गुरुवार, 12 अगस्त 2010

किष्किन्धा का वानर राजवंश (हनुमान, सुग्रीव, बाली)

रामायणी कथा के पात्रों का विवरण बड़ा अदभुत व चमत्कारपूर्ण है। पात्रों से अभिप्रायः उन व्यक्तियों व प्राणियों से है, जिनके आधार पर समस्त वृतान्त प्रस्तुत किया गया है। विवरण से ऐसा प्रतीत होता है कि इन कथावस्तु व प्राणियों में मानव, पशु, पक्षी सभी का समावेश है। कहीं तो जड़ वस्तु भी मानव-चेतन के रूप में प्रस्तुत होकर अपना अभिप्रेत कार्य निर्वाह करती द्रष्टिगोचर होती है। समुद्र लाँघते समय मैनाक पर्वत का ऊपर उभरकर हनुमान को आश्रय देना और उससे वार्तालाप करना, पत्थर का नारी में परिवर्तित हो जाना इसी स्तिथि का एक नमूना है।

जहाँ तक प्राणी-पात्रों का सम्बन्ध है, रामायणी कथा में मुख्य रूप से तीन राजवंश सामने आते हैं। वे तीन राजवंश अयोध्या, किष्किन्धा और श्रीलंका के हैं। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य पात्र हैं, जो अयोध्या से निकल कर लंका पंहुचने तक राम के सम्पर्क में आये, अथवा अन्य मध्यगत प्रसंगवश जिनका उल्लेख हुआ है। इनमें अनेक आश्रमवासी ऋषियों कतिपय शापग्रस्त व्यक्तियों , अनेक राक्षसों और जटायु जैसे खग-वर्ग के प्राणियों का समावेश कहा जा सकता है।

इनमें वानर-रीछ जैसे वन्य पशु, जटायु-सदृश पक्षी , अन्य राक्षस व ऋषि सब एक ही भाषा को बोलते-समझते उपयोगी वार्तालाप करते वर्णित किये गये हैं। स्वयं श्रीराम इन सभी के सम्पर्क में आते हैं; पर भाषा सभी की एक ही प्रतीत होती है, रामायण के वर्णनों से ऐसा संकेत मिलता है कि वह भाषा संस्कृत रही होगी। यह आश्चर्य की बात है उस समय के पशु-पक्षी भी संस्कृत भाषा बोलते व समझते थे।

विष्णु-शर्मा रचित पञ्चतन्त्र संस्कृत की एक प्रसिद्द रचना है। इसकी समस्त वर्ण्य वस्तु का निर्वाह पशु-पक्षी वर्ग के प्राणियों द्वारा किया गया है। निश्चित है यह रचना केवल कल्पना पर आधारित है। एक विशिष्ट वर्ण्य-राजनीति का मनोरंजन की रीति से उपपादन करने का सफल प्रयास किया गया है। इसी के अनुसार रामायणी कथा के पात्रों पर द्रष्टि डालने के फलस्वरूप आधुनिक पाश्चात्य लेखकों ने उसको कल्पनामूलक माना है। भारतीय समाज व राष्ट्र को जिस व्यक्तित्व पर गर्व है, जिसको पूर्ण में अनुकरणीय माना जाता है, संस्कृत का लगभग आधा लौकिक साहित्य जिस पर अवलम्बित है, एक कल्पनातीत लम्बे काल के व्यतीत हो जाने पर भी आज भारतीय समाज जिससे अन्तःकरण की गहराइयों तक प्रभावित है, वह राम और उसकी रामायणी कथा अपने चमत्कारपूर्ण वर्णनों के आधार पर एक कल्पनामात्र समझ ली जाती है।

इस संक्षित लेख में समस्त रामायण के ऐसे वर्णनो पर द्रष्टि न डालते हुए केवल किष्किन्धा के वानर राजवंश के विषय में दो-एक बातें कहना अभिप्रेत है। हिंदी में जिसे आज बन्दर कहते हैं, संस्कृत में उसके लिये वानर शब्द है। संस्कृत में यह परम्परा अतिप्राचीन काल से चली आ रही है कि कोई ‘नाम‘ –पद यदि किसी व्यक्ति का वाचक है, उसके लिये भी लेखक पर्याप्त पदों का प्रयोग बराबर करते रहते हैं। इस परम्परा से सभी संस्कृतज्ञ परिचित हैं। वानर राजवंश के लिये भी रामायण में ‘वानर’ पद के प्रायः सभी पदों का निर्बाध प्रयोग हुआ है। जैसे –कपि, शाखामृग, प्ल्वग, मर्कट, कीश, वनौकस आदि। न केवल आज , प्रत्युत पर्याप्त पूर्व समय से भारतीय समाज में ऐसे वर्णनों के आधार पर यह धारणा है कि ये किष्किन्धा-निवासी आज-जैसे बन्दर ही थे।

इस धारणा का मूल क्या रहा होगा, यह कहना कठिन है पर सम्भव है , पौराणिक भावनाओं का प्रभाव इसका मूल रहा हो। इसका कारण यह है कि यह रामायण वाल्मीकि की रचना है, और वाल्मीकि श्रीराम के समकालिक हैं, उनका हनुमान और सुग्रीव आदि से साक्षात् परिचय रहा है, तथा अयोध्या के राजवंश का विवरण यदि थोड़ा भी ऐतिहासिक लक्ष्य रखता है, तो यह किसी विचारशील व्यक्ति के लिये सम्भव प्रतीत नहीं होता है कि वह यह समझे कि वाल्मीकि ने हनुमान आदि को वन्य पशु बन्दर समझकर वैसा वर्णन किया है। बल्कि वह वर्णन प्रतीत अवश्य ऐसा होता है, पर इसको उसी रूप में यदि सत्य मान लिया जाये , तो यह कहने में कोई संकोच न होगा कि वाल्मीकि रामायण कल्पनामूलक है, न वह श्रीराम के समय में हुआ और न उनका हनुमान आदि से सम्पर्क रहा , न इन घटनाओं का कभी अवसर आया। फलतः हनुमान के बन्दर समझे जाने की कल्पना मूल से कही जा सकती है। हनुमान की बन्दर-सदृश्य मूर्तियों का उपलब्धि काल कोई अधिक पुराना नहीं है।

कहा जा सकता है , वाल्मीकि ने किष्किन्धा के राजवंश का वर्णन उन्हें ‘बन्दर’ समझकर नहीं किया। इस प्रकार सामूहिक रूप से बन्दरों का न नामकरण होता है, न उनकी वंशपरम्परा का उल्लेखन , न उनके विवाह और सम्बन्धियों का वर्णन, न उनकी पढाई-लिखाई और राजशासन-व्यवस्था व मन्त्री-मण्डल आदि का विवरण। या तो इसे कल्पनामूलक समझिए या इसकी तह में जाकर इसकी वास्तविकता को उजागर कीजिये। ये बातें स्पष्ट करती हैं, वाल्मीकि ने किष्किन्धा के राजवंश को आज जैसा बन्दर समझकर उसका विवरण नहीं दिया। कतिपय प्रसंगों का संकेत रामायण के अनुसार प्रस्तुत है –

वंश परम्परा –

(१) वाल्मीकि-रामायण [बालकाण्ड, सर्ग १७] में वानर वर्ग की उत्पत्ति का वर्णन करते हुये जिन व्यक्तियों के वर्ग का उल्लेख किया गया है, वह बन्दरों में होना सम्भव नहीं। वहां विवाह व स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध का उल्लेख मानव समाज के समान किया है। उस प्रकार का सामाजिक वर्गों का विभाजन मानव समाज में सम्भव है, अन्यत्र नहीं ।

(२) किष्किन्धा-काण्ड के नवम सर्ग में अपनी परिस्तिथी के विषय में सुग्रीव कह रहा है – मेरा बड़ा भाई शत्रुहन्ता प्रसिद्द बाली है। हमारे पिता सदा उसको बहुत मानते रहे हैं, और मैं भी उनका आदर करता रहा हूँ। हमारे पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर यह ज्येष्ठ पुत्र है—इस कारण मन्त्रियों ने वानरों के राज्य-सिंहसन पर प्रतिष्ठापूर्वक उसीको आसीन किया। हमारा यह महान राज्य पितृ-पैतामह-परम्परा से चला आया है। उस पर अब बड़ा भाई बाली शासन करता है, मैं अभी तक सदा प्रणत होकर उसकी आज्ञा में रहा हूँ।

ऐसे वर्णन में यदि एतिहासिक तथ्य है तो यह मानव-समाज में सम्भव है , वानर-समाज में नहीं। देश व राष्ट्र पर प्रशासन व मन्त्रीमण्डल की व्यवस्था होना , तथा ज्येष्ठ पुत्र का राज्यधिकार—यह सब राजनीति शास्त्र व धर्मशास्त्र ‘बन्दरों’ के लिये नहीं है।

(३) सीता अपरहण के अनन्तर जब राम-लक्ष्मण किष्किन्धा के समीप ऋष्यमूक पर्वत की उपत्यका में पंहुचते हैं, तब अपने बड़े भाई बाली के द्वारा सताये सुग्रीव ने , जो उसे समय ऋष्यमूक पर्वत में छिपकर अपने दिन बिता रहा था, हनुमान को राम-लक्ष्मण के पास भेजा, यह जांचने के लिये कि कहीं बाली के भेजे गुप्तचर न हों, जो हमें यहाँ हानि पहुँचाने आये हों।

हनुमान ब्राह्मण वेष में उनके पास जाते हैं। पर्याप्त समय वार्तालाप के अनन्तर राम ने लक्ष्मण से एक होकर कहा – यह व्यक्ति हनुमान वानरराज सुग्रीव का सचिव है, तुम इसके साथ स्नेहयुक्त मधुर वाणी से बात-चीत करलो। यह वेदवित् है, बिना ऋग-यजु:-सामवेदों को जाने ऐसा भाषण सम्भव नहीं , जो इसने किया है। यह व्याकरण-शास्त्र का पूर्ण ज्ञाता प्रतीत होता है। इतनी देर तक वार्तालाप करते हुए भी एक भी अशुद्ध शब्द का इसने उच्चारण नहीं किया। इसके मुख, नेत्र, ललाट, भौं तथा अंगों पर कोई विकृति प्रतीत नहीं हो रही।

हनुमान के विषय में राम द्वारा प्रस्तुत किया गया यह विवरण किसी बन्दर के बारे में होना असम्भव है। ब्राह्मण या भिक्षु वेश में जाने का अभिप्राय यही हो सकता है कि उस समय अपनी क्षेत्रीय या वर्गीय वेशभूषा व पहरावे को छोड़कर एक ब्राह्मण के समाजिक पहनावे में आगया। इसके अतिरिक्त वेद व व्याकरण का ज्ञाता होना , समयोचित नीतिपूर्ण वार्तालाप करना एक वन्य पशु ‘बन्दर’ के लिये असम्भव है(रामायण, ४|३) ।

(४) हनुमान श्रीलंका में जबसीता की खोज में इधर-उधर घूम रहे हैं, वहां किसी व्यक्ति ने उसे विदेशी समझकर नहीं टोका। वहां उस समय की लंका में प्रचलित वेश-भूषा में गये। वह अनेक स्थलों पर वहां के निवासियों से बातचीत भी करते हैं। इससे स्पष्ट होता है, उनकी मुखाकृति और देह की बनावट वैसी ही सम्भावना की जा सकती है , जैसी समान रूप में भारत व लंका के निवासियों की रही होगी।

लिखने की बहुत बाते हैं पर संकेतमात्र में इतना पर्याप्त है। इसके फलस्वरूप ज्ञात होता है किष्किन्धा का वानर राजवंश ऐसा ही एक मानव-समाज-वर्ग था, जो अन्य भारतीय समाज के समान था। उस वर्ग का वानर नाम क्यों हुआ? यह अतिरिक्त खोज का विषय है। महाभारत के ‘नाग-सत्र’ के नाग सांप न थे , वे हमारे ही समाज का अंग हैं, जो आज भी भारत के अनेक भागों में विद्यमान हैं। आपने कई व्यक्तियों के नाम सुने होंगे जैसे कालिदास नाग, पुरषोत्तम नाग आदि तो क्या उन व्यक्तियों को सांप मान लें ऐसे ही ‘वानर पद है।

6 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…


सचमुच अब तो इस विषय पर शोध नितांत आवश्यक है -

आगामी सप्ताह में चिन्मयानन्द बापू द्वारा श्री राम कथा वाचन का कार्यक्रम श्रीलंका में आयोजित है, निश्चित ही वहां से कुछ नए तथ्य मिलेंगे

Arvind Mishra ने कहा…

अच्छा और विचारणीय विवेचन !

Unknown ने कहा…

उत्तम जानकारी

बेनामी ने कहा…

अच्छा प्रयास है

Unknown ने कहा…

logo ko thoda aur deep me bataiye to unke liye accha hoga aur ramayan ke anusar bataiye. yeh meri request hai kyoki mujhe isme kuch vishesh nahi laga.

बेनामी ने कहा…

आप पहले "http://satyagi.blogspot.com/2008/04/blog-post_17.html" पर सतीश जी ने जो कहा उसका जवाब दे | अन्यथा मुझे बड़ा कष्ट होगा |