रविवार, 7 मार्च 2010

सत्य का निर्धारण कैसे हो (न्यायदर्शनम् भाग २)

पिछले भाग में मैंने उन १६ विद्याओं का केवल बहुत ही संक्षिप्त में परिचय कराया था और प्रमाण से लेकर निर्णय तक का क्रम रखा था। अब मैं यहाँ इन सब के बारे में थोड़ा खोल कर और आवश्यकता पड़ी तो उदाहरण के साथ समझाता हूँ। मैं फिर से ये बात दोहरा रहा हूँ कि जब आप इन सब के बारे में जानेंगे तो वास्तव में न केवल अध्यात्मिक जगत में बल्कि व्यवहारिक जीवन में भी सही निर्णय लेने में अपने आप को सक्षम पाएंगे। मैं इन विद्याओं के बारे में समझाने के पश्चात जो भी आगे लेख लिखूंगा उनको ढंग से समझने के लिए इनको समझना आवश्यक है। उदाहरण के तौर पर ईश्वर-सिद्धि, शाकाहार-मांसाहार, पुनर्जन्म आदि अनेक विवादस्पद विषयों के समझाने में इनका समझना आवश्यक है। इसीलिए इनको समझने का प्रयास करिये।

प्रमाण : कोई पदार्थ जिस साधन द्वारा जाना जाता है या निश्चय किया जाता है, उसे प्रमाण कहते हैं अर्थात ज्ञान का जो करण-साधन है, वह प्रमाण है। प्रमाण ४ हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। इन सब प्रमाणों में प्रधान होने से प्रत्यक्ष का सर्वप्रथम उल्लेख हुआ है। अन्य प्रमाणों द्वारा पदार्थ के जान लेने पर भी उस विषय की कुछ जिज्ञासा बनी रहती है; किन्तु प्रत्यक्ष के जान लेने पर वह समाप्त हो जाती है, यही प्रत्यक्ष की प्रधानता का स्वरुप है। अनुमान के प्रत्यक्ष-पूर्वक होने से प्रत्यक्ष के अनंतर अनुमान का पाठ है। इसका क्षेत्र त्रैकालिक होने से यह अन्य प्रमाणों से पहले पढ़ा जाता है। अनुमान के समान होने, तथा विषय के प्रत्यक्ष होने पर इस प्रमाण की प्रवृत्ति का अवसर आने से अनुमान के अनंतर उपमान है। शब्द प्रमाण की प्रवृत्ति में प्रत्यक्ष व् अनुमान यथाप्रसंग अपेक्षित रहते हैं, अतः अंत में शब्द का उल्लेख आता है। शब्द का विषय प्रायः अतीन्द्रिय रहता है; यह भी कारण है अंत में इसको पढ़े जाने का।

जिज्ञासा: क्या किसी विषय को जानने के लिए चारों प्रमाण सम्मलित रूप से अपेक्षित होते हैं? अथवा एक प्रमाण द्वारा प्रत्येक प्रमेय को जानलेना अपेक्षित रहता है? तात्पर्य है किसी प्रमेय में चारों प्रमाणों की प्रवृत्ति होती है अथवा एक की?

समाधान: प्रमेय में प्रमाण की प्रवृत्ति के दोनों प्रकार देखे जाते हैं। कहीं एक प्रमेय में अनेक प्रमाणों की प्रवृत्ति होती है, तथा किसी विषय में एक प्रमाण का प्रवृत्त होना संभव रहता है।

उदाहरण: तिरोहित अप्रत्यक्ष अग्नि का किसी आप्त (विद्वान, ज्ञानी, सत्य वचन बोलने वाला जिसने उस अग्नि को प्रत्यक्ष जाना है) के निर्देश से शब्दप्रमाण द्वारा बोध हो जाता है। जब व्यक्ति उस और जाने लगता है, और कुछ समीप पंहुच जाता है तब अग्नि के तिरोहित रहने पर भी उसमें से उठता हुआ धुँआ दिखाई देता है। तब धूम को देखकर अग्नि का अनुमान हो जाता है। उसी प्रकार अग्नि के समीप जाकर उसका प्रत्यक्ष हो जाता है। यह प्रमाणों का ‘अभिसंप्लव’ है, एक प्रमेय को जानने में एकाधिक प्रमाणों का प्रवृत्त होना।

इसी प्रकार जब हमारी हथेली पर एक फल अथवा कोई अन्य द्रश्य पदार्थ रखा रहता है, उस समय स्पष्ट हम उसका केवल प्रत्यक्ष करते हैं; न वहां अनुमान प्रवृत्त है और न शब्द। ऐसे स्थलों पर केवल एक प्रमाण की प्रवृत्ति देखि जाती है। इस प्रकार ये प्रमाण अकेले या मिलकर अर्थज्ञान के साधन होते हैं। सर्वप्रथम प्रत्यक्ष प्रमाण के शुद्ध रूप को ढंग से समझना अति आवश्यक है उसी से चारों प्रमाण और अन्य तथ्य भी आसानी से जल्दी समझ में आ जायेंगे इसीलिए मैं यहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण को संक्षिप्त में समझाने का प्रयास कर रहा हूँ शायद आपको यह दीर्घ लगे किन्तु मैं यहाँ काफी केवल मुख्य-२ बातें ही रख रहा हूँ। हाँ यदि किसी जिज्ञासु के मन में इसको पढ़ कर कोई विषयानुरूप तार्किक प्रश्न आता है तो मैं उसको टिप्पणी द्वारा या आगे के भागो में समाधान लिख दूंगा।

प्रत्यक्ष प्रमाण: वह ज्ञान प्रत्यक्ष है, जो इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष द्वारा उत्पन्न होता है; परन्तु वह अव्यप्देश्यम्, अव्यभिचारी, और व्य्वासयात्मक होना चाहिए। प्रत्यक्षज्ञान के स्वरूप को स्पष्टरूप में समझने की भावना से ३ विशेषण पद होते हैं जो निम्न प्रकार हैं।

अव्यपदेश्य-विशेषण: व्यपदेश्य का अर्थ है –कथन करना, शब्द द्वारा किसी अर्थ का बोध कराना इसीलिए यहाँ अभिप्रायः वह प्रत्यक्ष ज्ञान अभीष्ट है, जो ‘अव्यपदेश्य’ हो, अर्थात शब्द द्वारा जिसको बोध न कराया जा सके।

उदाहरण: एक व्यक्ति पेड़ा, बर्फी या रसगुल्ला खाता है। खाने पर जिसका वह अनुभव करता है, उसके लिए साधारण शब्द है --रस, और विशेष है -- मधुर रस। परन्तु प्रत्येक वस्तु के माधुर्य में परस्पर अंतर रहता है, भोक्ता व्यक्ति उस अनुभूति के लिए जिन पदों –रस अथवा मधुररस—का प्रयोग करता है, उससे अन्य किसी श्रोता व्यक्ति को उस माधुर्य का बोध का अर्थात अनुभूति नहीं करा सकता, और न ही वह उस माधुर्य के परस्पर अंतर का बोध करा सकता है। रस, मधुर रस, अथवा विभिन्न रस आदि पदों से जो बोध श्रोता को होता है, वह केवल शाब्दिक है ---शब्द्प्रमाणजन्य । मधुर पदार्थ और रसन-इन्द्रिय के सन्निकर्ष से जो ज्ञान का अनुभव होता है, वह उन शब्दों द्वारा उस श्रोता को होना संभव नहीं, जो शब्द भोक्ता अपने अनुभव को अभिव्यक्त करने के लिए बोलता है । इसी कारण भोक्ता का वह प्रत्यक्ष ज्ञान अव्यपदेश्य है; शब्द द्वारा अबोध्य । यदि वह शब्द द्वारा बोध्य हुआ करता तो ‘मधुर’ शब्द द्वारा माधुर्यशब्द की अनुभूति हो जाया करती। फलतः इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से जो ज्ञान भोक्ता-प्रमाता को होता है वह शब्द-निरपेक्ष है, अतः अव्यपदेश्य है। जो व्यपदेश्य है, वह शब्द ज्ञान है, प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं। इस मान्यता में यह परिस्तिथि सुस्पष्ट प्रमाण है – यदि किसी वस्तु के वाचक शब्दों को न जानने वाले और जाननेवाले दोनों व्यक्तियों को मधुर आदि पदार्थ का उपभोग कराया जाये, तो उस रस की अनुभूति में कोई अंतर न होगा। इससे स्पष्ट है इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्य वस्तु ज्ञान में शब्द की अपेक्षा नहीं होती इसीलिए वह ज्ञान शब्द द्वारा बोध्य नहीं। उस अर्थज्ञान के वाचक शब्द का कोई उपयोग नहीं होता। केवल बाह्य व्यवहार के लिये शब्द और अर्थ के वाचक –वाच्य सम्बन्ध को जानना आवश्यक है । यहाँ रहस्य यह है , कि उस अनुभुत्यात्मक अर्थज्ञान का – जो इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से उत्पन्न होता है – कोई ऐसा वाचक शब्द नहीं है, जिससे उसका तद्रूप बोध कराया जा सके। परन्तु किसी न किसी रूप में बोध कराये बिना लोकव्यवहार चल नहीं सकता । अतः अर्थ के लिए संज्ञा शब्द अथवा वाचक शब्द नियत हैं।

अव्यभिचारी विशेषण – प्रत्यक्ष ज्ञान का दूसरा विशेषण है –‘अव्यभिचारि’। अन्य पदार्थ में अन्य का ज्ञान होना व्यभिचारी ज्ञान कहलाता है। इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान , वही प्रत्यक्ष ज्ञान माना जाता है जो व्यभिचारी न हो।

उदाहरण: सांयकाल झुटपुटा होने पर मार्ग में पड़ी टेड़ी-मेंडी रस्सी को देखकर पथिक भय के वातावरण में सांप समझ लेते है। यह ज्ञान इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष से अवश्य होता है ; परन्तु उपयुक्त प्रकाश न होने और भय की भावना उभरने के कारण रस्सी में सांप का ज्ञान व्यभिचारी है। ऐसा ज्ञान उपयुक्त प्रकाश में भय की आशंका न रहने से नष्ट हो जाता है । तब वहां ‘यह रस्सी है’ ऐसा अव्यभिचारी ज्ञान प्रत्यक्ष माना जाता है। मृग-मरीचिका में भी व्यक्ति को व्यभिचारी प्रत्यक्ष ज्ञान अमान्य होता है किन्तु पास जाकर ‘यहाँ जल नहीं है’ ऐसा अव्यभिचारी प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। यदि उक्त ज्ञान का विशेषण अव्यभिचारी न रखा जाता तो व्यभिचारी-ज्ञान को भी प्रत्यक्ष माना जाता ; तब यथार्थ में उस वस्तु के वहां न मिलने पर प्रत्यक्ष प्रमाण का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता। प्रमाणों में प्रत्यक्ष को महत्व इसी आधार पर दिया जाता है कि प्रत्यक्ष द्वारा वस्तु का ज्ञान हो जाने पर उसमें आगे किसी प्रकार का संदेह या न्यूनता का अवकाश नहीं रहता , जो व्यभिचारी ज्ञान में संभव नहीं है।

व्य्वसायात्मक विशेषण: प्रत्यक्ष का तीसरा विशेषण है ---‘व्य्वसायात्मक’ । यहाँ व्यवसाय का अर्थ है – क्रिया का पूर्ण रूप से संपन्न हो जाना। ज्ञान के विषय में क्रिया की सम्पन्नता निश्चय पर होती है। अतः निश्चय, अवधारण, निर्धारण यहाँ व्यवसाय का अर्थ है।यद्यपि ‘व्यवसाय’ पद का प्रयोग विभिन्न प्रसंगों के अनुसार अनेक अर्थों में होता है , पर यहाँ उसका अर्थ केवल निश्चय है; ज्ञान का सर्वथा संदेह रहित होना। इस प्रकार व्य्वसायात्मक पद का अर्थ है निश्चयात्मक। जो ज्ञान निश्चय के स्तर पर पंहुच जाता है , उसी को प्रत्यक्ष कहते हैं।

उदाहरण: एक व्यक्ति मार्ग पर चला जा रहा है। दूर जाना था , साथ में दाल-चावल बंधे हैं । भूख उभर आई है; सोचता है , कहीं आग मिल जाती तो इन्हें पकाकर खा लिया जाता , क्षुदा निवृत्त हो जाती। इतने में एक ओर वह कुछ धुंद सा उठता हुआ देखता है। उसे देख कर वह दुविधा में पड़ जाता है कि क्या यह धुआं है , या धूल उड़ रही है ? ऐसा ज्ञान इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्य होने पर भी व्य्वसायात्मक नहीं है , संशयात्मक है ; अतः यह प्रत्यक्ष नहीं माना जायेगा।

जिज्ञासा: व्य्वसायात्मक ओर अव्यभिचारी में क्या अंतर है और व्य्वसायात्मक विशेषण आवश्यक क्यों है?

समाधान: व्यभिचारी में पुरुष निश्चय कर लेता है किन्तु उपयुक्त प्रकाश होने पर या पास जाकर इत्यादि क्रियाओं के पश्चात उसको यथार्थ बोध अर्थात अव्यभिचारी ज्ञान होता है जबकि संशयात्मक में वह निश्चय नहीं कर पाता है और संशय में पड़ जाता है अर्थात उसको व्य्वसायात्मक ज्ञान जब तक नहीं होता वह प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं माना जा सकता।

व्य्वसायात्मक ज्ञान इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्य होता है । इससे यह न समझना चाहिए कि जो ज्ञान आत्मनःसन्निकर्षजन्य है, वह अनवधारणात्मक –अनिश्चयात्मक होता है ; प्रत्युत्त चक्षु (नेत्र, आँख) से देखे जाते हुए पदार्थ का भी दृष्टा कभी-२ निश्चय नहीं कर पाता। जैसे चक्षु द्वारा अवधारण किये अर्थ का मन से अवधारण होता है ; ऐसे ही चक्षु से अनवधारण किये अर्थ का मन से अनवधारण होता है , इन्द्रिय से जैसा अनवधारणात्मक मनन होगा , मन से वैसा ही अनवधारणात्मक मनन होगा। ऐसी दशा में जब वहां विशेष धर्म जानने की अपेक्षा रहती है , तभी वह संशय का स्वरुप बनता है; उसे प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता । फलतः जो यह समझता है कि इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्य ज्ञान निश्चयात्मक ही होता है और व्य्वसायात्मक विशेषण अनावश्यक है , ऐसा समझना सर्वथा असंगत होगा।

क्रमशः

1 टिप्पणी:

nitin tyagi ने कहा…

thanks for knowledge
pl keep write continue