नीतिज्ञ और राजनीति शास्त्रों का कहना है –‘शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्रचिंता प्रवृत्तते’ –‘शस्त्र द्वारा राष्ट्र की रक्षा हो जाने पर ही शास्त्र की चिंता में प्रवृत्त होना चाहिये।व्यक्ति के समान प्रत्येक राष्ट्र के तीन पक्ष स्वभावतः होते हैं—शत्रु, मित्र और उदासीन। मित्र पक्ष के साथ प्रत्येक शासन परस्पर सहयोग की भावना रखता है । उदासीन पक्ष के प्रति बड़ी सावधानता व सतर्कता के साथ इसी स्तिथि को बनाये रखना आवश्यक होता है, इसका झुकाव शत्रु की ओर ना हो जाये।शत्रु एक ऐसा पक्ष है , जहाँ प्रतिक्षण संघर्ष की भावना बनी रहती है। संघर्ष चाहे अपने रूप में अच्छा नहीं समझा जाता, क्योंकि इससे चारो ओर हानि की संभावना रहती है, परन्तु संघर्ष आवश्यक हो जाने पर उससे बचना अथवा उसे टालने का प्रयास राष्ट्र के लिए और भी अधिक घातक सिद्ध होता है । इसीलिए नीतिकारो ने कहा है –शस्त्र द्वारा राष्ट्र की रक्षा करना सबसे पहला धर्मं है। असुरक्षित राष्ट्र में संपन्न कार्य भी विफल-जैसे बने रहते हैं।
यह एक बड़ी सूक्ष्म बात है कि कोई राष्ट्र शस्त्र का प्रयोग कब करे। राष्ट्र के कर्णधार जो राजनीति ओर युद्ध कला में अतिनिपुंण होते हैं वे उन परिस्तिथि को समझते हैं। पर इस समझ में यदि कहीं भ्रम रहता है , तो परिणाम उलट भी जाते हैं। यदि कोई राष्ट्र अपनी किन्हीं अज्ञात दुर्बलताओं के कारण अन्य राष्ट्र के अधीन हो चुका है , उसका भी एक समय आता है , जब राष्ट्र को अपनी उस हीन स्तिथि का अनुभव होने लगता है। वह उस पराधीनता से निकलने के लिए छटपटाने लगता है। स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए और स्वतंत्रता प्राप्त हो जाने पर उसकी रक्षा के लिए संघर्ष आधुनिक काल में अनुकूल-प्रतिकूल दोनों दशाओं में अच्छे नतीजे देता है। यूरोप के अंदर दो महान युद्ध हुए। वे जितनी जल्दी-२ हो गए उतनी ही जल्दी उनकी प्रतिक्रिया के स्वरुप संसार में अनेक उपलब्धियां सामने आई। यूरोप के ये युद्ध यदि न होते तो एशिया और अफ्रीका के जिन छोटे बड़े राष्ट्रों को इस थोड़े अंतराल काल में स्वतंत्रता मिली है वह कदाचित उतनी जल्दी न मिलती।
पिछली दो शताब्दियों में एशिया-अफ्रीका को यूरोप की विदेशी शक्तियों ने पराधीन बनाया और उन्होंने अपने आप को अजेय स्तिथि में पाया पर समय ने उनके इस गर्व को झकझोरा और उनके पारस्परिक संघर्ष ने और क्रांतिकारियों के बढ़ते महान विरोध ने उनको शिथिल बनाया , जिसके परिणाम स्वरूप पराधीन राष्ट्र स्वतंत्रता प्राप्त करने में समर्थ हो सके। हमारा राष्ट्र भी इस परिस्तिथि से निकला है। इसके सम्मुख अपनी प्राप्त स्वतंत्रता की रक्षा करना एक बड़ी समस्या है।
यूरोप की उन शक्तियों में , जिन्होंने एशिया –अफ्रीका में अपने साम्राज्य बनाये, ब्रिटिश जाति स्वार्थी, अपनी अत्यंत कुटिल चालों और दूरदर्शिता में मूर्द्धन्य है। इस देश में आने से पूर्व उसने अमेरिका और आस्ट्रेलिया में अपने उपनिवेश कायम किये। अमेरिका में यद्यपि यूरोप की प्रायः सभी जातियां हैं, पर आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में उन्होंने विशुद्ध ब्रिटिश जाति के उपनिवेश कायम किये। अपनी एकक्षत्र स्तिथि को निर्बाध बनाने के लिए वहां बसी पुरानी जातियों को नष्ट कर दिया गया। इस अपने राष्ट्र में भी कदाचित इसी भावना के साथ यूरोप की शक्तियों ने प्रवेश किये और धीर-२ यहाँ की राजनीतिक कमजोरी का लाभ उठाते हुए अपना पैर जमाया और अधिकतर भारत पर ब्रिटिश जाति ने आधिपत्य स्थापित किया। अंततः अब से कुछ दशक पूर्व उसे यह राष्ट्र राष्ट्रवादी शक्तियों के भीषण विरोध के आगे छोड़ना ही पड़ा यद्यपि उस समय के और उसके पीछे के वर्षों से यह प्रतीत होता है कि कदाचित उसके दिल से इसका दर्द, इसकी कसक अभी तक नहीं निकल सकी है। इस राष्ट्र की स्वतंत्रता मानो उसको कटोचती रहती हो। जब विदेशी शासक इस राष्ट्र को छोड़ कर जाने लगे तब प्रतीत होता है उनकी यह भावना कभी भी नहीं रही कि यह राष्ट्र फले-फूले। पिछली एक शताब्दी में १८५७ के स्वतंत्रता-संघर्ष के पश्चात राष्ट्रवादी शक्तियों में शिथिलता आ जाने पर विदेशी शासको ने ‘फूट डालो और राज करो’ के सिद्धांत को अच्छी तरह समझा तथा पूरी ताकत और चतुराई के साथ उसका प्रयोग किया। किन्तु यह सब-कुछ करने पर भी राष्ट्र के अंदर स्वतंत्रता की भावना सर्वथा नष्ट नहीं की जा सकी। अवसर पाकर उसने सर उठाया और इतनी शक्ति के साथ उठाया कि फिर झुकाने में तात्कालिक शासक ने अपने आप को अशक्त समझा। तब अपनी खीज मिटाने के लिए कुछ मोहरे खड़े किये , उनको बड़े यत्न से तछकर , ठोक-पीटकर तैयार किया गया, राष्ट्र के सामने लाकर जमा दिया गया जिसका एक नतीजा निकला पकिस्तान और दूसरा कांग्रेस सरकार। वैसे उन्होंने १८५७ की क्रांति के बाद ही क्रांतिकारियों और राष्ट्रवादी शक्तियों को दबाने के लिए सब से पहले कांग्रेस को ही खड़ा किया था जिसमें समय के साथ कुछ राष्ट्रवादी लोग भी जुड़े पर वो सभी उसमें से उसकी राष्ट्रघाती गतिविधियों के चलते निकलते गए या फिर कुछ ने उसमें रहकर सुधार का प्रयास भी किया पर दुर्भाग्य से वे उन मोहरों के आगे सफल न हो सके।
पकिस्तान का निर्माण इस सिद्धांत पर हुआ—हिंदू-मुस्लिम एक साथ नहीं रह सकते जबकि आज भी लगभग १०-१५ करोड़ मुस्लिम यहाँ भारत में रह रहे हैं। सबसे पहले तो अधिकतर भारत में रहने वाले अधिकतर मुस्लिम हिंदुओं से परिवर्तित (converted) हैं। समाधान तो यह होता कि सही इतिहास को लोगो को पढ़ाया जाता और उनको समझा-बुझा कर वापिस अपने मूल धर्म में लाने का प्रयास होता। इस प्रयास से निश्चित ही ६०-७० प्रतिशत मुस्लिम तो अपने मूल सनातन हिंदू धर्म में ही मिल जाते और जो थोड़े बहुत विरोध करते भी उनको यहाँ से बहार का रास्ता दिखाया जाता। खैर चलो यदि बंटवारा किया भी गया तो जिस सिद्धांत पर बंटवारा हुआ उसीकी अवेहलना की गयी। क्यों यहाँ मुस्लिम आबादी को रखा गया जबकि उनको एक अलग देश उनके मजहब के आधार पर ही दिया गया?
ब्रिटिशर्स के मोहरों से बनी हुई कांग्रेस के कुशासन के चलते इस राष्ट्र में मुस्लिमों को जान-बूझकर यहाँ की मूल धारा और राष्ट्रवाद से काटने का भरसक प्रयास अपना अस्तित्व अभी तक ज्यूँ का त्यूं बनाये हुए है। इसके परिणाम स्वरुप अधिकतर मुस्लिमों की अंतरात्मा और मनोवृत्तियाँ भारत व् पाकिस्तान को लेकर किस दिशा में बह रहीं हैं यह अब किसी से छिपा नहीं है। वो अनुकूल या प्रतिकूल कैसा अनुभव करते हैं यह तो उनकी अंतरात्मा समझती ही होगी किन्तु यह निश्चय है पकिस्तान के वर्तमान नेताओं द्वारा और आज के छद्म सेकुलरों (pseudo-seculars) द्वारा उदघोषित महान कष्टों के बीच में रहते हुए भी इनकी संख्या बढ़कर लगभग १० गुनी हो गयी है। क्या यह उनके कष्टों का परिणाम है, या सुख-सुविधा का ? जबकि इसके विपरीत पाकिस्तान में गैर मुस्लिमों की संख्या उतने ही काल में १/४ भी नहीं रही। इसके अतिरिक्त लाखों मुस्लिम बंगलादेश व् पकिस्तान से यहाँ आ रहे हैं।
प्रश्न यह है कि यह सब किसका परिणाम है? राजनीतिज्ञ इसको किसी भी रूप में समझें , पर एक विचारक की द्रष्टि में यह स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि ये सब स्तिथियाँ उन मनोवृत्तियों का परिणाम हैं जिनको लगभग ६-७ दशकों पूर्व काल में विदेशी और तत्कालीन कांग्रेस शासकों ने मुस्लिम नेताओं के दिमाग में जमाया ओर पनपाया। ब्रिटिशर्स द्वारा हमारे दूषित इतिहास की शुद्धि न करने के कारण स्वाभिमान को समाप्त किया गया। भारत राष्ट्र की स्वतंत्रता का लंबा इतिहास है। अनेक आक्रांता आये और चले गए, कुछ यहीं के बनकर रह गए, उनके लिए अब अपना यही देश यही मात्रभूमि है। कुछ वर्ग अपने देशों में प्रताड़ित होकर आश्रय मिल जाने की भावना से भी आये , वह उनको उदारता के साथ मिला। उनमें मुख्य रूप से शताब्दियों पहले भारत में बसी पारसी जाति का अब यही देश है।
इस समय सबसे बड़ा निकटतम शत्रु अल्पसंख्यकवाद की रक्त-केंसर रुपी बीमारी, झूठा सेकुलरवाद, इस्लामिक जेहाद, पश्चिम देशो के समक्ष यहाँ के युवा वर्ग की हीन भावना और पाकिस्तान इत्यादि हैं. यदि बात पाक और भारत की करें तो पाक नेताओं और भारतीय कांग्रेस की मनोवृत्ति जब तक पश्चिम देशो की गुलाम रहेगी, यह संघर्ष समाप्त होने की संभावना नहीं। पिछले संघर्ष में पकिस्तान को जब-जब मुंह की खानी पड़ी, तब-तब स्वयं पाक इतना नहीं जितना पश्चिम बौखलाया। इसके अलावा न केवल पाक वरन सभी मुस्लिम देशों को अपने मजहब की पुनः समीक्षा करने की अत्यंत आवश्यकता है. ऐसी स्तिथि में राष्ट्र-रक्षा के लिये प्रतिक्षण सतर्क रहना कितना आवश्यक है यह प्रत्येक भारतीय की द्रष्टि से ओझल नहीं होना चाहिये।
बुद्दिमान मुस्लिमों को और ईसाईयों को अपने मजहबी पुस्तकों के बारे में आत्ममंथन करने की अत्यधिक आवश्यकता है। कितना ही वो अपने को शांति का दूत बताने का कुतर्क देलें किन्तु यह उनका जेहाद और ईसाई मिशनरियों का कुचक्र सर्वविदित और प्रत्यक्ष है उसको कोई कैसे नकार सकता है कि उनको यह प्रेरणा कहाँ से मिलती है। इसीलिए मिथ्या प्रलापों को छोड़ कर अपनी पुस्तकों का निष्पक्ष हो कर बुद्धिमत्ता से विवेचन करें और तथ्य को समझें और अपने वर्ग को समझाएं। सनातन वैदिक हिंदू धर्मं का भी पिछली कई शताब्दियों से पतन हुआ है और यह कई मतों में विभाजित हुआ है किन्तु फिर भी हिंदू धर्म के ये मत समस्त मानव जाति के कल्याण जैसे वैदिक सिद्धांतों को मान्यता या महत्त्व दिए हुए हैं इस कारण इन मतों में विभाजित विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा करता हुआ हिंदू भिन्न दीखते हुये भी मूल रूप से एक है और विश्व-कल्याण के बारे में ही सोचता है किसी जेहादी या ईसाई-प्रचारक की तरह से नहीं।
आज परिस्तिथियाँ भिन्न हैं। हमें यह समझना चाहिये कि हमारे विरोध की जड़ कहाँ तक है। जब तक उससे मुंह न मोड़ कर यथार्थ निदानपूर्वक उसका उपचार न होगा राष्ट्ररक्षा के लिये कठिनाईयां बनी रहेंगी। प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्र का अंग है; राष्ट्र ही राष्ट्र की रक्षा कर सकता है। अंत में महान विद्वान ब्राह्मण चाणक्य के सूक्त के साथ आपको आत्ममंथन के लिये इस लेख को यहीं विराम देता हूँ –
सुखस्य मूलं धर्मः । धर्मस्य मुलमर्थः । अर्थस्य मूलं राज्यम् । राज्यमूलमिन्द्रियजयः ।
4 टिप्पणियां:
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अच्छा लेख
कृपया लिखते रहें |
किसी ने स्वामी जी से सवाल किया कि अगर स्त्री अथवा पुरुष में से किसी एक की मृत्यु हो जाती है और उनके कोई संतान भी नहीं है तब अगर पुनर्विवाह न हो तो उनका कुल नष्ट हो जाएगा। पुनर्विवाह न होने की स्थिति में व्यभिचार और गर्भपात आदि बहुत से दुष्ट कर्म होंगे। इसलिए पुनर्विवाह होना अच्छा है। (4-122) जवाब दिया गया कि ऐसी स्थिति में स्त्री और पुरष ब्रह्मचर्य में स्थित रहे और वंश परंपरा के लिए स्वजाति का लड़का गोद ले लें। इससे कुल भी चलेगा और व्यभिचार भी न होगा और अगर ब्रह्मचारी न रह सके तो नियोग से संतानोत्पत्ति कर ले। पुनर्विवाह कभी न करें।
आइए अब देखते हैं कि ‘नियोग’ क्या है ?
अगर किसी पुरष की स्त्री मर गई है और उसके कोई संतान नहीं है तो वह पुरुष किसी नियुक्त विधवा स्त्री से यौन संबंध स्थापित कर संतान उत्पन्न कर सकता है। गर्भ स्थिति के निश्चय हो जाने पर नियुक्त स्त्री और पुरुष के संबंध खत्म हो जाएंगे और नियुक्ता स्त्री दो-तीन वर्ष तक लड़के का पालन करके नियुक्त पुरुष को दे देगी। ऐसे एक विधवा स्त्री दो अपने लिए और दो-दो चार अन्य पुरुषों के लिए अर्थात कुल 10 पुत्र उत्पन्न कर सकती है। (यहाँ यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि यदि कन्या उत्पन्न होती है तो नियोग की क्या “शर्ते रहेगी ?) इसी प्रकार एक विधुर दो अपने लिए और दो-दो चार अन्य विधवाओं के लिए पुत्र उत्पन्न कर सकता है। ऐसे मिलकर 10-10 संतानोत्पत्ति की आज्ञा वेद में है।
इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु।
दर्षास्यां पुत्राना वैहि पतिमेकादषं कृधि ।45।।
(ऋग्वेद 10-85-45)
भावार्थ ‘‘हे वीर्य सेचन हार “शक्तिषाली वर! तू इस विवाहित स्त्री या विधवा स्त्रियों को श्रेष्ठ पुत्र और सौभाग्य युक्त कर। इस विवाहित स्त्री से दस पुत्र उत्पन्न कर और ग्यारहवीं स्त्री को मान। हे स्त्री! तू भी विवाहित पुरुष या नियुक्त पुरुषों से दस संतान उत्पन्न कर और ग्यारहवें पति को समझ।’’ (4-125)
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