मंगलवार, 7 सितंबर 2010

भारतीय सनातन धर्म और उसके दर्शन-शास्त्र

चेतन और अचेतन दो प्रकार के तत्व संसार में पाए जाते हैं। सृष्टिविद्या के पारदर्शी विद्वानों ने इस विषय में जो विशद विचार प्रस्तुत किये हैं, वे प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को इसी परिणाम पर पहुंचाते हैं। इन तत्वों का विवेचन भारतीय शास्त्रों में विस्तार के साथ किया गया है, विशेषरूप से दर्शनशास्त्रों का यही मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। यद्यपि आज काफी लोगो द्वारा ऐसा भी समझा जाता है, कि भारतीय दर्शनों में परस्पर विरोधी अर्थों का प्रतिपादन हुआ है, वे एक-दूसरे के प्रतिपाद्य अर्थों का प्रतिषेध करते दिखाई देते हैं। ऐसी स्तिथि में वास्तविक तत्व क्या है, यह निर्णय कर लेना सरल कार्य नहीं है।

दर्शनशास्त्रों की इस स्तिथि को आधुनिक द्रष्टि से इस आधार पर महत्त्वपूर्ण बतलाया जाता है, कि ऐसी विचार-विभिन्नता मानवीय मस्तिष्क के विकास और उसके क्रमिक उर्वरभाव की द्योतक है। आदिकाल से आज तक मानव कि इस प्रवृत्ति को यथार्थ रूप में अनुभव किया जा सकता है। इससे हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं , कि मानव ने विचारों की दासता को नैसर्गिक रूप में सर्वात्मना कभी स्वीकार नहीं किया , अपने आप पर कभी उसको प्रभावी नहीं होने दिया । ये विचारमूलक संघर्ष जनता के सामने सदा आते रहे हैं, और आते रहेंगे। इस प्रवृत्ति को मानव की ज्वलन्त जागृति एवं सतर्कता का प्रमाण कहा जाता है।

किन्तु इस विषय में महान आत्माओं का अनुभव है , कि यह प्रवृत्ति भले ही नैसर्गिक हो, जीवन्त जागृति का चिह्न हो , पर एक ओर की खिड़की से चुपचाप अज्ञान की छाया इसे झाँका करती है। मानव ने मुड़कर उस ओर बहुत कम देखा है ।कहा जा सकता है कि यह प्रवृत्ति अपने रूप में कितनी भी यथार्थ लगती हो, पर इससे तत्व के निर्णय व उसके स्वरुप के समाधान में कोई संतोषकर सहयोग प्राप्त नहीं होता ; जब वे विचार इतने स्पष्ट विभेदों के साथ हमारे सामने आते हैं , तो उनमें कौन सच्चा और कौन झूठा है, यह जानना कठिन हो जाता है। ऐसी स्तिथि में दो विकल्प हो सकते हैं –उनमें से कोई एक विचार सत्य हो अथवा कोई सत्य न हो; और यह अन्धेरे में लाठी चलाने व हाथ-पैर मारने का प्रदर्शन हो रहा है।

हम अपने आपको ऐसी स्तिथि में अनुभव करते हैं, कि जिन विद्वानों ने उन विचारों को प्रस्तुत किया है, यह साहस नहीं होता कि उन विचारों को अनायास ही असत्य मान लिया जाये। तब किसी भी विचारक के सम्मुख यह गम्भीर समस्या आ जाती है कि उन विभेदों की छाया में कौनसी समानता अन्तर्निहित है, जो इसका समाधान दे सकती है।

ज्ञात होता है –तत्व की वास्तविकता के स्वरुप का विस्तार अनन्त है। समय-२ पर जो तत्वदर्शी विद्वान प्रादुर्भूत होते रहे हैं , और उस तत्व की वास्तविकता के महासागर का अवगाहन करते रहे हैं; उन्होंने लोककल्याण की भावना से उस अथाह सागर के उतने ज्ञान-रत्नों को प्रस्तुत करने का स्तुत्य यत्न किया है, जिनको उस समय के जन-मानस के लिये आवश्यक अथवा अपेक्षित समझा। उनके सामने यह परिस्तिथी सदा जागरूक रही है कि जिन व्यक्तियों के लिये यह तत्व स्वरुप आलोकित किया जा रहा है , उसे ग्रहण करने की क्षमता उन व्यक्तियों में कहा तक है। इस प्रकार प्रत्येक दर्शन तत्व विषयक जितने अंश का वर्णन करता है, उसीको पूर्ण और अन्तिम समझकर उनके परस्पर विरोध की घोषणा कर देना उचित नहीं है।

इस विचार की छाया में यदि हम दर्शनों के प्रतिपाद्य विषयों पर ध्यान दें , तो स्पष्ट हो जाता है , कि प्रत्येक दर्शन एक दूसरे का पूरक है और वैदिक है, विरोधी नहीं है। भारतीय दर्शनों के दो विभाग किये जाते हैं—एक आस्तिक दर्शन , दूसरा नास्तिक दर्शन। आस्तिक दर्शन छः हैं –न्याय,वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा ,वेदान्त। नास्तिक दर्शनों में चार्वाकदर्शन, जैनदर्शन, तथा बोद्धदर्शन का समावेश है।

आस्तिक दर्शनों को लीजिए – सभी मान्य आस्तिक धर्म-शास्त्र शब्द प्रमाण के रूप में सर्वोपरि वेद को निर्बाध स्वीकार करते हैं। न्यायदर्शन में प्रमाण , प्रमेय आदि का वर्णन है, वस्तुमात्र की सिद्धि के लिये प्रत्येक स्तर पर प्रमाणों का आश्रय लेना पड़ता है। इस स्तिथि का कोई दर्शन विरोध नहीं करता। न्याय इसीका मुख्यरूप से वर्णन करता है। तत्वविषयक जिज्ञासा होने पर प्रारम्भ में उस विषय की शिक्षा का उपक्रम वहीँ से होता है, जिसका प्रतिपादन वैशेषिक ने किया है। यहाँ उन भौतिक तत्वों का विवेचन है, जो जीवन के सीधे सम्पर्क में आते हैं । मानव जीवन अथवा प्राणिमात्र जिस वातावरण से आवेष्टित है, और अपने निर्वाह तथा अपने अस्तित्व को –जब तक सम्भव हो –बनाये रखने के लिये साक्षात् जिन भूत-भौतिक तत्वों की अपेक्षा रखता है , उनका तथा उनके स्थूल-सूक्ष्म साधारण स्वरूप एवं उनके गुण-धर्मों का विवेचन करना वैशेषिक दर्शन का मुख्य विषय है। यह ग्रन्थ आधुनिक भौतिकी का आधार स्तम्भ भी कहा जा सकता है। इसको जानकार ही आगे तत्वों की अतिसूक्ष्म अवस्थाओं को जानने-समझने की ओर प्रवृत्ति एवं क्षमता का होना अधिक सम्भव है। इसके विरोध का कहीं अवसर नहीं आता , यह तत्वविषयक जानकारी का अपना स्तर है। वेदान्त आदि के प्रतिपाद्य विषय को समझने के लिये ज्ञान-साधन के इस स्तर से गुजरना आवश्यक है। वेदान्त अथवा कोई अन्य दर्शन इसका विरोध नहीं करता।

तत्वों की उन अतिसूक्ष्म अवस्थाओं और चेतन-अचेतन रूप में उनके विश्लेषण को तथा उनके वस्तुभूत भेदज्ञान की आवश्यकता को सांख्य प्रस्तुत करता है। प्रमाणों से वस्तुसिद्धि और वैशेषिक के तत्त्व विषयक प्रतिपाद्य अंश को वह अपनी सीमा में समेटे रखता है। तब न्याय-वैशेषिक के साथ उसके विरोध का प्रश्न ही नहीं उठता। न वे दोनों संख्य का विरोध करते हैं, क्योंकि उनका अपना –प्रतिपाद्य विषय का –सीमित क्षेत्र है। वेदान्त आदि के साथ भी सांख्य का कोई विरोध नहीं है, क्योंकि वेदान्त के मुख्य प्रतिपाद्य विषय को स्वीकार करने से नकार नहीं करता।, और न मीमांसा-प्रतिपाद्य धर्मानुष्ठान का वह विरोधी है। सांख्य ने चेतन-अचेतन के जिस विश्लेषण को प्रस्तुत किया है, उसके साक्षात्कार की प्रक्रियाओं का वर्णन योगदर्शन में है। इसका भी विरोध कोई दर्शन नहीं करता। वेदान्त केवल ब्रह्मा के अस्तित्व को सिद्ध करता है, वेदान्त का अध्यन मात्र उस चेतन ब्रह्म के स्वरुप का साक्षात्कार नहीं करा सकता; उसके लिये योगदर्शन की प्रक्रियाओं तथा औपनिषद उपासनाओं का आश्रय लेना होता है। तब वेदान्त आदि के साथ इसका विरोध कैसा।

योगप्रतिपाद्य इन प्रक्रियाओं के मुख्य साधनभूत मन अथवा अन्तःकरण की जिन विविध अवस्थाओं के विश्लेषण का योग में वर्णन किया गया है, वह मनोविज्ञान की विभिन्न दिशाओं का एक केन्द्रभूत आधार भी है। समाज की समस्त गति-प्रगतियों की डोर इसीके हाथ में रहती है। तब समाज के कर्तव्य-अकर्तव्यों का विश्लेशानात्मक विवेचन प्रस्तुत करने वाले मीमांसाशास्त्र का इससे विरोध कैसा ? समस्त विश्व के संचालक व नियन्ता चेतन-तत्व का वर्णन वेदान्त करता है। जगत के कर्ता-धर्ता-संहर्ता के रूप में प्रत्येक शास्त्र ने इसको स्वीकार किया है, कोई इसका प्रतिषेध नहीं कर्ता। वेदान्त का तात्पर्य केवल ब्रह्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने में है, अन्य तत्वों के प्रतिषेध में नहीं।

(शेष अगले भाग में)

15 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

aaap ne satyarth prakash naam ka blog to bana diya
per aap ko padne ki kam usko jayda samjhne ki jaroorat hai

aap ka lekh logo ko barmit kerta hai

बेनामी ने कहा…

aaap ne satyarth prakash naam ka blog to bana diya
per aap ko padne ki kam usko jayda samjhne ki jaroorat hai

aap ka lekh logo ko barmit kerta hai

बेनामी ने कहा…

@ आलोक मोहन जी -

कहते हैं - हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फारसी क्या !!!

प्रयास कीजिये धीरे-धीरे सब समझ में आ जायेगा !! अगर दर्शन शास्त्र और धर्म शास्त्र इतनी आसानी से समझ में आ जाते तो दुनिया स्वर्ग बन जाती !!!

सौरभ आत्रेय ने कहा…

@ आलोक मोहन जी

मुझे हर्ष होगा यदि आप सत्यार्थ प्रकाश को थोड़ा सा भी यहाँ समझायेंगे.

मेरे लेख यदि लोगो को भ्रमित करते हैं तो उसका कोई तो एक कारण दीजिए, जो मैंने इस लेख में लिखा है यदि आप उसको असत्य मानते हैं तो आप कुछ अलग प्रमाणित करके दिखाइए केवल कह देने मात्र से किसी की बात असत्य नहीं हो जाती.

बेनामी ने कहा…

saorabh bhai aap ko bura laga to mai maafi chahta hu
per mai kehna chata tha ki mai satyath prakash 20 bar padi hogi per mujhe lagta hai 2% hi samajh me aayi hogi
aap vedant ko srif devtauo(bermha ) ko prasan rekhne ka madhyam bata rehe ho ..ye mujhe acha nhi laga .
baaki aap ka lekh bahut accha tha

सहज समाधि आश्रम ने कहा…

सौरभ जी । आपकी बात पढकर अत्यन्त खुशी हुयी ।
मैं शीघ्र इसका जबाब हो सका तो पोस्ट रूप में दूंगा ।
अभी में कुलदीप जी को चार प्रश्नों के जबाब दे रहा
हूं । पर जिन संत से मैंने इसको जाना है । यदि आप
इसका और अन्य सवालों का भी जबाब चाहते हैं । तो
मैं आपको उनका फ़ोन न. 0 96 39 89 29 34 दे रहा
हूं । इस पर आप तुरन्त बात कर सकते हैं ।
साथ ही पहली बार आपका ब्लाग देखा । देखकर
अत्यन्त खुशी हुयी । मैं आप जैसे आध्यात्मिक विचार
वाले लोगो की तलाश मे इंटरनेट पर आया हूं ।
धन्यवाद ।

सहज समाधि आश्रम ने कहा…

सौरभ जी । आपकी बात पढकर अत्यन्त खुशी हुयी ।
मैं शीघ्र इसका जबाब हो सका तो पोस्ट रूप में दूंगा ।
अभी में कुलदीप जी को चार प्रश्नों के जबाब दे रहा
हूं । पर जिन संत से मैंने इसको जाना है । यदि आप
इसका और अन्य सवालों का भी जबाब चाहते हैं । तो
मैं आपको उनका फ़ोन न. 0 96 39 89 29 34 दे रहा
हूं । इस पर आप तुरन्त बात कर सकते हैं ।
साथ ही पहली बार आपका ब्लाग देखा । देखकर
अत्यन्त खुशी हुयी । मैं आप जैसे आध्यात्मिक विचार
वाले लोगो की तलाश मे इंटरनेट पर आया हूं ।
धन्यवाद ।

सौरभ आत्रेय ने कहा…

@ आलोक मोहन जी
सबसे पहले तो मैं यह कहना चाहूँगा कि मुझे बिलकुल भी बुरा नहीं लगा और इसमें क्षमा मांगने वाली कोई बात नहीं है.

@aap vedant ko srif devtauo(bermha ) ko prasan rekhne ka madhyam bata rehe ho ..ye mujhe acha nhi laga .
baaki aap ka lekh bahut accha tha

यहाँ आपके समझने में काफी अन्तर है. देखो पहले तो मैंने ये कहीं न लिखा वेदान्त में ब्रह्मा को प्रसन्न रखने का माध्यम बताया है, मैंने लिखा है वेदान्त में ब्रह्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है अन्य विषयों का यहाँ प्रतिषेध नहीं है. देवता संस्कृत की जिस धातु से बना है उससे देवता का अर्थ देने वाले से होता है जैसे सूर्य जगत को प्रकाश देता है तो वह देवता है, विद्वान व्यक्ति ज्ञान देता है उसको भी देवता कह देते हैं जैसे महर्षि वेद-व्यास, कपिल मुनि, दयानन्द सरस्वती आदि . जैसे किस्से कहानियों में देवताओं का वर्णन होता है ऐसा सत्य नहीं है. आप ब्रह्मा से पता नहीं क्या अर्थ निकाल रहे हैं. शायद आप मेरा इस लेख से मन्तव्य समझ नहीं पाए हैं. सच बताऊं तो आप अभी वास्तव में सत्यार्थ प्रकाश को किसी विद्वान से समझिये और फिर मेरे लेख को दोबारा से पढ़िये आप मेरा मन्तव्य और शब्दों के अर्थ को भली-भांति समझ पाएंगे. कृपया मेरी इस बात को किसी ओर रूप में अन्यथा न लेना एक छोटे या बढ़े भाई की सलाह या विनती की तरह लेना.

सौरभ आत्रेय ने कहा…

@राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ जी

हो सकता है आपको मेरी बात का बुरा लगे पर मैं यह सत्य ही कह रहा हूँ आप किसी चालाक और स्वार्थी व्यक्ति को सन्त की उपमा दे रहे हैं क्योंकि जैसा कि मैंने आपके ब्लॉग से उन कथित सन्त के कुछ और लेख भी पढ़े तो वो मुझे एक स्वार्थी सर-फिरे से अधिक कुछ नहीं लगे.

मेरा कहने का तात्पर्य यह नहीं कि मुझे आप सन्त मानें और मेरी बात मानें. आप सत्य और तर्क को माने जोकि वास्तविक ज्ञान है, लगता है आप किसी जादू-टोने वाले वाम-मार्गी के चक्कर में गलत फंस गये हैं. किसी के बहकावे में ऐसे ही न आयें तथ्यों से अवगत होइये तर्क-वितर्क कीजिये जो बात बुद्धि से उतरे उसको मानिये अन्धश्रद्धा को त्यागिये जिसने इस देश का सर्वनाश किया हुआ है.

बेनामी ने कहा…

mai aaj tak bhagwan ko apna guru aur dayanad ko margdesk manta reha...
per shayad ye dono mujhe bhudhi aur gyan dene me asfal rehe

aap se aap mere guru hai
badi badi baato ko aap se samujhuga

सौरभ आत्रेय ने कहा…

@आलोक मोहन जी
वैसे मैं आपके कहने का मन्तव्य समझ गया हूँ फिर भी कह देता हूँ -- मैं अभी स्वयं छात्र की श्रेणी में हूँ , गुरु बनने की योग्यता मेरे में बिलकुल नहीं है.

शुभम आर्य ने कहा…

सौरभ चाचा, आप इधर वेदान्‍त में लेगे हैं उधर अपनी किश्‍ती डूब रही है, मरे पास SMS आया है कि या तो आर्य समाज पुस्‍तक 'सत्‍यार्थ प्रकाशः समीक्षा की समीक्षा' जो मैंने इस ब्‍लाग पर देखी है siratalmustaqueem.blogspot.com का जवाब दो
अन्‍यथा अनर्थ हो जाएगा

अब आपके अतिरिक्‍त अपनी बात किस से कहें
जवाब दिजिए
या अग्नि वीर को भेजिए
तुरन्‍त

बेनामी ने कहा…

भाई क्या सत्यात प्रकश में १4 चप्टर स्वामी दयानद ने नही लिखा है
वो किसी और जोड़ा है
ये "vedkuran " के लेखक "anwarjamal " का दावा है
आप वहा पर जवाब दे

सौरभ आत्रेय ने कहा…

@आलोक मोहन
मैं मूर्खों और धूर्तों को ना तो पढ़ता हूँ और ना ही उनको कोई जवाब देता हूँ क्योंकि उनको ज्ञान और तर्क की भाषा कभी समझ नहीं आएगी.

पहले तो ये लोग दयानन्द सरस्वती पर आरोप लगाते हैं लेकिन जब इनकी इससे दाल नहीं गलती नज़र आती है तो अब इन्होने सत्यार्थ प्रकाश के चौदवें अध्याय को प्रक्षिप्त बताना शुरू कर दिया है क्योंकि उस अध्याय से इनकी पोल जो खुलती है.

बेनामी ने कहा…

आप पहले "http://satyagi.blogspot.com/2008/04/blog-post_17.html" पर सतीश जी ने जो कहा उसका जवाब दे | अन्यथा मुझे बड़ा कष्ट होगा | मैं आपकी ओर से जवाब की राह देख रहा हूँ |
जय भारत