्र है , जल, मिटटी , सूखे पत्ते ,कूड़ा-कबाड़ अदि मिला बहुत मलिन है , कभी पेड़ व झाड़-झंखाड़ भी बहे चले आ रहे हैं; नदी के ऐसे प्रवाह से ऊपरी भागों में कहीं वृष्टि के होने का अनुमान होता है .नदिजल का वैसा प्रवाह कार्य तथा वृष्टिजल उसका कारण है . यहाँ कार्य से कारण का अनुमान होता है . धूम-कार्य से अग्नि-कारण का अनुमान भी इसका उदाहरण है.

सामान्यतोदृष्ट- विभिन्न प्रदेश में एकत्वेन द्रष्ट व्यक्ति या पदार्थ जहाँ अदृष्ट अर्थ का अनुमान कराता है, वह अनुमान का सामान्यतोद्रष्ट नामक तीसरा प्रकार है.

उदाहरण – गत वर्ष मैंने जिस देवदत्त को मुंबई में देखा था, वही आज दिल्ली में विद्यमान है . मुंबई में देखे देवदत्त का दिल्ली में दीखना -- हमारे लिए अदृष्ट – उसकी यात्रा का अनुमान कराता है . यात्रा के बिना ऐसा संभव ही नहीं है अतः कालान्तर से विभिन्न प्रदेश में किसी व्यक्ति या पदार्थ का दीखना उसकी यात्रा अथवा गति का अनुमान कराता है, जिसको अनुमाता ने देखा ही नहीं है .

पूर्ववत् अनुमान का अन्य विवरण- यह अनुमान भी २ प्रकार का होता है –एक समव्याप्तिक, दूसरा –विषमव्याप्तिक. पहला वह अनुमान होता है जहाँ साध्य और साधन दोनों एक दूसरे के साध्य व साधन हो सकें . तात्पर्य है , साध्य-साधन दोनों का परस्पर व्याप्य-व्यापकभाव हो, जैसे –‘उत्पतिमत्त्व’ (उत्पत्ति वाला) हेतु से घट (घड़ा) का अनित्यत्व सिद्ध किया जाता है –‘घटः अनित्यः, उत्पत्तिमत्त्व’ . यहाँ घट का अधिकरण अथवा पक्ष में अनित्यत्व साध्य है , उत्पत्तिमत्त्व हेतु है. इसकी व्याप्ति होगी-जो उत्पन्न होने वाला पदार्थ है , वह अनित्य होता है. इस प्रकार के कथन में व्याप्य का पहले और व्यापक का अनंतर कथन किया जाता है . यह एक व्यवस्था है –व्याप्ति के ऐसे निर्देश में हेतु अर्थात साधन व्याप्य और साध्य व्यापक होता है. इस उदाहरण में साध्य-साधन को परस्पर बदला जा सकता है. अर्थात जो पदार्थ अनित्य है, वह उत्पत्ति वाला होता है. इस प्रकार अनित्यत्व और उत्पत्तिमत्व दोनों धर्म सामान व्यप्तिवाले हैं. इनमें से प्रत्येक एक दूसरे का साध्य व साधन कहा जा सकता है . इसीलिए यह पूर्ववत् समव्याप्तिक अनुमान माना जायेगा.

यह स्तिथि धूम-अग्नि के उदाहरण में नहीं है. जहाँ आग है वहां धुंआ अवश्य होता है किन्तु जहाँ आग है , वहां धुंआ अवश्य होता है ऐसा निर्देश नहीं किया जा सकता. क्योंकि दहकते अंगारों में आग के रहते भी धुंआ नहीं रहता . इस कारण यह पूर्ववत् विषमव्याप्तिक अनुमान कहाता है.

शेषवत् का अन्य विवरण – इस पद का अर्थ है, परिशेष अर्थात बचा हुआ. किसी पदार्थ के स्वरुप का निर्णय करने के लिए , अन्य विविध पदार्थों से उसके भेद का उपपादन करने पर जो पदार्थ शेष रह जाता है; अर्थात जिसके साथ उसके भेद का वर्णन नहीं हुआ; वही स्वरूप उस पदार्थ को समझ लिया जाता है. जैसे किसी कार्य या द्रव्य के हमारे पास संभावित कारण उपलब्ध ५ कारणों में से एक है और हम ४ कारणों को असिद्ध प्रमाणित कर देते हैं तो शेष बचे हुए कारण को ही उसका कारण प्रमाणित माना जायेगा.

उदाहरण के तौर पर शब्द के स्वरूप का निर्णय करने के लिए प्रसंग चलाया – शब्द सत् अर्थात सत्ता वाला है, और अनित्य है, यह जानलेने पर इतना निश्चय हो जाता है कि शब्द न सामान्य (जातिरूप) हो सकता है , न विशेष और न समवाय . क्योंकि इन पदार्थों में न सत्ता जाति रहती है और न ये अनित्य हैं . इसीलिए शब्द सत्ता जाति वाला और अनित्य होने से सामान्य, विशेष, समवाय इन पदार्थों से अलग हो जाता है . अब सामान्य आदि से अतिरिक्त ३ पदार्थ और हैं –द्रव्य, गुण और कर्म . तब विवेचन करना होगा शब्द द्रव्य है, गुण है या कर्म है ?

ज्ञात हुआ –शब्द द्रव्य नहीं हो सकता , क्योंकि शब्द अनित्य है; जो अनित्य द्रव्य होते हैं , उनके समवायिकरण अनेक द्रव्य हुआ करते हैं . किसी भी अनित्य द्रव्य का समवायिकरण एक द्रव्य कभी नहीं होता . परन्तु शब्द का समवायिकरण केवल एक द्रव्य –आकाश है . अतः शब्द का द्रव्य माना जाना संभव नहीं .

शब्द कर्म पदार्थ के वर्ग में भी नहीं आता , क्योंकि कर्म कभी दूसरे कर्म का कारण नहीं होता ; अर्थात कर्म किसी अन्य कर्म को कभी उत्पन्न नहीं करता . इसके विपरीत शब्द अन्य शब्द का उत्पादक होता है . वक्ता के मुख से उच्चारित शब्द , श्रोता के श्रोतेंद्रिय तक शब्द-संतति द्वारा पहुँचता है . मुखोच्चारित प्रथम शब्द से समानजातीय शब्द आगे-२ उत्पन्न होते जाते हैं , और वह ध्वनि इस प्रकार श्रोत्र तक पहुँच जाति है . अतः शब्द, शब्दान्तर का हेतु होने से कर्म के वर्ग में समावेश नहीं हो पाता . इस प्रकार द्रव्यादी पांच पदार्थों से अतिरिक्त केवल एक पदार्थ शेष रह जाता है . उस वर्ग में असमावेश के लिए कोई हेतु न होने के कारण शब्द का समावेश गुण वर्ग में मान लिया जाता है . इस परिशेष अनुमान के आधार पर शब्द का गुण होना निश्चित हो जाता है .

किसी पदार्थ का स्वरुप क्या -२ हो सकता है उसको भी सिद्ध किया जा सकता है किन्तु उक्त उदाहरण में वो स्वरुप को सिद्ध मान कर विवेचन किया गया है. तार्किकता से प्रमाणों के आधार पर शब्द पञ्च भूतों में से आकाश का गुण होता है . यहाँ केवल उदाहरण के लिए संक्षिप्त में लिखा है .

क्रमशः

रविवार, 7 मार्च 2010

सत्य का निर्धारण कैसे हो (न्यायदर्शनम् भाग २)

पिछले भाग में मैंने उन १६ विद्याओं का केवल बहुत ही संक्षिप्त में परिचय कराया था और प्रमाण से लेकर निर्णय तक का क्रम रखा था। अब मैं यहाँ इन सब के बारे में थोड़ा खोल कर और आवश्यकता पड़ी तो उदाहरण के साथ समझाता हूँ। मैं फिर से ये बात दोहरा रहा हूँ कि जब आप इन सब के बारे में जानेंगे तो वास्तव में न केवल अध्यात्मिक जगत में बल्कि व्यवहारिक जीवन में भी सही निर्णय लेने में अपने आप को सक्षम पाएंगे। मैं इन विद्याओं के बारे में समझाने के पश्चात जो भी आगे लेख लिखूंगा उनको ढंग से समझने के लिए इनको समझना आवश्यक है। उदाहरण के तौर पर ईश्वर-सिद्धि, शाकाहार-मांसाहार, पुनर्जन्म आदि अनेक विवादस्पद विषयों के समझाने में इनका समझना आवश्यक है। इसीलिए इनको समझने का प्रयास करिये।

प्रमाण : कोई पदार्थ जिस साधन द्वारा जाना जाता है या निश्चय किया जाता है, उसे प्रमाण कहते हैं अर्थात ज्ञान का जो करण-साधन है, वह प्रमाण है। प्रमाण ४ हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। इन सब प्रमाणों में प्रधान होने से प्रत्यक्ष का सर्वप्रथम उल्लेख हुआ है। अन्य प्रमाणों द्वारा पदार्थ के जान लेने पर भी उस विषय की कुछ जिज्ञासा बनी रहती है; किन्तु प्रत्यक्ष के जान लेने पर वह समाप्त हो जाती है, यही प्रत्यक्ष की प्रधानता का स्वरुप है। अनुमान के प्रत्यक्ष-पूर्वक होने से प्रत्यक्ष के अनंतर अनुमान का पाठ है। इसका क्षेत्र त्रैकालिक होने से यह अन्य प्रमाणों से पहले पढ़ा जाता है। अनुमान के समान होने, तथा विषय के प्रत्यक्ष होने पर इस प्रमाण की प्रवृत्ति का अवसर आने से अनुमान के अनंतर उपमान है। शब्द प्रमाण की प्रवृत्ति में प्रत्यक्ष व् अनुमान यथाप्रसंग अपेक्षित रहते हैं, अतः अंत में शब्द का उल्लेख आता है। शब्द का विषय प्रायः अतीन्द्रिय रहता है; यह भी कारण है अंत में इसको पढ़े जाने का।

जिज्ञासा: क्या किसी विषय को जानने के लिए चारों प्रमाण सम्मलित रूप से अपेक्षित होते हैं? अथवा एक प्रमाण द्वारा प्रत्येक प्रमेय को जानलेना अपेक्षित रहता है? तात्पर्य है किसी प्रमेय में चारों प्रमाणों की प्रवृत्ति होती है अथवा एक की?

समाधान: प्रमेय में प्रमाण की प्रवृत्ति के दोनों प्रकार देखे जाते हैं। कहीं एक प्रमेय में अनेक प्रमाणों की प्रवृत्ति होती है, तथा किसी विषय में एक प्रमाण का प्रवृत्त होना संभव रहता है।

उदाहरण: तिरोहित अप्रत्यक्ष अग्नि का किसी आप्त (विद्वान, ज्ञानी, सत्य वचन बोलने वाला जिसने उस अग्नि को प्रत्यक्ष जाना है) के निर्देश से शब्दप्रमाण द्वारा बोध हो जाता है। जब व्यक्ति उस और जाने लगता है, और कुछ समीप पंहुच जाता है तब अग्नि के तिरोहित रहने पर भी उसमें से उठता हुआ धुँआ दिखाई देता है। तब धूम को देखकर अग्नि का अनुमान हो जाता है। उसी प्रकार अग्नि के समीप जाकर उसका प्रत्यक्ष हो जाता है। यह प्रमाणों का ‘अभिसंप्लव’ है, एक प्रमेय को जानने में एकाधिक प्रमाणों का प्रवृत्त होना।

इसी प्रकार जब हमारी हथेली पर एक फल अथवा कोई अन्य द्रश्य पदार्थ रखा रहता है, उस समय स्पष्ट हम उसका केवल प्रत्यक्ष करते हैं; न वहां अनुमान प्रवृत्त है और न शब्द। ऐसे स्थलों पर केवल एक प्रमाण की प्रवृत्ति देखि जाती है। इस प्रकार ये प्रमाण अकेले या मिलकर अर्थज्ञान के साधन होते हैं। सर्वप्रथम प्रत्यक्ष प्रमाण के शुद्ध रूप को ढंग से समझना अति आवश्यक है उसी से चारों प्रमाण और अन्य तथ्य भी आसानी से जल्दी समझ में आ जायेंगे इसीलिए मैं यहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण को संक्षिप्त में समझाने का प्रयास कर रहा हूँ शायद आपको यह दीर्घ लगे किन्तु मैं यहाँ काफी केवल मुख्य-२ बातें ही रख रहा हूँ। हाँ यदि किसी जिज्ञासु के मन में इसको पढ़ कर कोई विषयानुरूप तार्किक प्रश्न आता है तो मैं उसको टिप्पणी द्वारा या आगे के भागो में समाधान लिख दूंगा।

प्रत्यक्ष प्रमाण: वह ज्ञान प्रत्यक्ष है, जो इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष द्वारा उत्पन्न होता है; परन्तु वह अव्यप्देश्यम्, अव्यभिचारी, और व्य्वासयात्मक होना चाहिए। प्रत्यक्षज्ञान के स्वरूप को स्पष्टरूप में समझने की भावना से ३ विशेषण पद होते हैं जो निम्न प्रकार हैं।

अव्यपदेश्य-विशेषण: व्यपदेश्य का अर्थ है –कथन करना, शब्द द्वारा किसी अर्थ का बोध कराना इसीलिए यहाँ अभिप्रायः वह प्रत्यक्ष ज्ञान अभीष्ट है, जो ‘अव्यपदेश्य’ हो, अर्थात शब्द द्वारा जिसको बोध न कराया जा सके।

उदाहरण: एक व्यक्ति पेड़ा, बर्फी या रसगुल्ला खाता है। खाने पर जिसका वह अनुभव करता है, उसके लिए साधारण शब्द है --रस, और विशेष है -- मधुर रस। परन्तु प्रत्येक वस्तु के माधुर्य में परस्पर अंतर रहता है, भोक्ता व्यक्ति उस अनुभूति के लिए जिन पदों –रस अथवा मधुररस—का प्रयोग करता है, उससे अन्य किसी श्रोता व्यक्ति को उस माधुर्य का बोध का अर्थात अनुभूति नहीं करा सकता, और न ही वह उस माधुर्य के परस्पर अंतर का बोध करा सकता है। रस, मधुर रस, अथवा विभिन्न रस आदि पदों से जो बोध श्रोता को होता है, वह केवल शाब्दिक है ---शब्द्प्रमाणजन्य । मधुर पदार्थ और रसन-इन्द्रिय के सन्निकर्ष से जो ज्ञान का अनुभव होता है, वह उन शब्दों द्वारा उस श्रोता को होना संभव नहीं, जो शब्द भोक्ता अपने अनुभव को अभिव्यक्त करने के लिए बोलता है । इसी कारण भोक्ता का वह प्रत्यक्ष ज्ञान अव्यपदेश्य है; शब्द द्वारा अबोध्य । यदि वह शब्द द्वारा बोध्य हुआ करता तो ‘मधुर’ शब्द द्वारा माधुर्यशब्द की अनुभूति हो जाया करती। फलतः इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से जो ज्ञान भोक्ता-प्रमाता को होता है वह शब्द-निरपेक्ष है, अतः अव्यपदेश्य है। जो व्यपदेश्य है, वह शब्द ज्ञान है, प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं। इस मान्यता में यह परिस्तिथि सुस्पष्ट प्रमाण है – यदि किसी वस्तु के वाचक शब्दों को न जानने वाले और जाननेवाले दोनों व्यक्तियों को मधुर आदि पदार्थ का उपभोग कराया जाये, तो उस रस की अनुभूति में कोई अंतर न होगा। इससे स्पष्ट है इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्य वस्तु ज्ञान में शब्द की अपेक्षा नहीं होती इसीलिए वह ज्ञान शब्द द्वारा बोध्य नहीं। उस अर्थज्ञान के वाचक शब्द का कोई उपयोग नहीं होता। केवल बाह्य व्यवहार के लिये शब्द और अर्थ के वाचक –वाच्य सम्बन्ध को जानना आवश्यक है । यहाँ रहस्य यह है , कि उस अनुभुत्यात्मक अर्थज्ञान का – जो इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से उत्पन्न होता है – कोई ऐसा वाचक शब्द नहीं है, जिससे उसका तद्रूप बोध कराया जा सके। परन्तु किसी न किसी रूप में बोध कराये बिना लोकव्यवहार चल नहीं सकता । अतः अर्थ के लिए संज्ञा शब्द अथवा वाचक शब्द नियत हैं।

अव्यभिचारी विशेषण – प्रत्यक्ष ज्ञान का दूसरा विशेषण है –‘अव्यभिचारि’। अन्य पदार्थ में अन्य का ज्ञान होना व्यभिचारी ज्ञान कहलाता है। इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान , वही प्रत्यक्ष ज्ञान माना जाता है जो व्यभिचारी न हो।

उदाहरण: सांयकाल झुटपुटा होने पर मार्ग में पड़ी टेड़ी-मेंडी रस्सी को देखकर पथिक भय के वातावरण में सांप समझ लेते है। यह ज्ञान इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष से अवश्य होता है ; परन्तु उपयुक्त प्रकाश न होने और भय की भावना उभरने के कारण रस्सी में सांप का ज्ञान व्यभिचारी है। ऐसा ज्ञान उपयुक्त प्रकाश में भय की आशंका न रहने से नष्ट हो जाता है । तब वहां ‘यह रस्सी है’ ऐसा अव्यभिचारी ज्ञान प्रत्यक्ष माना जाता है। मृग-मरीचिका में भी व्यक्ति को व्यभिचारी प्रत्यक्ष ज्ञान अमान्य होता है किन्तु पास जाकर ‘यहाँ जल नहीं है’ ऐसा अव्यभिचारी प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। यदि उक्त ज्ञान का विशेषण अव्यभिचारी न रखा जाता तो व्यभिचारी-ज्ञान को भी प्रत्यक्ष माना जाता ; तब यथार्थ में उस वस्तु के वहां न मिलने पर प्रत्यक्ष प्रमाण का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता। प्रमाणों में प्रत्यक्ष को महत्व इसी आधार पर दिया जाता है कि प्रत्यक्ष द्वारा वस्तु का ज्ञान हो जाने पर उसमें आगे किसी प्रकार का संदेह या न्यूनता का अवकाश नहीं रहता , जो व्यभिचारी ज्ञान में संभव नहीं है।

व्य्वसायात्मक विशेषण: प्रत्यक्ष का तीसरा विशेषण है ---‘व्य्वसायात्मक’ । यहाँ व्यवसाय का अर्थ है – क्रिया का पूर्ण रूप से संपन्न हो जाना। ज्ञान के विषय में क्रिया की सम्पन्नता निश्चय पर होती है। अतः निश्चय, अवधारण, निर्धारण यहाँ व्यवसाय का अर्थ है।यद्यपि ‘व्यवसाय’ पद का प्रयोग विभिन्न प्रसंगों के अनुसार अनेक अर्थों में होता है , पर यहाँ उसका अर्थ केवल निश्चय है; ज्ञान का सर्वथा संदेह रहित होना। इस प्रकार व्य्वसायात्मक पद का अर्थ है निश्चयात्मक। जो ज्ञान निश्चय के स्तर पर पंहुच जाता है , उसी को प्रत्यक्ष कहते हैं।

उदाहरण: एक व्यक्ति मार्ग पर चला जा रहा है। दूर जाना था , साथ में दाल-चावल बंधे हैं । भूख उभर आई है; सोचता है , कहीं आग मिल जाती तो इन्हें पकाकर खा लिया जाता , क्षुदा निवृत्त हो जाती। इतने में एक ओर वह कुछ धुंद सा उठता हुआ देखता है। उसे देख कर वह दुविधा में पड़ जाता है कि क्या यह धुआं है , या धूल उड़ रही है ? ऐसा ज्ञान इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्य होने पर भी व्य्वसायात्मक नहीं है , संशयात्मक है ; अतः यह प्रत्यक्ष नहीं माना जायेगा।

जिज्ञासा: व्य्वसायात्मक ओर अव्यभिचारी में क्या अंतर है और व्य्वसायात्मक विशेषण आवश्यक क्यों है?

समाधान: व्यभिचारी में पुरुष निश्चय कर लेता है किन्तु उपयुक्त प्रकाश होने पर या पास जाकर इत्यादि क्रियाओं के पश्चात उसको यथार्थ बोध अर्थात अव्यभिचारी ज्ञान होता है जबकि संशयात्मक में वह निश्चय नहीं कर पाता है और संशय में पड़ जाता है अर्थात उसको व्य्वसायात्मक ज्ञान जब तक नहीं होता वह प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं माना जा सकता।

व्य्वसायात्मक ज्ञान इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्य होता है । इससे यह न समझना चाहिए कि जो ज्ञान आत्मनःसन्निकर्षजन्य है, वह अनवधारणात्मक –अनिश्चयात्मक होता है ; प्रत्युत्त चक्षु (नेत्र, आँख) से देखे जाते हुए पदार्थ का भी दृष्टा कभी-२ निश्चय नहीं कर पाता। जैसे चक्षु द्वारा अवधारण किये अर्थ का मन से अवधारण होता है ; ऐसे ही चक्षु से अनवधारण किये अर्थ का मन से अनवधारण होता है , इन्द्रिय से जैसा अनवधारणात्मक मनन होगा , मन से वैसा ही अनवधारणात्मक मनन होगा। ऐसी दशा में जब वहां विशेष धर्म जानने की अपेक्षा रहती है , तभी वह संशय का स्वरुप बनता है; उसे प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता । फलतः जो यह समझता है कि इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्य ज्ञान निश्चयात्मक ही होता है और व्य्वसायात्मक विशेषण अनावश्यक है , ऐसा समझना सर्वथा असंगत होगा।

क्रमशः

शनिवार, 6 मार्च 2010

सत्य का निर्धारण कैसे हो (न्यायदर्शनम् भाग १)

ऐसा लगता है इन्टरनेट पर भी कोई भी व्यक्ति कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र है चाहे वो सत्य हो या असत्य, तार्किक हो या अतार्किक। इस बात से बहुत से पाठक धुर्त और मुर्ख लोगो के असत्य के जाल में फंस जाते हैं जिस से सत्य की हानि होती है। नैट पर लोगो द्वारा छलना और छला जाना एक आम बात है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए सत्य और असत्य का निर्धारण कैसे हो मैं यहाँ इस लेख में कुछ तथ्यों को रखूंगा जो अध्यात्मिक सत्य को जांचने के साथ-२ आम जीवन के भी असत्य प्रलापों और धोखा-धड़ी को समझने में लोगो कि सहायता करेंगे। पाठकगण कृपया इन तथ्यों पर चिंतन करके अपनी आत्मनुभूति या अंतर्द्रष्टि से विवेकपूर्ण होकर किसी भी लेख का विवेचन करें और तभी उसके पश्चात कोई निर्णय लें। यह लेख समस्त मानवजाति के लिए आर्य हिंदू वैदिक सनातन धर्म के उस न्यायदर्शनम् के अनुरूप है जिसके रचियेता आदि विद्वान परमर्षि गौतम मुनि हैं । भारतीय वैदिक दर्शनों में गौतमीय न्याय दर्शन अर्थ-तत्व को समझने की प्रक्रियाओं का सर्वांगपूर्ण विवरण प्रस्तुत करता है।यह विवरण इतना वस्तुनिष्ठ है कि प्रारंभ से लेकर विचार के अंतिम स्तर तक इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। सभी वैदिक-अवैदिक दर्शनों को अपने मान्य सिद्धांत प्रस्तुत करते समय इस पद्दति का प्रयोग करना अपेक्षित होता है। वैसे तो न्याय-दर्शन का विषय अत्यंत दीर्घ आध्यत्मिक है किन्तु सामान्यजनों को जितना कम से कम तो जानना ही चाहिए उतना ही मैं यहाँ वर्णन करने का प्रयास करूँगा । मेरे विचार से इस न्याय-दर्शन का लोगो को ज्ञान होना अति आवश्यक है। क्योंकिं इस व्यभिचारी युग में छल अपने परमरूप में विद्यमान है जिसको समझने और लोगो को समझाने के लिए न्याय-दर्शन का ज्ञान अति-महत्त्वपूर्ण हो जाता है। लेख में मैं मन्त्र या सूक्त नहीं लिख रहा हूँ और मैं यहाँ प्रयास करूँगा जितना हो सकेगा इन तत्वों का विवेचन संक्षिप्त कर सकूं फिर भी जहाँ कुछ समझने के लिए अधिक आवश्यक होगा वहां पर थोड़ा विस्तृत हो सकता है।

किसी बात की सत्यता प्रमाण द्वारा होती है। प्रमाण प्रत्येक पदार्थ के ज्ञान का साधन है चाहे वो जीवन में प्रयुक्त होने वाले आम पदार्थ हों, कोई वाक्य हो, कोई विचार हो, आत्मतत्व हो या ईश्वर तत्व हो सभी के ज्ञान में प्रमाण आवश्यक है अन्यथा किसी विवेकशील व्यक्ति को संतुष्टि नहीं मिलती। जो पदार्थ प्रमाण से जाना जाता है वह सब प्रमेय कहा जाता है। प्रमाण की प्रवृत्ति प्रमेय में तभी होती है जब संशय अंकुरित होता है। अतः प्रमेय के अनंतर संशय आता है। संशय तभी जागृत होता है , जब व्यक्ति किसी विशिष्ट उद्देश्य से कहीं प्रवृत्त होना चाहता है अथवा उसका कोई प्रयोजन होता है। विशिष्ट प्रयोजन पहले किसी अनुकूल अनुभव के आधार पर उभरता है वो अनुकूल अनुभव दृष्टान्त कहा जाता है। उसके बल पर ही सिद्धांत प्रकाश में आता है। यह सब खेल जिन पर अवलंबित है वे अवयव कहलाते हैं उनके प्रसंग में उहापोह द्वारा कोई निर्णय निखार में आता है अर्थात तर्क और निर्णय आते हैं।

इस प्रकार के कथनोपकथन केवल ३ विद्याओं में संभव हैं, वो ३ विद्याएँ हैं वाद, जल्प और वितण्डा। इन विद्याओं में उत्तर की अपेक्षा पूर्व-२ (पहले आने वाले) श्रेष्ठ हैं अर्थात वितण्डा से श्रेष्ट जल्प है और सर्वश्रेष्ट वाद है। किसी बहस या चर्चाओं में दब आने पर व्यक्ति अपनी खाल को बचने के लिए दूषित प्रयोग करता है। ये दूषित प्रयोग भी ४ प्रकार के होते हैं, जिनको हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान पदों से अभिव्यक्त करते हैं। इनमें भी दूषण की द्रष्टि से पूर्व की अपेक्षा उतरोत्तर (बाद में आने वाले) निकृष्ट है अर्थात निग्रहस्थान सर्व-निकृष्ट है। सत्य-असत्य को जानने समझने के लिए इन १६ विद्याओं का जानना आवश्यक है। इस प्रकार ये सब विद्याएं सब धर्मों का आश्रय हैं।

क्रमशः

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

दयानंद जी ने क्या खोजा क्या पाया (भाग ३)

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भाग २ से आगे क्रमशः

. "हरित शाक के खाने में जीव का मारना उनको पीड़ा पहुंचनी क्योंकर मानते हो? भला जब तुमको पीड़ा प्राप्त होती प्रत्यक्ष नहीं दिखती और जो दिखती तो हमको दिखलाओ।´ (सत्यार्थप्रकाश, दशमसमुल्लास, पृष्‍ठ 313) - आज पहली क्लास का बच्चा भी जानता है कि पेड़-पौधों पर अनगिनत सूक्ष्म जीवाणु वास करते हैं और खुद पेड़-पौधे भी Living things (जीवित वस्तुओं) में आते हैं। ऐसी विज्ञान विरूद्ध मान्यतओं को ज्ञान कहा जायेगा अथवा अज्ञान?

समीक्षा – यहाँ उन्होंने हरित शाक को कष्ट न होने की बात की है उनमें जीवन नहीं है ऐसा कब कहा जो तुम फिर प्रसंग से काट कर पेड़ पौधो के जीवन की बात कर रहे हो. वैसे यह एक पूर्ण अलग विषय है लिखने के लिए क्योंकि यह बात हमेशा एक मुद्दा रहती है कि मनुष्य शाकाहारी है या माँसाहारी है. उपरोक्त वर्णित पॉइंट में यह मुद्दा ही नहीं है पर मैं इस पर अभी और शोध करके भविष्य में लिखूंगा अभी के लिए मैं यह कहना चाहूँगा ईश्वर ने प्रत्येक जीव के लिए भोजन व्यवस्था की है जिस प्रकार शेर आदि मांसाहारी जीवो के लिए अन्य जीव खाने का क्रम रखा है उसी प्रकार मनुष्य आदि प्राकृतिक शाकाहारी है. और पेड़-पौधों से उत्पन्न जिन सूक्ष्म जीवाणुओं के कष्ट की बात तुम कर रहे हो उनका प्राकृतिक जीवन चक्र ही ऐसा है और उन्हें कष्ट नहीं होता है और इसी तरह पेड़ पौधे आदि का जीवन भी परार्थ होता है और यदि पेड़ पौधों को कष्ट होने की बात मान भी लें तो ऐसे तो एक व्याघ्र या शेर द्वारा मारे हुए जीव को भी दुःख होता है बल्कि सभी परजीवी किसी न किसी दूसरे जीव का अहित करते ही हैं और इस प्रकार तो ईश्वर भी दोषी हो जाता है कि एक को बिना कारण कष्ट देता है और दुसरे को सुख, इस प्रकार प्रत्येक भोजन श्रृंखला ही अन्याय पूर्ण हो जाती है. जबकि ईश्वर की बनायीं व्यवस्था कभी गलत नहीं होती और जीवों को जन्म उनके कर्मों के आधार पर ही मिलता है यदि यह न मानोगे तो ईश्वर को दोषी होने से नहीं बचा पाओगे. पूरी भोजन और जीव श्रंखला उनके कर्मों के निमित्त है पर उस से यह नहीं मान सकते कि एक हत्यारे को क्षमा दी जा सकती है क्योंकि मृत व्यक्ति की हत्या होना उसके पूर्व कर्मों के अनुसार था तो इसका उत्तर यह है कि जानवरों द्वारा दूसरे जीवों को मारा जाना उनके प्राकृतिक व्यवहार और भोजन श्रृंखला के अंतर्गत आता है पर मनुष्य द्वारा की गयी जीव हत्या प्रकृति विरुद्ध पाप है यदि स्वरक्षा न हो तो किन्तु हरित शाक आदि खाना प्राकृतिक है. अब इसमें बहुत लोग तर्क देंगे कि नहीं मनुष्य तो स्वभावतः मांसाहारी है और उसमें डार्विन का तर्कहीन, आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा खंडित सिद्दांत रखेंगे. और यह भी बात भी रखेंगे कि यदि मनुष्य प्राकृतिक शाकाहारी ही है तो वो मांस कैसे पचा सकता है. डार्विन के सिद्धांत को इसी तरीके से पोइंट्स बनाकर उसकी भी समीक्षा यहाँ की जायेगी और जिस प्रकार कुत्ता प्राकृतिक रूप से मांसाहारी है किन्तु वो शाकाहार पर भी जी लेता है उसी प्रकार मनुष्य भी प्राकृतिक रूप से शाकाहारी है और मांस भक्षण पर भी जी लेता है इस तरह की विशेषता कुछ जीवों में पाई जाती है. फिलहाल के लिए अभी एक बात पर ध्यान देना कि सभी मांसाहारी जीव जीभ से पानी पीते हैं जबकि शाकाहारी अपने होंठों से जोकि उनके पृथक प्राकृतिक व्यवहार को दर्शाता है. इस विषय पर और भी आगे के किसी लेख में सभी आरोपों के खंडन के साथ लिखूंगा समझ लेना वहां से किन्तु इसमें विज्ञान विरुद्ध कुछ भी नहीं है.

. क्या `नियोग´ की व्यवस्था ईश्वर ने दी है?

समीक्षा – इसका उत्तर मैं अपने एक पहले के लेख में दे चुका हूँ वहां देख लो. http://satyagi.blogspot.com/2009/11/blog-post.html

१०. इसी प्रकार हालाँकि स्वामी जी ने शूद्रों को भी थोड़ी बहुत राहत पहुंचाई है लेकिन फिर भी उन्हें अन्य वर्णों से नीच ही माना है। दयानन्द जी खुद भी `शूद्र´ और उसके कार्य को लेकर भ्रमित हैं। उदाहरणार्थ - सत्यार्थप्रकाश, पृष्‍ठ 50 पर `निर्बुद्धि और मूर्ख का नाम शूद्र´ बताते हैं और पृष्‍ठ 73 पर `शूद्र को सब सेवाओं में चतुर, पाक विद्या में निपुण´ भी बताते हैं। क्या कोई मूर्ख व्यक्ति, चतुर और निपुण हो सकता है? क्या बुद्धि और कला कौशल से युक्त होते ही उसका `वर्ण´ नहीं बदल जायेगा? क्या ऊंचनीच को मानते हुए भेदभाव रहित प्रेमपूर्ण, समरस और उन्नति के समान अवसर देने वाला समाज बना पाना संभव है? बच्चों को शिक्षा देने में भेदभाव नहीं करना चाहिए - `ब्राह्मण तीनों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैष्‍य, क्षत्रिय क्षत्रिय और वैष्‍य तथा वैश्य एक वैश्य वर्ण को यज्ञोपवीत कराके पढ़ा सकता है और जो कुलीन शुभ लक्षण युक्त शूद्र हो तो उसको मन्त्रसंहिता छोड़के सब शास्त्र पढ़ावे, शूद्र पढे़ परन्तु उसका उपनयन न करे। (सत्यार्थप्रकाश, तृतीय0 पृष्‍ठ 31) - अगर बचपन में ही ऊंचनीच की दीवारें खड़ी कर दी जायेंगी तो बड़े होकर तो ये दीवारें और भी ज्यादा ऊंची हो जायेंगी, फिर समाज उन्नति कैसे करेगा?

समीक्षा – वाह भई वाह क्या वाक्छल है तुम्हारा, तुमने अपनी पुस्तक ऐसे लिखी हैं कि कहीं की ईट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा. पहले वक्तव्य में उन्होंने शुद्र की विद्या और ज्ञान-विज्ञान के सन्दर्भ में तुलना की है और दूसरे में उन्होंने यह बताया है कि शुद्र व्यक्तियों के कौन-कौन से कार्य हैं. क्या मैं एक बाल काटने वाले नाई जो कि बाल काटने में बहुत ही चतुर और निपुण है को एक बुद्धिमान ज्ञानी व्यक्ति कह सकता हूँ. और यदि कह सकते हैं तो उसको मंत्री पद, डॉक्टर या सोफ्टवेयर इंजिनियर बना देते हैं. हमारे यहाँ ऑफिस में एक एक शर्माजी आते थे जो अपने चपरासी के कार्य में बहुत चतुर और निपुण है उनको भेज देता हूँ आपके पास कुरान की व्याख्या के लिए क्योंकि आपके अनुसार तो वो ज्ञानी भी होंगे क्योंकि वो चतुर और निपुण है. वास्तव में आज यही दौर चल रहा है जिनकी बुद्धि बाल काटने, खाना बनाने, सफाई आदि सेवा कार्यों की है वो ही इस देश कि बाग-डोर संभाले हुए हैं अन्यथा क्षत्रिय होते तो तुम जैसे लोगो की इस तरह की हिम्मत और ध्रष्टता नहीं होती की हमारे घर में ही रह कर हमारी ही संस्कृति और सत्य ज्ञान की बुराई और असत्य का साथ देने वाले दुश्मनों की तारीफ़.

यज्ञोपवीत और उपनयन संस्कार इसलिए कराया जाता था ताकि बालक पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करे, शुद्र अर्थात कम बुद्धि बालक को इसलिए मना किया है क्योंकि उससे इन संस्कारों और ब्रह्मचर्य के खंडन का डर रहता है और कम बुद्धि बालक मंत्र्सहिंताओं के अर्थ का अनर्थ कर सकता है जैसे कालांतर में शुद्र लोगो (मूर्खों) ने वाम मार्ग चलाया और वेदों में मांस भक्षण इत्यादि कुकर्म लिखे हैं ऐसा प्रचार किया क्योंकि उनकी सामर्थ्य ही नहीं थी इनका भावार्थ समझने की इसीलिए तो कहते हैं बन्दर के हाथ में दर्पण देना खतरनाक होता है और यहाँ बचपन में कोई ऊंच-नीच की दीवार नहीं खड़ी की जाती थी सबको एक जैसा ही सम्मान मिलता था पर बुद्धि के अनुरूप ही व्यक्ति को शिक्षा और कार्य सोंपा जाता था. तुम्हारी कम और धुर्त बुद्धि इसको ऊंच-नीच की दीवार मानती है जबकि यह न्यायपूर्ण है. पहले बालक को ३ दिन सभी विषयों और विद्याओं के बारे में बताया जाता था और फिर उसकी रुचि और ज्ञान के अनुसार उसको विद्या ग्रहण कराई जाती थी.

११. स्वामी जी की कल्पना और सौर मण्डल ''इसलिए एक भूमि के पास एक चन्द्र और अनेक चन्द्र अनेक भूमियों के मध्य में एक सूर्य रहता है।'' (सत्यार्थप्रकाश, पृश्ठ 156) यह बात भी पूरी तरह ग़लत है। स्वामी जी ने सोच लिया कि जैसे पृथ्वी का केवल एक उपग्रह `चन्द्रमा´ है। इसी तरह अन्य ग्रहों का उपग्रह भी एक-एक ही होगा। The Wordsworth Encylopedia, 1995 के अनुसार ही मंगल के 2, नेप्च्यून के 8, बृहस्पति के 16 व शानि के 20 उपग्रह खोजे जा चुके थे। आधुनिक खोजों से इनकी संख्या में और भी इज़ाफा हो गया । सन् 2004 में अन्तरिक्षयान वायेजर ने दिखाया कि शानि के उपग्रह 31 से ज्यादा हैं। (द टाइम्स ऑफ इण्डिया, अंक 2-07-04, मुखपृष्ठर) इसके बाद की खोज से इनकी संख्या में और भी बढ़ोतरी हुई है। अंतरिक्ष अनुसंधानकर्ताओं ने ऐसे तारों का पता लगाया है जिनका कोई ग्रह या उपग्रह नहीं है। ‘PSR 1913+16 नामक प्रणाली में एक दूसरे की परिक्रमा करते हुए दो न्यूट्रॉन तारे हैं।´ (समय का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठप 96, ले। स्टीफेन हॉकिंग संस्करण 2004, प्रकाषक: राजकमल प्रकाशन प्रा। लि0, नई दिल्ली-2)`खगोलविदों ने ऐसी कई प्रणालियों का पता लगाया है, जिनमें दो तारे एक दूसरे की परिक्रमा करते हैं। जैसे CYGNUS X-1सिग्नस एक्स-1´ (पुस्तक उपरोक्त, पृष्ठ 100) वेदों में विज्ञान सिद्ध करने के लिए स्वामी जी ने जो नीति अपनाई है उससे वेदों के प्रति संदेह और अविश्वास ही उत्पन्न होता है। क्या इससे खुद स्वामी जी का विश्वास भी ख़त्म नहीं हो जाता है?

समीक्षा - एक भूमि के पास एक चन्द्र और अनेक चन्द्र अनेक भूमियों के मध्य एक सूर्य रहता है इससे यह कहाँ मतलब निकलता है कि प्रत्येक ग्रह के साथ एक ही चन्द्र है वाक्य का द्वितीय भाग से स्पष्ट होता है अनेक चन्द्र भी हैं और अनेक भूमियाँ भी और यह वाक्य सौर मंडल के बारे में कहा गया है ना कि सभी लोको के बारे में हाँ सभी सौर मंडल इसी प्रकार के होते हैं यह उनका मंतव्य हो सकता है। यहाँ एक चन्द्र की बात हमारी पृथ्वी के सन्दर्भ में कही गयी है सभी ग्रहों के बारे में नहीं और आपने यहाँ फालतू में अपने ज्ञान का दिखावटी प्रदर्शन किया है जिसकी यहाँ पर कोई आवश्यकता नहीं है.

उपसंहार – मैंने लेखक के लगाये हुए महत्त्वपूर्ण सभी आरोपों की समीक्षा कर दी है फिर भी यदि कोई गलती से कोई पॉइंट छूट गया हो तो आप इस समीक्षा से समझ सकते हैं की इस पुस्तक का कोई भी आरोप सत्य नहीं है. अब मैं इस बकवास पुस्तक को अधिक महत्व न देते हुए बस यही इस समीक्षा का अंत करना चाहूँगा इन सब बातो के साथ लेखक ने कुरान को बेवकूफी के साथ सत्य वैज्ञानिक पुस्तक सिद्ध किया हुआ है और कुछ हमारे वैदिक धर्मशास्त्रों को वेदविरुद्ध बताया है, आर्य समाज और वेदांत को अलग-२ मत बताया है, पुनर्जन्म को वेद विरुद्ध और अतार्किक बताया है जबकि किसी बात का लेखक ने कोई संतोषपूर्ण तर्क नहीं दिया है. मिथ्या अनर्गल प्रलापों के साथ यह पुस्तक बुद्धि के दिवालिएपन से अधिक और कुछ नहीं है. बेहूदा, अतार्किक, इधर-उधर से वाक्य उठाकर उनको सन्दर्भरहित पेश करके अपने प्रयोजन कुरान को श्रेष्ठ को सिद्ध किया है. यह उन बकवास पुस्तकों में से एक है जिनका ये लोग दिन रात प्रचार कर रहे हैं. कुरान को धरती का अजर अमर और अक्षय ग्रन्थ बताया गया है. मैं यहाँ कुरान की समीक्षा करने के बजाय केवल पाठकों से एक विनती करूँगा कि वो कुरान पढ़ें और इस धरती के अजर अमर ग्रन्थ की सत्यता से परिचित हों. मैं प्रयास करूँगा कि अब आगे से इनकी मिथ्या बकवास भरी बातों पर अधिक ध्यान न देकर वैदिक धर्म के बारे में लिखूंगा क्योंकि ये लोग तो अपनी अनाप-शनाप बकते ही रहते हैं पर लोगो को जागरूक रहना चाहिए ये इनका मूर्खता भरा बोद्धिक जेहाद है ईसाई मिशनरियों की तरह जिसमें कभी-कभी हिंदुओं में कुछ मुर्ख लोग इनके और तथाकथित सेकुलर्स के झांसे में आ जाते हैं. मैं पुनर्जन्म, शाकाहार आदि विषयों पर पर इनकी अतार्किक बकवास बातों पर ध्यान न देते हुए वैदिक धर्म के विचार रखना अधिक पसंद करूँगा तब पाठक निर्णय स्वयं ही सत्य-असत्य का निर्णय ले सकते हैं.

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

दयानंद जी ने क्या खोजा क्या पाया (भाग २)

वैसे तो यह गुमनाम पुस्तक समीक्षा के काबिल भी नहीं है किन्तु ऐसी कुतर्कों भरी अनेक पुस्तकें नेट पर प्रचारित की जा रहीं है इसीलिए एक का खंडन करने से आप समझ सकते हैं बाकी सब भी इसी तरह की बकवास से भरी पढ़ी हैं। मैं इस पुस्तक के मुख्य वक्तव्य नंबरवाइज लिख कर उनकी समीक्षा कर रहा हूँ और अंत में अपना निष्कर्ष रखूंगा आप लोग कृपया अपने-२ निष्कर्ष टिप्पणियों द्वारा व्यक्त करें। वैसे मैं इस भाग के पश्चात एक भाग और कुछ शेष पॉइंट्स के साथ लिखूंगा।

सबसे पहले तो यह कहना चाहूँगा इस पुस्तक में एक बात को कई बार दोहराया गया है तो उन बातों की समीक्षा बार-२ नहीं दोहराई जाएगी। तो संक्षिप्त में लेखक के मुख्य आक्षेप निम्न प्रकार हैं।

. दयानंद जी ने अपने हत्यारे को क्षमा प्रदान क़ी जबकि उन्हीके अनुसार "अपराधी को क्षमा करना अपराध को बढ़ावा देना है क्योंकि जो पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्‍ट हो जाये और सब मनुश्य महापापी हो जायें। क्योंकि क्षमा की बात सुन ही के उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराधियों के अपराध क्षमा कर दे तो वे उत्साहपूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाए कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेश्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते वे भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जायेंगे। इसलिए सब कर्मों का फल यथावत देना ही ईश्वर का काम है क्षमा करना नहीं।" दयानन्द जी द्वारा अपने अपराधी को क्षमा कर देने की यह पहली घटना नहीं है बल्कि अनगिनत मौकों पर उन्होंने अपने सताने वालों और हत्या का प्रयास करने वालों को क्षमा किया है। `फरूखाबाद में आर्यसमाज के एक सभासद की कुछ दुष्‍टों ने पिटाई कर दी। लोगों ने स्कॉट महोदय से उसे दण्ड दिलाया । पर स्वामीजी को रूचिकर न लगा। उन्होंने स्कॉट महोदय तथा सभासदों से कहा - ''चोट पहुंचाने वाले को इस तरह दण्डित करना आपकी मर्यादा के खिलाफ है। महात्मा किसी को पीड़ा नहीं देते, अपितु दूसरों की पीड़ा हरते हैं।''

समीक्षा- इस बात का अपनी इस पुस्तक में इन महोदय ने बार-२ वर्णन किया है की दयानंद जी ने अपने हत्यारे को क्षमा कर दिया जिस कारण उनके ग्रन्थ पढने योग्य नहीं हैं। वैसे तो इस बात को मैंने भी सुना है कि उन्होंने ऐसा किया था। इसमें हम २ बात कह सकते हैं एक तो ऐसा ही हुआ था और दूसरे यह उनके कुछ शिष्यों द्वारा उनको अत्यधिक अनावश्यक रूप से दयालू प्रचारित करने के लिए किया गया हो। यदि उन्होंने क्षमा ही किया था तो इसमें मैं यह कहूँगा की उनकी इस एक बात के कारण उनके द्वारा लिखित सभी ग्रन्थ असत्य नहीं हो जाते जबकि वो एक अखंड ब्रहमचारी सन्यासी थे और संभव है वो व्यक्ति जिसने जहर दिया था उनके हत्या के प्रयोजन में एक मुर्ख मोहरा मात्र था इसको जानते हुए उन्होंने उसको क्षमा कर दिया कि इसमें इतना बुद्धि-विवेक ही नहीं है समझने का इसने मुझे मारकर इस राष्ट्र का कितना अहित कर दिया है। जैसे कि एक पागल हत्यारे को आज भी एक कोर्ट उसको सजा देकर छोड़ देता है उसी प्रकार उन्होंने भी उसको छोड़ दिया तो जिस प्रकार कोर्ट का निर्णय अन्याय पूर्ण नहीं है उसी प्रकार उनका निर्णय भी अन्याय पूर्ण नहीं कहा जा सकता। वास्तविकता क्या थी ये पूर्णतयः स्पष्ट नहीं है और बाकी के तुम्हारे द्वारा कथित अनगिनत मौके मनगढ़ंत ही हैं और हो सकता है एकआदि मौके पर उन्होंने सामने वाले के शेष व्यक्तित्व को देख कर उसके ह्रदय परिवर्तन की द्रष्टि से ऐसा किया भी हो। वैसे भी पाठक आगे की समीक्षा से समझ सकते हैं कि तुम्हारा उद्देश्य क्या है और तुम कितने सत्यवान और ज्ञानवान हो।

. माता, पिता, आचार्य, अतिथि और पुरुष के लिए पत्नी की अहमियत बताते हुए स्वामी जी कहते हैं- `ये पाँच मूर्तिमान् देव जिनके संग से मनुष्‍यदेह की उत्पित्त, पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश को प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर को प्राप्त होने की सीढ़ियाँ हैं।´ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृष्‍ठ 216) माता-पिता को छोड़कर तो वो खुद ही भागे थे। विवाह उन्होंने किया नहीं इसलिए पत्नी भी नहीं थी। वो खु़द दूसरों पर आश्रित थे और न ही कभी उन्होंने कुछ कमाया तो अतिथि सेवा का मौका भी उन्होंने खो दिया। सीढ़ी के चार पाएदान तो उन्होंने खुद अपने हाथों से ही तोड़ डाले। आचार्य की सेवा उन्होंने ज़रुर की, लेकिन कभी-कभी ऐसा कुछ कर जाते थे कि या तो आचार्य पाठशाला से उनका नाम ही काट देता था या जितना ज्यादा ज़ोर से हो सकता था उनके डण्डा जमा देता था, जिनके निशान उनके शारीर पर हमेशा के लिए छप जाते थे।

समीक्षा- तुम लोगो में जब किसी बात की बुद्धि ही नहीं है समझने की तो अपनी अधिक अक्ल ना ही लगाओ तो बेहतर है- आपके अनुसार दयानंद जी ने स्वयं अपने कहे का पालन नहीं किया अरे तुमने केवल अपनी सिद्धांत विरुद्ध बात कह डाली। माता-पिता को छोड़ कर यदि उन्होंने संन्यास लिया था और विवाह नहीं किया तो इसका यह अर्थ कहाँ निकलता है की वो इनका सम्मान नहीं करते थे जैसे कि चोरी करना पाप है यह कहने के लिए मुझे चोर बनना आवश्यक नहीं है। उन्होंने ही कई बार यह भी कहा है की यदि मनुष्य ब्रह्मचर्य आश्रम से सीधा संन्यास आश्रम लेता है तो सर्वोत्तम है किन्तु ऐसा करना हर मनुष्य के वश में नहीं है ऐसा तीव्र वैरागी पुरुष कोई विरला ही होता है जैसे के वो स्वयं भी थे। सन्यासी से अधिक सब जगत और जीवों की महत्ता को और कोई नहीं समझ सकता। यदि इसमें कोई यह शंका करता है की यदि संन्यास लेना सर्वोत्तम है तो गृहस्त और वानप्रस्थ आश्रम छोड़ कर सभी संन्यास लेने लगें तो संसार का उच्छेद ही हो जायेगा तो उनको मैं यह बता दू जिस प्रकार अध्यनरत मनुष्य में ज्ञान की ग्राहकता ३ प्रकार की होती है उत्तम, मध्यम, निकृष्ट उसी प्रकार से संन्यास लेने की क्षमता हर किसी में संभव नहीं है बहुत ही कम व्यक्ति अखंड बृह्मचर्य का पालन करते हुए धारणा, ध्यान और सबीज समाधि से होते हुए निर्बीज समाधि तक कि यात्रा तय करते है और वास्तविक संन्यास ले सकते हैं इसीलिए इस संसार का उच्छेद कभी नहीं होगा और जितना इस ब्रह्माण्ड में जड़ है उतना चेतन भी है। अतिथि यहाँ इस प्रकरण में किसको कहा गया है यदि तुमने हिन्दू शास्त्र पढ़े होते तो ऐसा न होता, तुमने एक सूक्त भी सुना होगा अतिथि देवोभवः जिसका लोग सन्दर्भ और प्रसंग काट कर किसी के लिए भी प्रयोग करते हैं वो वास्तव में एक विद्वान सन्यासी पुरुष के लिए ही लिखा है क्योंकि जिसके आने की कोई तिथि नहीं होती उसको अतिथि कहते हैं अर्थात वो विद्वान निष्कपटी, सबकी उन्नति चाहने वाला, जगत में भ्रमण करता हुआ सब को सत्य उपदेश से सुख करता रहे ऐसा सन्यासी उसको अतिथि कहते हैं क्योंकि वो व्यक्ति ज्ञान प्रदान करता है इसीलिए देवता कहलाता है और हमें हमेशा उस ज्ञानी पुरुष का सत्कार करना चाहिए। आज कोई यदि धूर्त, मुर्ख या कैसा भी बहारी या विदेशी व्यक्ति चाहे वो घर में तुम्हारे आग लगा दे को अतिथि का पद देकर कहते हैं मेहमान तो भगवान् का रूप होता है क्योंकि हमारे शास्त्रों में लिखा है अतिथि देवोभवः, अरे भाई लोगो पहले तो भगवान् के पद से तुम किसी को भी नहीं सुशोभित कर सकते चाहे वो तुम्हारे उपरोक्त वर्णित पंचदेव में से ही क्यों ना हो फिर आजकल के कथित अतिथि का क्या कहें। भगवान् का पर्यावाची देवता नहीं है किन्तु हाँ भगवान् देवता है यह कह सकते हैं। देवता शब्द संस्कृत की द्र धातु से निकलता है जिसका अर्थ होता हैं देना या प्रदान करने वाला । उदाहरण के तौर पर सूर्य देवता है क्योंकि वो पूरे सौरमंडल को प्रकाश देता है, गुरु देवता होता है क्योंकि वो शिक्षा प्रदान करता है, माता-पिता देवता हैं क्योंकि वो इस मनुष्य देह को जन्म देते हैं, पृथ्वी देवता है क्योंकि वो हमें रहने के लिए स्थान, भोजन इत्यादि देती है। इसी प्रकार से आपको समझना चाहिए देवता, भगवान् नहीं होता पर भगवान देवता होता है। किसी लोक हित और संन्यास के महान उद्देश्य के लिए यदि माँ बाप भी आड़े आते हैं तो उनको छोड़ने में कोई बुराई नहीं है और इसी प्रकार अविवाहित रहने में। उन्होंने लोगो को पंचदेव पूजा का महत्व बताया कि पञ्च फलों आदि की पूजा से कुछ हांसिल नहीं होता और ना ही उस बात का हमारे सत्य शास्त्रों में वर्णन है वो पञ्च देव माता, पिता, आचार्य, अतिथि(विद्वान् पुरुष) और पति के लिए पत्नी तथा पत्नी के के लिए पति पांच देव हैं शास्त्रों में वर्णित हैं जिनका सत्कार आवश्यक है और जो तुमने बाकी की मनगढ़ंत बकवास लिखी है उसका कोई उत्तर देना आवश्यक नहीं है।

. दयानन्दजी एक वेदमन्त्र का अर्थ समझाते हुए कहते हैं- `इसीलिए ईश्वर ने नक्षत्रलोकों के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया।´ (ऋग्वेदादि0, पृष्‍ठ 107) "परमेश्वर ने चन्द्रमा को पृथ्वी के पास और नक्षत्रलोकों से बहुत दूर स्थापित किया है, यह बात परमेश्वर भी जानता है और आधुनिक मनुष्‍य भी। फिर परमेश्वर वेद में ऐसी सत्यविरूद्ध बात क्यों कहेगा?" इससे यह सिद्ध होता है कि या तो वेद ईश्वरीय वचन नहीं है या फिर इस वेदमन्त्र का अर्थ कुछ और रहा होगा और स्वामीजी ने अपनी कल्पना के अनुसार इसका यह अर्थ निकाल लिया । इसकी पुष्टि एक दूसरे प्रमाण से भी होती है, जहाँ दयानन्दजी ने यह तक कल्पना कर डाली कि सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रादि सब पर मनुष्‍यदि गुज़र बसर कर रहे हैं और वहाँ भी वेदों का पठन-पाठन और यज्ञ हवन, सब कुछ किया जा रहा है और अपनी कल्पना की पुष्टि में ऋग्वेद (मं0 10, सू0 190) का प्रमाण भी दिया है- "जब पृथिवी के समान सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं पश्चात उनमें इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा सा लोक मनुश्यादि सृष्टि से भरा हुआ है तो क्या ये सब लोक शून्‍य होंगे?" (सत्यार्थ।, अश्टम। पृ। 156) क्या यह मानना सही है कि ईश्वरोक्त वेद व सब विद्याओं को यथावत जानने वाले ऋषि द्वारा रचित साहित्य के अनुसार सूर्य व चन्द्रमा आदि पर मनुष्‍य आबाद हैं और वो घर-दुकान और खेत खलिहान में अपने-अपने काम धंधे अंजाम दे रहे हैं?

समीक्षा - आप फिर वहीँ प्रलाप करते नज़र आ रहे हैं और बेफिजूल कि बात कर रहे हैं और वाक्यों को अपने सन्दर्भ से हटा भी रहे हैं। उन्होंने यह कहा है कि जिस प्रकार पृथ्वी पर एक जीव के शरीर में पृथ्वी तत्व कि अत्यधिकता होती है उसी प्रकार सूर्यादि लोको पर तैजस तत्व की अत्यधिकता से बने हुए जीव संभव हैं और ये घर-दुकान, खेत खलियान आदि बातों की आप स्वयं मिथ्या कल्पना कर रहे हैं उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा है। जीवन क्या है यह अभी तक आज के वैज्ञानिको की समझ नहीं आया है वो अक्सर अपनी थियोरीज़ का स्वयं ही समर्थन-खंडन करते रहते हैं। इसीलिए यदि ब्रह्मांड की वैचित्रियता और स्रष्टि के मूल तत्वों से आप परिचित हों तो जीवन किस रूप में कहाँ हो सकता है यह आपकी समझ में आ जाता। क्योंकि जीवन के बारे में इस लेख का विषय नहीं है इसलिए मैं यहाँ अधिक नहीं लिखता आगे के लेखो में लिखूंगा। इस स्रष्टि में कोई भी वस्तु निष्प्रयोजन नहीं है चंद्रमाओं का पृथ्वी आदि लोको के लिए महत्त्व है यह बात भी यहाँ बताई जा रही है और यह बात आज के वैज्ञानिक भी दबे स्वरों में ही सही पर स्वीकार रहे हैं तो इसमें उन्होंने क्या गलत कह दिया।

. परमेश्वर का कोई भी काम निष्‍प्रयोजन नहीं होता तो क्या इतने असंख्य लोकों में मनुष्‍यादि सृष्टि न हो तो सफल कभी हो सकता है? (सत्यार्थ0, अश्टम0 पृ0 156)स्वामी जी ने परमेश्वर की सफलता को सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्रों पर मनुष्‍यादि के निवास पर निर्भर समझा है। इन लोकों में अभी तक तो किसी मनुष्‍यादि प्रजा का पता नहीं चला, तो क्या परमेश्वर को असफल और निष्‍प्रयोजन काम करने वाला समझ लिया जाये? या यह माना जाए कि स्वामी जी इन सब लोकों की उत्पत्ति से परमेश्वर के वास्तविक प्रयोजन को नहीं समझ पाए? अत: ज्ञात हुआ कि स्वामी जी ईश्वर, जीव और प्रकृति के बारे में सही जानकारी नहीं रखते थे। एक शोधकर्ता को यह शोभा नहीं देता कि वह वेदों के वास्तविक मन्तव्य को जानने समझने के बजाए उनके भावार्थ के नाम पर अपनी कल्पनाएं गढ़कर लोगों को गुमराह करे ।

समीक्षा - यदि आज के वैज्ञानिक लोगो को ये पता नहीं चलता कि पृथ्वी गोल है तो क्या पृथ्वी चपटी हो जाती मतलब यदि उन्हें मनुष्यों जैसी प्रजा या कोई जीव अभी तक किसी लोक में नहीं मिला तो वहां जीव हैं ही नहीं ऐसा कैसे मान लें जबकि इस ब्रह्माण्ड की अनंतता का आपको जरा सा भी अहसास हों तो आज के वैज्ञानिकों की जानकारी उसके समक्ष कितनी है इसका भी आपको अहसास हों जाता। मनुष्य कितना ही जान ले पर वो इस ब्रह्माण्ड के आगे अति सूक्ष्म ही है और यह ब्रह्माण्ड उस ईश्वर के आगे। मैं आज के वैज्ञानिक बातो का विरोधी नहीं हूँ और ना ही उनके ज्ञान का क्योंकि मैं एक हिन्दू आर्य हूँ जो कभी ज्ञान का विरोध नहीं करता हाँ किन्तु कुतर्कों का समर्थक नहीं हूँ और चालबाजी का भी नहीं। मैं केवल आप जैसे लोगो का संशय मिटाने का प्रयास कर रहा हूँ।

. आकाश में सर्दी-गर्मी होती है, सर्दी से परमाणु जम जाते हैं, भाप से मिलकर किरण बलवाली होती है । क्योंकि आकाश के जिस देश में सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी की छाया रोकती है, उस देश में शीत भी अधिक होती है। फिर गर्मी के कम होने और शीतलता के अधिक होने से सब मूर्तिमान पदार्थो के परमाणु जम जाते हैं। उनको जमने से पुष्टि होती है और जब उनके बीच में सूर्य की तेजोरूप किरणें पड़ती हैं तो उनमें से भाप उठती है। उनके योग से किरण भी बलवाली होती है।´ (ऋग्वेदादिभाष्‍यभूमिका पृष्‍ठ 145 व 146) सर्दी-गर्मी धरती पर होती है आकाश में नहीं और वह भी पृथ्वी द्वारा सूर्य के प्रकाश को रोकने की वजह से नहीं बल्कि सूर्य की परिक्रमा करते हुए पृथ्वी जब सूर्य से दूर होती है तो सर्दी होती है और जब अपेक्षाकृत निकट होती है तो गर्मी होती है। और न ही सर्दी से परमाणु जमते हैं। जब स्वयं बर्फ के ही परमाणु जमे हुए नहीं होते तो अन्य पदार्थो के क्या जमेंगे? पता नहीं परमाणु के सम्बन्ध में स्वामी जी की कल्पना क्या है? भाप से मिलकर प्रकाश को भला क्या बल मिलेगा? यह वेदों का कथन है या स्वयं स्वामी जी की कल्पना?

समीक्षा - आकाश में भी तापमान में अंतर होता है अर्थात सर्दी-गर्मी भी होती है।"आकाश के जिस देश में सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी की छाया रोकती है, उस देश में शीत भी अधिक होती है।" मुर्ख व्यक्ति देश का अर्थ होता है स्थान अर्थात उनका तात्पर्य यह है कि आकाश के जिस स्थान में सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी की छाया रोकती है, उस स्थान में शीत भी अधिक होती है तो इसमें क्या गलत है। वहां के आकाश और पृथ्वी पर सभी मुर्तिमानों के परमाणु जम जाते हैं और जब उनके बीच में सूर्य की तेज रूप किरण पड़ती है तब उनमें भाप उठती है, उनके योग से किरण भी बलवाली होती है जैसे जल में सूर्य का प्रतिबिम्ब अत्यन्त चमकता है अंतिम अंडरलाइन वाक्य क्यों छोड़ दिया आपने और जिस प्रकार चंद्रमा से परिवर्तित सूर्य की किरण से ओषधियाँ आदि पुष्ट होती हैं अर्थात वो परिवर्तित किरण बलवाली होती है अर्थात किरण बलवाली का तात्पर्य वो किरणे पृथ्वी को पुष्ट करती हैं अर्थात उन किरणों का इस पृथ्वी के वन, ओषधियों और सभी जीवों के लिए महत्त्व है। अर्थ का अनर्थ करना कोई तुम जैसे धूर्तो से सीखे। और जिस सर्दी-गर्मी के वार्षिक चक्र का तुम उदाहरण यहाँ दे रहे हो उसका इस प्रकरण से कोई लेना-देना ही नहीं है, ये तुम्हारा कुतर्क है। यहाँ परमाणु जमने का तात्पर्य है मूर्तिमान अर्थात स्थूल पदार्थो का जमना। यह लोक में बोला ही जाता है की पानी से बर्फ जम गया कोई उसकी रासायनिक प्रक्रिया की प्रत्येक बार व्याखा नहीं करता की परमाणु नहीं जमते वो करीब आ जाते हैं इत्यादि जैसे कोई ये पूंछे यह सड़क कहाँ जा रही है और तुम उत्तर देने लगो सड़क कोई व्यक्ति या जीव है जो कहीं को आता जाता है ये सड़क तो यहीं की यहीं रहती है कहीं नहीं आती-जाती अब पूछने वाला व्यक्ति तुम्हे मुर्ख ही समझेगा कि किस बेवकूफ से पाला पड़ा है, उसी प्रकार तुम यहाँ पदार्थ के जमने में परमाणु प्रक्रिया को बता कर वाक्य के भावार्थ को नष्ट करने का प्रयास कर रहे हो।

.सबसे सूक्ष्म टुकड़ा अर्थात जो काटा नहीं जाता उसका नाम परमाणु, साठ परमाणुओं से मिले हुए का नाम अणु, दो अणु का एक द्वयणुक जो स्थूल वायु है तीन द्वयणुक का अग्नि, चार द्वयणुक का जल, पांच द्वयणुक की पृथिवी अर्थात तीन द्वयणुक का त्रसरेणु और उसका दूना होने से पृथ्वी आदि दृश्य पदार्थ होते हैं। इसी प्रकार क्रम से मिलाकर भूगोलादि परमात्मा ने बनाये हैं। (सत्यार्थ प्रकाश, अश्टम। पृ।152) पहले माना जाता था कि परमाणु अविभाज्य है परन्तु अब परमाणु को तोड़ना संभव है। स्वयं भारत की ही धरती पर कई `परमाणु रिएक्टर´ इसी सिद्वान्त के अनुसार ऊर्जा उत्पादन करते हैं। अत: यह सृष्टि नियम के प्रतिकूल कल्पना मात्र है। दरअस्ल यह कोई वैदिक सिद्धान्त नहीं है बल्कि एक दार्शनिक मत है। आग, पानी, हवा और पृथ्वी की संरचना का वर्णन भी विज्ञान विरूद्ध है। उदाहरणार्थ चार द्वयणुक मिलने से नहीं बल्कि हाइड्रोजन के दो और ऑक्सीजन का एक अणु कुल 3 अणुओं के मिलने से जल बनता है। इसी तरह पृथ्वी भी पांच द्वयणुक से नहीं बनी है बल्कि कैल्शियम, कार्बन, मैग्नीज़ आदि बहुत से तत्वों से बनी है और हरेक तत्व की आण्विक संरचना अलग-अलग है। यही हाल वायु और अग्नि का भी है। यदि स्वामी जी के मत को मान लिया जाता तो देश की सारी उन्नति ठप्प हो जाती। उनके विचार आज प्रासंगिक नहीं रह गय हैं। समय ने उन्हें रद्द कर दिया है। जिन लोगों को म्लेच्छ कहकर हेय समझा गया, देश के वैज्ञानिकों ने उन्नति करने के लिए उन्हीं का अनुकरण किया। यदि प्रकृति के विषय में अभारतीयों का ज्ञान सत्य और श्रेष्‍ठ हो सकता है तो फिर ईश्वर और जीव के विषय में क्यों नहीं हो सकता?

समीक्षा - जिस परमाणु को विभाजित करने कि बात आप कर रहे हैं उसको पहली ही पंक्ति में कहा है पदार्थ का वह कण जिसको काटा न जा सके उसको परमाणु कहते हैं, जिस परमाणु की आप बात कर रहे हैं वो शास्त्र में "तन्मात्र" कहलाता है पदार्थ का वो अंतिम कण जिसमें पदार्थ की प्रतीति या अनुभूति या उसका मूल गुण बना रहे जैसे की सभी तत्वों लोहा , कार्बन आदि के परमाणु भिन्न होते हैं। यहाँ उस तन्मात्र अर्थात उस आधुनिक कथित परमाणु का वर्णन नहीं है जिसको आप सोच रहे हैं यहाँ उस से भी आगे के सिद्धांत की बात कही गयी है जोकि अभी आधुनिक वैज्ञानिकों को खोजना है, अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी और आकाश तत्व को आप क्या समझते हैं इसका अंदाज़ा भी मुझे हो गया है। सुनों अग्नि तत्व का मतलब ऊष्मा है चाहे वो किसी भी पदार्थ में क्यों न हो जैसे उदाहरण के तौर पर लोहे , जल आदि में उष्णता अग्नि तत्व की होती है आप इस अग्नि तत्व को साधारण अग्नि मात्र समझते हैं ऐसे ही मूर्तिमान पदार्थो में स्थूलता पृथ्वी तत्व के कारण आती है चाहे वो कोई भी तत्व हो, ग्रह हो , नक्षत्र आदि हो। इसी प्रकार अन्य मूल तत्व भी हैं तुम इनको लोक में प्रयोग होने वाले अलग अर्थों में लेते हो जबकि शास्त्र में ये ५ मूल तत्व उन २४ मूल जड़ तत्वों के अंतर्गत आते हैं जो स्रष्टि प्रक्रिया के आरम्भ में बनते हैं इनको समझने के लिए बुद्दी का स्तर ऊचां चाहिए जो तुम लोगो के पास नहीं है इसीलिए तुम लोग अपनी अक्ल न ही लगाओ तो ही अच्छा है। हमारे शास्त्रों से ही पूरे विश्व में ज्ञान फैला है जिसको अपनाकर और देशो ने तरक्की की है हमें उनकी नक़ल नहीं बस अपना खोया हुआ स्वाभिमान और आत्मविश्वास पाना है । इस मैकाले शिक्षा पद्दति और पूर्व में मुगलों और अंग्रेजों द्वारा यहाँ के शास्त्रों, पुस्तकालयों आदि को नष्ट करके कितना नुक्सान इस राष्ट्र को हुआ है इसकी वर्तमान स्तिथि देख कर अनुमान हो जाता है। किन्तु फिर भी वेद और कुछ शास्त्र बचे हुए हैं और यदि लोगो ने द्रढ़ता और पुरषार्थ दिखाया तो एक दिन यह देश अपने खोये हुए स्वाभिमान और आत्म विश्वास को पा लेगा फिर तुम जैसे कठमुल्लों और छदम सेकुलर फौज को गायब होते देर नहीं लगेगी और यह राष्ट्र दिन दूनी रात चोगनी तरक्की करेगा।

."सूर्य किसी लोक या केन्द्र के चारों ओर नहीं घूमता जो सविता अर्थात सूर्य ।।। अपनी परिधि में घूमता रहता है किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता।" (यजुर्वेद, 033:मं। 43/सत्यार्थ0, अष्‍टम। पृ। 155) - यह बात भी सृष्टि नियम के विरूद्ध है। एक बच्चा भी आज यह जानता है कि सूर्य न केवल अपनी धुरी पर बल्कि किसी केन्द्र के चारों ओर भी पूरे सौर मण्डल सहित चक्कर लगा रहा है। तब सृष्टिकर्ता परमेश्वर अपनी वाणी वेद में असत्य बात क्यों कहेगा? देखिये - `सूर्य अपनी धुरी पर 27 दिन में एक चक्कर पूरा करता है।

समीक्षा - फिर से छल और कुतर्क यहाँ इस प्रकरण में एक प्रश्न "सूर्य ग्रहों अथवा लोकों के चारो तरफ घूमता है या लोक अथवा ग्रह उसके चारो तरफ घूमते हैं" के उत्तर में कहा गया है कि सूर्य किसी लोक या केंद्र के चारो तरफ नहीं घूमता बल्कि ये लोक अथवा ग्रह सूर्य के चारो और घूमते हैं और सूर्य अपनी परिधि पर घूमता है जिस केंद्र का आप यहाँ उदाहरण दे रहे हैं उसका कोई प्रसंग ही नहीं आया वहां पर क्यों आप अपने छल से लोगो को बहकाने का असफल प्रयास कर रहे हैं।

इन आरोपों के अलावा और भी आरोप हैं जो यहाँ छूट गए हैं उनका उत्तर अगले भाग में दिया जायेगा थोडा धैर्य रखिये।