अनेक शताब्दियों से यह प्रवाद रहा है की महर्षि कपिल अनीश्वरवादी थे और उनके द्वारा लिखित सांख्य दर्शन इश्वर को नहीं मानता। परन्तु साँख्य दर्शन का गंभीर तर्कपूर्ण अध्यन इस परिणाम पर नहीं पहुँचता तो यह प्रश्न यह उठता है इस प्रवाद का रहस्य क्या होगा। साँख्य शास्त्र के साथ कपिल का नाम आदि काल से जुडा हुआ है। इस बात में समस्त भारतीय दर्शन निर्विवाद रूप से एकमत है की साँख्य के प्रवक्ता आदि विद्वान परम ऋषि कपिल है। कपिल के अनंतर साँख्य दर्शन में अनेक ऐसे आचार्य हें हैं जिन्होंने इस विषय में कपिल के विचारों से अपना मतभेद प्रस्तुत किया है। उनमें से एक मुख्य आचार्य वार्षगण्य है। उसका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है पर साँख्य के व्याख्या ग्रंथो में उसके कतिपय उद्धृत सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं जिनके अनुसार वार्षगण्य के विचारों का ज्ञान प्राप्त होता है उसका एक सन्दर्भ युक्तिदिपिका में उद्धृत है जिसके अनुसार आदिसर्ग में प्रधान की प्रवृत्ति चेतना रहित हुआ करती है इससे स्पष्ट है प्रकृति की प्रवृत्ति में चेतन प्रेरणा की अपेक्षा स्वीकार नहीं करता, यह मान्यता जगत के प्रति ईश्वर के नियंत्रण को हटा देती है। भारतीय साहित्य पर साँख्य के अनुपम प्रभाव का लाभ उठाने की भावना से अनीश्वरवादी बोद्ध विद्वानों ने अपने उदय काल में वार्षगण्य के इस सिद्दांत का साँख्य के नाम से प्रचार किया जो कालांतर में साँख्य के प्रवक्ता कपिल के होने से कपिल पर आरोपित हो गया। उसके पश्चात उक्त विचार के प्रभाव में मध्य-कालिक विद्वानों द्वारा साँख्य के ईश्वरासिद्धेः सूत्र के वास्तविक आर्थ समझने में भ्रान्ति हो जाने के कारण इस विचार को काफी हवा दी गयी और इस आधार पर कपिल को अनीश्वरवादी मान लिया गया।
वस्तुतः कपिल इस साँख्य सूत्र में जड़ प्रकृति को जगत का मूल उपादान स्वीकार करने के कारण ईश्वर को जगत का केवल अधिष्ठाता व नियंता मानते हैं। इसी कारण प्रकृति के अतिरिक्त ईश्वर तथा अन्य किसी तत्व को जगत के उपादान होने का निषेध किया गया है। ईश्वरासिद्धेः सूत्र में भी जगत के उपादानभूत ईश्वर को असिद्ध बताया है। सर्वजगतनियंता ईश्वर का यहाँ निषेध नहीं है। पूर्वापर प्रसंग के अनुसार यह अर्थ किस प्रकार स्पष्ट होता है यह उस सूत्र के प्रकरण से ही पता चल जाता है। साँख्य के अन्य प्रसंगों में भी ईश्वर के जगतनियंता व अधिष्ठाता होने तथा प्रकृति के जगादुत्पादन होने का विस्तृत वर्णन है।
जिस प्रकार किसी घड़े के निर्मित होने में 3 कारण होते हैं पहला उपदान कारण जोकि यहाँ मिटटी है दूसरा निमित्त कारण जोकि यहाँ कुम्भकार है अथवा ज्ञान या चेतन है और तीसरा कारण है घड़े का प्रयोजन अथवा निर्माण का उद्देश्य जोकि यहाँ अन्य घड़े के उपयोगकर्ता हैं। इन ३ मुख्य कारणों के अलावा सहायकभूत कारण जोकि यहाँ चाक, पानी आदि हैं और उनके भी 3 ही मुख्य कारण होते हैं उपादान, निमित्त और प्रयोजन। उसी प्रकार जगत का एक कारण प्रकृति-उपादान दूसरा सर्वज्ञ ईश्वर-निमित्त और प्रयोजन - अनंत आत्माएं हैं और आत्मा को अविवेक होने के कारण ईश्वर आत्माओं के लिए प्रकृति से जगत निर्मित कर देता है किन्तु स्वयं इन सबसे मुक्त होता है।
सत्व , रजस् और तमस् ये ३ प्रकार के मूल तत्व हैं इनकी साम्यवस्था का नाम प्रकृति है अर्थात जब ये तत्व कार्यरूप में परिणित नहीं होते, प्रत्युत मूल कारण रूप में अवस्थित रहते हैं तब इनका नाम प्रकृति है। समस्त कार्य की कारणरूप अवस्था का नाम प्रकृति है। इस प्रकार कार्यमात्र का मूल उपादान होने से गौण रूप में भले इसे एक कहा जाये ,पर प्रकृति नाम का एक व्यक्ति रूप में कोई तत्व नहीं है। कार्यमात्र के उपादान कारण की मूल भूत स्तिथि 'प्रकृति'है। समस्त वैषम्य अथवा द्वन्द्व विकृति अवस्था में संभव हो सकते है, इसलिए प्रकृति स्वरूप को साम्य अवस्था कहकर स्पष्ट किया जाता है। इस प्रकार मूल तत्व ३ वर्ग में विभक्त है और वह संख्या में अनंत है । जब चेतन की प्रेरणा से उसमें क्षोभ होता है तब वे मूल तत्व कार्योन्मुख हो जाते हैं । अर्थात कार्यरूप में परिणित होने के लिए तत्पर हो जाते हैं। तब उनकी अवस्था साम्य न रह कर वैषम्य की और अग्रसर होती है तब उनका जो प्रथम परिणाम है उसका नाम महत् होता है। इसीको बुद्धि या प्रधान कहते हैं।
यहाँ से सर्ग का आरम्भ होता है महत् से अंहकार आदि और तत्व बनते चले जाते हैं (यहाँ विवरण देने से लेख काफी लम्बा हो जायेगा)। इनमें मूल प्रकृति केवल उपादान, तथा महत् आदि तेईस पदार्थ उसके विकार हैं। ये चौबीस अचेतन जगत है। इसके अतिरिक्त पुरुष अर्थात चेतन तत्व है। इस प्रकार चौबीस अचेतन और पच्चीसवां पुरुष चेतन है। चेतन तत्व भी २ वर्गों में विभक्त है, एक परमात्मा दूसरा जीवात्मा। परमात्मा एक है जीवात्मा अनेक, अर्थात संख्या की द्रष्टि से अनंत हैं। ये हैं वे समस्त तत्व जिनके वास्तविक स्वरुप को पहचान कर अचेतन तथा चेतन के भेद का साक्षात्कार करना है।
बहुत लोग साँख्ययोग को एक साथ जोड़ कर देखते हैं और उसको एक ही पुस्तक या दर्शन समझते हैं। साँख्य के साथ योग का नाम इसलिए लिया जाता है जैसे हम भौतिक-रसायन, जीव-वनस्पति विज्ञानं आदि विषयों को जोड़ी में रखते हैं अन्यथा साँख्य दर्शन एवं योग दर्शन दोनों अलग पुस्तकें हैं और एक दुसरे की पूरक हैं। इसी प्रकार हम न्याय-वैशेषिक (न्याय दर्शन , वैशेषिक दर्शन ) और वेदांत-मीमांसा (वेदांत दर्शन अथवा ब्रह्मसूत्र , मीमांसा दर्शन ) का नाम लेते हैं पर वो सभी हैं अलग -अलग पुस्तकें। साँख्य योग में जगत के उन मूल तत्वों की संख्यात्मक विवेचना की है जो नेत्रों से दिखाई नहीं देते किन्तु जगत के मूल कारण में वो ही तत्व मुख्य होते हैं। और मोक्ष क्या है और उसकी प्राप्ति कैसे होती है इन सब बातो का भी उसमें उत्तर है । साँख्य को पढने मात्र से ही यह तत्व भेद्ज्ञान नहीं होता जब तक योग दर्शन के अनुरूप सबीज और निर्बीज समाधि तक नहीं पंहुचा जाये। इन तत्वों, आत्मा और इश्वर का साक्षात्कार केवल पढने मात्र या साधारण ज्ञान प्राप्त करने से नहीं होता है इसके लिए उच्च कोटि का पुरषार्थ चाहिए।
इससे स्पष्ट है की वास्तविक सांख्य सिद्दांत अकाल में ही किस प्रकार भ्रान्ति-घटाओं में आच्छादित होते रहे हैं। आचार्य उदयवीर शास्त्री के भाष्य में उनको विच्छिन्न कर वास्तविकताओं को स्पष्ट किया गया है। विवेकशील पाठक मनन करने पर स्वयं अनुभव कर सत्य का निर्धारण कर सकते हैं ।
24 टिप्पणियां:
सांख्य प्रधान (मूल) को जगत का कारण मानता है। वहाँ कोई पृथक से कोई चेतन सत्ता नहीं है। लेकिन वहाँ प्रधान के त्रिगुणों में साम्य टूटने पर जगत का निर्माण होता है। प्रधान के त्रिगुण में साम्य है इस कारण से वे जड़ प्रतीत होते हैं। लेकिन वे निरंतर क्रियाशील भी हैं। इस तरह सांख्य का प्रधान जड़ नहीं है, वह चेतन ही है। अचेतनम् प्रधानम् तो शंकर ने सांख्य की आलोचना करते हुए कहा है। उन्होंने तो यह भी कहा कि कपिल अनेक हुए हैं। मुनि कपिल ही सांख्य के प्रवर्तक हैं यह कहाँ सिद्ध होता है। उन्हों ने तो सांख्य को अवैदिक घोषित करने में कोई कसर न छोड़ी थी। जब कि सांख्य के अनेक तत्वों को उपनिषदों में देखा जा सकता है।
द्विवेदी जी !
सत्त्वरजस्तमसां साम्य्वस्था प्रकृतिः, प्रकृति प्रकृतेर्महान,
महतोअहंकारोअहंकारात पञ्च तन्मात्रन्युभयमिन्द्रियम
तन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरुष इति पञ्च विश्तिरगणः । । २६ । ।
अर्थात [सत्त्वरजस्तमसां] सत्त्व रजस तमस की साम्यावस्था प्रकृति है, [ प्रकृतेः महान् ] प्रकृति से महत,[महतः अहंकारः ] महत से अहंकार ,[अहंकारात पञ्च तन्मात्ररिणी उभयमिन्द्रियम] अहंकार से पञ्च तन्मात्र और दोनों प्रकार की इन्द्रियां,[ तन्मात्रेभ्य स्थूलभूतानी] तन्मात्रो से स्थूलभूत [पुरुषः] और इनके अतिरिक्त पुरुष [इति पञ्चविशतिः गणः ]यह पच्चीस का गणः अर्थात संघ समुदाय है।
यह सांख्य दर्शन के पहले अध्याय का छब्बीसवा सूत्र है इसमें स्पष्ट है जगत का मूल कारण मूल प्रकृति है किन्तु इस जड़ के अतिरिक्त पुरुष भी है और यह किस प्रकार प्रकृति में क्षोभ पैदा करता है यह सांख्य में आगे बताया गया है। पुरुष की प्रेरणा से प्रकृति साम्यवस्था से वैषम्य की और अग्रसर होती है और प्रथम तत्व प्रधान बनता है जिसमें सत्व की अत्यधिकता होती है।
आपने कहा सांख्य का प्रधान जड़ नहीं चेतन है ऐसा नहीं है इसी सूत्र से आप ये समझ सकते हैं पुरुष के अतिरिक्त सब जड़ है मात्र क्रियाशीलता से आप जड़ को चेतन नहीं कह सकते और जड़ में क्रियाशीलता आती चेतन के पुरषार्थ से ही है किन्तु जड़ चेतन नहीं हो सकता और चेतन जड़ नहीं हो सकता।
आचार्य शंकर ने एक भी वाक्य वैदिक साहित्य के बारे में बुरा नहीं बोला हाँ वो बात जरूर है उन्होंने पुरुष को ही जगत का मूल कारण बताया है और प्रकृति का निषेध किया है जोकि वैदिक साहित्य के अनुरूप नहीं है। कपिल मुनि कई हो सकते हैं संभव है किन्तु सांख्य के प्रवक्ता आदि विद्वान् कपिल हैं जिनका समय काल निश्चित नहीं है। सांख्य के विद्वान् कपिल ही हैं ये सभी आर्ष ग्रंथो ने माना है। सांख्य कोई नया दर्शन नहीं है ये वेदों से ही निकला ज्ञान है तो उपनिषदों में उसका वर्णन क्यों नहीं मिलेगा। वेद, उपनिषद, सांख्य, योग, न्याय , वैशेषिक, वेदांत , मीमांसा आदि सभी आर्ष ग्रन्थ विरोधी नहीं हैं और इन सबके ज्ञान का आधार वेद हैं। शंकराचार्य ने सांख्य को अवैदिक घोषित नहीं किया वरन बोद्ध विद्वानों ने नास्तिकता के उद्देश्य से इस तरह की भ्रांतियां फैलाई।
Please visit this site
http://www.encyclopediaofauthentichinduism.org/articles.htm
बेनामी जी, जिस साईट का लिंक आप ने दिया है मैंने उसको देखा किन्तु उसमें अधिकतर एतिहासिक बात असत्य लिखी हैं और तो और उसमें पुराणों को शब्द प्रमाण के अर्न्तगत माना है और उनको वेद व्यास रचित माना है जबकि वास्तव में न तो वो वेद व्यास द्वारा रचित हैं और न ही वो शब्द प्रमाण के अर्न्तगत आते हैं. यदि वो व्यास द्वारा रचित होते तो उनमें इतनी अतार्किक और मिथ्या बातें न लिखी होती क्योंकि व्यास तो वास्तव में ज्ञानी थे. वेद ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता वो अपौरुष्य है और न ही उनको व्यास ने उनको दोबारा रचित किया है. वास्तव में लेखक प्रकाशानंद सरस्वती जी और उनके जैसे सभी गुरु जी वेद, उपनिषद, वेदांग आदि के रचियेता व्यास को इसलिए बताते हैं ताकि पुराणों को भी व्यास का नाम देकर उनका ढंग से प्रचार किया जा सके. उपनिषदों की संख्या मात्र १२ या १३ है किन्तु इस साईट पर उन्हें भी हजार के ऊपर बताया गया है जो की गलत है हाँ वेदों की शाखाएं १००० से ऊपर रही हैं किन्तु उनमें से एक भी उपलब्ध नहीं है किन्तु वेद ४ ही हैं. इन्होने तो पुराणों को पांचवा वेद माना है ये तो महान असत्य हैं. और जिन महामन्त्रो की ये बात करते हैं जैसे तत्वमसि, अहम् ब्र्हमास्मी, सोअहम आदि वो उपनिषदों से ऐसे लिए गए हैं जैसे की मकान और दूकान में से कोई कान निकाल कर उसकी व्याखा करने लगे. वो महामंत्र नहीं इन लोगो का कुप्रचार है अपने को भगवान बनाने का.
काफी सारी बातें सत्य भी हैं किन्तु यदि किसी पुस्तक, लेख या साईट में ९०% बातें सत्य और १०% असत्य बातें हैं तो वो मान्य नहीं होती क्योंकि प्रतिवादी उन असत्य को सामने रख कर कह सकता है की जब ये बात असत्य हैं तो बाकी सब भी असत्य होगा.
Please visit this site
http://www.encyclopediaofauthentichinduism.org/articles.htm
Article no 31 to 53 ke bare mein apki kya rai hai.
मैंने पहले भी कहा की काफी बातें सत्य भी हैं ३१ से ५३ तक अधिकतर सत्य ही है वैसे मैंने सारे आर्टिकल्स नहीं पढ़े हैं पर शीर्षक से पता लगता है की वो सत्य ही होंगे.
अच्छी जानकारी के लिए धन्यवाद सौरभ जी
http://hinduonline.blogspot.com/
Before the grand lanch function of "Bharat Swabhiman Mission"
Baba Ramdev seems to be genueinly interested
in the betterment of desh, dharam, rajniti
and i used to watch him on Aastha channel regularly
But right from the lanch function of "Bharat Swabhiman Mission"
where Babaji had invited a Shia Muslim maulaavi
and introduced him as his darling brother
speeches of Babaji has lost its sharpness
for the protection of desh, dharam, rajniti
Maybe its the price one has to pay
to garner support of all residing in india
and whether they are muslim
it does not matter
As a common hindu
what more could i have done but
only stopped actively watching Babaji
from that lanch function
though i still regard Babaji
as a great yoga master
and for his oratory skills
But, now in the present controvercy
of Devband fatva against Vande Mataram
attended by Babaji and home minister
hindus should protest and show their displeasure
to both Babaji and home minister
for agreeing to be a part of function
working against the spirit of Bharat
and consolidating/ fanning the Jihadi movement
As politicians support Jihadis
for capturing muslim vote bank
is Babaji trying to capture
muslim and sickular followers
by agreeing to attend Jihadi function
and not speacking out against
the fatva then and there
not even 2 days after that
all this when Babaji is
the most outspoken hindu guru
who is more than ready to
give sound bytes on each and every
topic including yoga
and never take any nonsense
laying down from any celebrited reporters/ editors
is it that like all other leaders
whether they are politicians or not
they are always supporting Jihadis
at the cost of hindus
and like them Babaji too
wants to capture muslim and sickular followers
and / or
even Babaji fears from Jihadis
O Hindus come out of your hibrenation
how long you want to wait
for things to get worse
before trying for their recovery
its easy to get charged up against Jihadis
but path to recovery goes first
by winning over the sickular hindus
O Hindus, this is the time
to lanch campainge against
all sickular hindus
in the form of Babaji
and dont wait for RSS/ BJP/ VHP
dont look forward for their orders
listen to your heart/ mind
Babaji has a reputation
of coming out sucessfully
from every controvery in the past
which where lanched by sickulars
but this time
if common hindus campainge
against his sickular tendencies
at least he has to say sorry
for his moments of weakness
i appeal all PRO-HINDU bloggers
to write-up on this topic from their heart
so that greater clearity and publicity to
hindu's view emerage in media
also remember that
blogging alone cannot provide
answers to worldly problems.
http://hinduonline.blogspot.com/2009/11/original-post-no-4-o-hindus-come-out-of.html
.
sankhya darshan is an aastik darshan, in some parts it believes in god and some parts it reject. in bhaagvat puran Sankhya darshan is called god believeing darshan..
but your research is nice
sorabh ji ke gyan ko daad deta hun . me hinduism ke bare me padh raha hun bahut.... deep he shayad saal bhar me kuch samjh sakunga. me atheist(nastik) soch ka hun is liye Samkhya(sankhya)darshan ko samajhna chahta hun
sorabh ji ke gyan ko daad deta hun . me hinduism ke bare me padh raha hun bahut.... deep he shayad saal bhar me kuch samjh sakunga. me atheist(nastik) soch ka hun is liye Samkhya(sankhya)darshan ko samajhna chahta hun
आपने सांख्य दर्शन के बारे में बहुत बढ़िया जानकारी दी है. मै सांख्य दर्शन की १ ऐसी पुस्तक चाहता हूँ जो अपने मूल रूप में हो. जिसमे संस्कृत के श्लोक्स और उनका हिंदी अनुवाद हो. लेखक ने अपने तरफ से कुछ अतिरिक्त लिखा हो. यदि संभव होतो कृपया 9968168650 or rakesh.graphicdesigner7@gmail.com पर बताने का कष्ट करें.
Iswar nirguw hai ya saguw ?
@बेनामी Mar 30, 2012 01:58 PM
उपासना २ प्रकार की है – एक सगुण और दूसरी निर्गुण। इनमें से जगत को रचनेवाला, वीर्यवान् तथा शुद्ध, कवि, मनीषी, परिभू और स्वयम्भू इत्यादि गुणों के सहित होने से परमेश्वर सगुण है और अकाय, अव्रण, अस्नाविर इत्यादि गुणों के निषेध होने से वह निर्गुण कहलाता है।
ईश्वर के सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान , शुद्ध , सनातन , न्यायकारी , दयालु, सब में व्यापक, सब का आधार, मंगलमय, सब की उत्पत्ति करनेवाला और सब का स्वामी इत्यादि सत्यगुणों के ज्ञानपूर्वक उपासना करने को सगुणोंपासना कहते हैं और वह परमेश्वर कभी जन्म नहीं लेता , निराकार अर्थात आकारवाला कभी नहीं होता , अकाय अर्थात शरीर कभी नहीं धरता , अव्रण अर्थात जिसमें छिद्र कभी नहीं होता , जो शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्धवाला कभी नहीं होता , जिसमें दो, तीन आदि संख्या की गणना नहीं बन सकती , जो लम्बा चौड़ा हल्का भारी कभी नहीं होता , इत्यादि गुणों के निवारणपूर्वक उसका स्मरण करने को निर्गुण उपासना कहते हैं।
इससे क्या सिद्ध हुआ कि जो अज्ञानी मनुष्य ईश्वर के देहधारण करने से सगुण और देहत्याग करने से निर्गुण उपासना कहते हैं, यह उनकी कल्पना वेद शास्त्रों के प्रमाणों और विद्वानों के अनुभव से विरुद्ध होने के कारण मान्य नहीं है ।
Ek tatwa may do beparit gurw kaesay ho sakatay hai ?
@Manoj Kumar यहां एत तत्व में कुछ गुणों के सहित होने से सगुण और कुछ के निषेध होने से उसे निर्गुण कहा गया है। एक तत्व में विपरीत गुणंो का समावेश नहीं किया गया है जरा ध्यान दीजिये। उदाहरण - जल के प्राकृतिक गुण शीतलता और तरलता है तोकह सकते हैं जल में शीतलता और तरलता सगुण है या जल में ऊष्णता और ठोसता निर्गुण है। इस उदाहरण में आप समझ सकते हैं एक तत्व जल में विपरीतगुणों का समावेशनहीं किया गया है वरन् कुछ गुणों के समावेश के कारण उसे सगुण और कुछ गुणों के निषेध के कारण निर्गुण कहा गया है। इसी प्रकार आप शास्त्रो में ईश्वर के सगुण और निर्गुण कहे जाने का वास्तविक सन्दर्भ समझिये और जानिये।
@ Sourabh ji........... aap jin likhit shashtro ko zootha kah rhe he kya wo such he, such he to fir jatibad ko inta badhawa kyo? to un grantho ko jla kyon nhi diya jata he, jise her roj adalat me zoothi kasam khai jati he,,, kyon unko mante he, kitaboo ki aap suchai nhi mante he, to fir vyavstha ko lagu kyo? jiss bhasha shaili ka aapne iss lekh me pryog kiya he usse lagta he ki sabse bade jati vyavashta ke samarthak aap he, Dr. Ambedkar ki bato ko aapne zoothla diya he. khair koi bat nhi lekin wo ek dalit pariwar se the or akele the unhone ek suchcha granth likha jo savarn nhi likh paye,,, jb v kadinaai ka kaam aya tb tb savarno ke paao dagmgaye he.....kya savidhan likhne ke liye koi yog vyakti nhi tha...savrno ke pass suchai hamesa kadwi hoti he isi liye aapne us shelly ka pryog kiya he. jo vanchiniye he......
सौरभजी
दर्शननो में मतभेद क्यों है , यदि अनुमान से सिद्ध कियागयाहै , तो क्या अनुमान से सत्य ज्ञान होसकता है ?
शान्ख्य दर्शन वास्तब मे क्या था यह किसी को मालुम हो हि नही सक्ता क्यु कि च्वार्क ने सब से ज्यादा क्षेपक शन्ख्य दर्शन के पुस्तकौमे हि डाले थे । शन्ख्य के पुस्तक बौध्धौके द्वारा लन्का लेजाकर जलाया गया था ।तो शन्ख्य क्या है यह यही है करके कोही कहता है तो यह केबल आकलन है या च्वार्क के मत है । कपिल के नही । शान्ख्य जो आज उपलब्ध है वो स्वमबेरोधाभासी है । एक तरफ कहता है कि प्रकृती जड है तो दुसरी तरफ उसे भोग कर्ने वाला, या कर्म कर्ने वाला बताता है । यहतो जडकी परिभासाको हि खण्डित कर्ता है । जो खुद हि जडकी परिभासा देता है और बाद मे उसने परिभासित किए हुए जडकी परिभासाको हि खण्डित कर्ने वाला बताता है । प्रकृतिको जड बताता है और उसेकर्म शिला भि कहता है ।यह स्वयमकाट्या (पराडोक्स्) है । यिसी लिए शान्ख्य दर्शन को भुल जावो कि वो सच मे क्या था
सांख्य दर्शन के अनुसार कारणता का सिद्धांत क्या कहलाता है
श्रीमद्भागवत महापुराण में पुराणों को पांचवें वेद के रूप में स्वीकार किया गया है।
प्राय: सुना-पढ़ा जाता है कि वेद अपौरुषेय हैं, इन्हें ईश्वर की वाणी माना जाता है। आपने भी "वेद ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता वो अपौरुष्य है" कहा है। तो कृपया यह बतावें कि वेद अपौरुषेय कैसे हुए? अर्थात् वेद-वचन कैसे और किसके द्वारा प्रकट हुए?
ऐसी ही बात कुरआन शरीफ के विषय में कही जाती है लेकिन मुझे आज तक एक भी विद्वान या ज्ञानी नहीं मिला जो इसे सम्यक रूप से समझा सके। कृपया प्रकाश डालें।
अनाम 27 जून 2019 को 11:37 pm
महोदय जी आप महर्षि दयानंद सरस्वती की ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पढ़िए । सब उत्तर उस ग्रंथ से मिल जायेगा।
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